निशा शर्मा।

कूटनीतिक स्तर पर भारत और चीन में दूरियों के बावजूद कला और संस्कृति को साझा करने की पहल दोनों ओर से की जा रही है। बॉलीवुड के ग्रेट शोमैन राजकपूर की लोकप्रिय फिल्म ‘आवारा’ के नाट्य रूपांतरण के लिए दोनों देशों ने समझौता किया है। शंघाई में आईसीसीआर के प्रतिनिधि प्रकाश गुप्ता के मुताबिक हिंदी और चीन की भाषा मंदारिन में ‘आवारा’ का थियेटर संस्करण तैयार किया जाएगा। इसके लिए आईसीसीआर का शंघाई अंतरराष्ट्रीय कला महोत्सव (सीएसआईएएफ) से एमओयू हुआ है।awara-final

भारत हर साल दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला देश है। बॉलीवुड की फिल्में पूरी दुनिया में देखी जाती हैं। भारतीय फिल्मों ने चीन में भी अपनी खास जगह बनाई है। मगर चीन की फिल्मों के साथ भारत में ऐसा नहीं है। दक्षिण चीन में भारतीय फिल्मों को सर्वाधिक पसंद किया जाता है। 1951 में बनी आवारा भी उन फिल्मों में एक है जिसे चीन में करीब छह दशकों से खूब सराहा जा रहा है। चीन में इस फिल्म के चलने की एक वजह फिल्म का कम्युनिस्ट विचारधारा के करीब होना भी था। दरअसल, चीनी सेंसर बोर्ड मार्क्सवादी विचारधारा की फिल्मों को तरजीह देता है। ऐसे में राज कपूर की आवारा चीन पहुंचने वाली हिंदी की शुरुआती फिल्मों में एक है जो आज भी चीन में खासी पसंद की जाती है। इसके अलावा संगम और मेरा नाम जोकर भी यहां खूब पसंद की गई।

रेडियो इंटरनेशनल चायना में कार्यरत और ‘हैलो चीन’ के लेखक अनिल पांडेय जिन्होंने चीन के लोगों को और उनकी संस्कृति को करीब से जाना है कहते हैं, ‘चीन के लोग भारतीय फिल्मों से ज्यादा उसके गीतों और डांस को पसंद करते हैं। हिंदी फिल्मों के गीत चीन में हिंदी में ही गाए जाते हैं क्योंकि हिंदी फिल्मों को तो चीन में अनुवादित किया जाता है लेकिन गीतों को नहीं। आज भी चीन की पुरानी पीढ़ी हर हिंदुस्तानी में रीता और राज को ढूंढते हैं। आवारा फिल्म का गाना ‘आवारा हूं’ को चीन में ‘आवाला हूं’ गाया जाता है क्योंकि मंदारिन भाषा में ‘र’ का उच्चारण नहीं है।’

वरिष्ठ फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे ने राजकपूर पर एक किताब लिखी है जिसमें उन्होंने राजकपूर की सृजन प्रक्रिया को बखूबी उकेरा है। क्या वजह है कि आवारा चीन में पिछले छह दशकों से पसंद की जा रही है के जवाब में चौकसे कहते हैं, ‘राजकपूर ने फिल्म में एक गरीब इंसान के रूप सभी विषयों को छुआ है। जैसे एक आम इंसान की मजबूरियां, साधन हीनता, दुख-दर्द। सौ सालों में आम इंसान के दुख दर्द में कोई कमी नहीं आई है। लोगों को न्याय नहीं मिलता, मजदूर वर्ग का शोषण हो रहा है। मां की आंखों में आंसू आएंगे तो चीन हो या भारत या कोई अन्य देश लोगों का दिल जरूर पसीजेगा। यही राजकूर की फिल्मों की सफलता का रहस्य है। राज कपूर आंसू और मुस्कान के प्रस्तुतकर्ता थे। यही नहीं आंसू के बीच मुस्कान जो जिंदगी का सबसे जटिल काम है उसे उन्होंने अपनी फिल्मों में उतारा है और आम आदमी की जिंदगी को उकेरने की कोशिश की है। मानवीयता के धरातल पर बना राज कपूर का सिनेमा आज भी जिंदा है। यही वजह है कि चीन और रूस में इसे खूब पसंद किया गया।’

कभी मधुर थे भारत-चीन के संबंध

बीसवीं सदी में चीन के मुक्ति अभियान और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में दोनों देशों के फिर से संबंध बने। द्वितीय चीन-जापान युद्ध (1937-1945) में चीनी सैनिकों को मेडिकल सहायता देने के लिए भारत की ओर से पांच डॉक्टरों का जो दल भेजा गया था उसमें डॉ. कोटनिस भी थे। उन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना चीनियों की सेवा की। सेवा के दौरान ही चीन में उनका निधन हुआ। यही कारण है कि उनकी सेवाओं के लिए चीन में सम्मान के साथ आज भी उन्हें याद किया जाता है। यह ऐसा समय था जब चीन और भारत के संबंधों में सकारात्मकता थी। इस दौर में दोनों देश अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। दोनों देशों में आपसी सहानुभूति थी। डॉ. कोटनिस के जीवन पर वी. शांताराम ने 1946 में ‘डॉ. कोटनिस की अमर कहानी’ नाम से फिल्म बनाई जिसमें दोनों देशों के आपसी सौहार्द को दर्शाया गया था।
जय प्रकाश चौकसे कहते हैं, ‘डॉ. कोटनिस ने वहां रहकर चीनी सैनिकों की सेवा ही नहीं की बल्कि वहां की एक लड़की से शादी भी की और अपने बच्चे का नाम भारत और चीन को जोड़कर रखा। यह दोनों देशों का प्रेम भाव था।’ इंस्टीट्यूट आॅफ चायनीज स्टडीज की अध्यक्ष पेट्रीसिया ओबरॉय ने ‘बॉलीवुड में चीन का चित्रण’ पर एक रिसर्च पेपर भी लिखा है। पेट्रीसिया कहती हैं, ‘चीन को लेकर भारतीय सिनेमा में हमेशा उदासीनता ही देखी जाती रही है। डॉक्टर कोटनिस की कहानी पर बनी फिल्म में ही भारत-चीन के संबंधों को प्रमुखता से दिखाया गया है।’

रिश्तों में खटास का असर बॉलीवुड पर भी haqiqat
50 के दशक में दोनों देशों के रिश्तों में सीमा विवाद के कारण तनाव बढ़ने लगा। इससे दोनों के आपसी रिश्तों में खटास आ गई। इसका असर फिल्मों पर भी पड़ा। 1962 में चीन से युद्ध हारने के दो साल बाद चेतन आनंद ने जब ‘हकीकत’ बनाई तो उन्हें भारत सरकार का पूरा साथ मिला। भारत और चीन की जंग को आधार बनाकर इस फिल्म की कहानी लिखी गई थी। इस फिल्म के मुख्य कलाकार थे बलराज साहनी, धर्मेंद्र, प्रिया राजवंश, संजय खान और विजय आनंद।

पेट्रीसिया ओबरॉय मानती हैं कि दोनों देशों की कड़वाहट को फिल्म हकीकत में बड़ी संजीदगी से दिखाया गया था। यही वह फिल्म थी जिसने चीन की छवि को सबसे पहले बदला। इसके बाद किसी भी फिल्मकार ने दोनों देशों के संबंधों को दर्शाने की कभी गंभीर कोशिश नहीं की। वह कहती हैं, ‘एक युद्ध ने दोनों देशों के रिश्तों में काफी दूरी ला दी। यही कारण भी रहा कि चीन को भारतीय फिल्मों में उपहास का केंद्र बनाकर दर्शाया गया। फिल्म ‘हावड़ा ब्रिज’ को ही लें जिसमें गाना था मेरा नाम ‘चिन चिन चू’ जो हेलन पर फिल्माया गया था जिसे चीनी महिला के तौर पर दिखाया गया था। हालांकि इस गाने का कोई मतलब नहीं निकलता है लेकिन चीन के उपहास के तौर पर यह गीत काफी प्रसिद्ध भी हुआ।’

चेतन आनंद के भाई और अपने जमाने के मशहूर अभिनेता देवानंद ने अपनी कई फिल्मों में चीनी लोगों को हमेशा ऐसी शख्सियत के तौर पर पेश किया जो किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। देवानंद ही ऐसे फिल्मकार थे जिन्होंने ऐसे समय में सिक्किम में जाकर फिल्म ‘हिमालय की गोद’ की शूटिंग की जब चीन और भारत के रिश्तों में कड़वाहट थी। इस फिल्म के परिदृश्य में चीन था लेकिन इसके बावजूद किसी भी चरित्र को खलनायक के तौर पर पेश नहीं किया गया था।Prem_Pujari

पेट्रीसिया 1962 के युद्ध के बाद भारतीय समाज में चीन की बदलती छवि को समझाती हुई कहती हैं, ‘देवानंद की फिल्म प्रेम पुजारी में चीन की छवि वह नहीं थी जो उनकी पुरानी फिल्मों में थी। 1970 में बनी इस फिल्म में देवानंद ने चीन को एक राष्ट्रीय खतरे के रूप में प्रस्तुत किया था। फिल्म में दिखाया गया था कि कैसे चीनी एक कुत्ते को भी सिर्फ इसलिए गोली मार देते हैं कि वह बॉर्डर पार कर भारत आ जाता है।’ चीन की चमक बॉलीवुड को लुभा पाने में क्यों नाकाम रही, दो उभरती अर्थव्यवस्थाओं की आपसी होड़, 1962 की लड़ाई या फिर कुछ और, इस सवाल के जवाब में फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे कहते हैं, ‘भारत से चीन का रिश्ता 1962 के युद्ध ने खत्म किया। उसके बाद की फिल्मों में नकारात्मक चीन की छवि का आना स्वभाविक था। भारत को इस युद्ध के बाद से हमेशा आशंका रही कि चीन कभी भी प्रेम भाव की आड़ में विश्वासघात कर सकता है।’

आईसीसीआर के निदेशक अमरेंद्र खाटुआ इसे कारोबारी नजरिये से देखते हैं। वह कहते हैं, ‘हमारी फिल्में चीन में खूब पसंद की जाती हैं। चाहे वह फिल्म को सिनेमा हॉल में जाकर देखने की बात हो या आॅनलाइन देखने की। लेकिन जब बात चीनी फिल्मों के भारत में आने की होती है तो यहां चीनी फिल्में देखी ही नहीं जाती हैं। इसकी प्रमुख वजह यह है कि चीन हमेशा उस चीज पर निवेश करता है जहां उसे ज्यादा लाभ की उम्मीद हो। जैसे चीनी उत्पादों को ही लें जो भारत में धड़ले से बिकते हैं। लेकिन जब फिल्मों की बात आती है तो चीन पीछे इसलिए हटता है क्योंकि चीनी फिल्मों को हिंदी में डब करने में काफी खर्च आता है। चूंकि भारतीय चीन की फिल्मों को कम पसंद करते हैं इसलिए डब करने के बावजूद वहां की फिल्में यहां ज्यादा मुनाफा नहीं कमा पाएंगी।’A_Touch_of_Sin_poster

इस मसले को पेट्रीसिया कमर्शियल वैल्यू के तौर पर देखती हैं और कहती हैं कि मैंने जब महिला फिल्मकारों से इस विषय पर बात की थी तो उन्होंने बताया था कि फिल्में कमर्शियल तौर पर बनाई जाती हैं। चीनी फिल्मों की कमर्शियल वैल्यू भारत में न के बारबर है। चीन के मशहूर फिल्मकार जिया झांगके को सिनेमा में उत्कृष्ट काम के लिए मुंबई में आयोजित हुए मामी फिल्म महोत्सव2016 में ‘अ टच आॅफ सिन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ कथात्मक फिल्म का पुरस्कार दिया गया। हालांकि इस फिल्म को बॉलीवुड की तरह ख्याति नहीं मिली।

हाल ही में बौद्ध यात्री के रूप में वर्णित चीन के विख्यात भिक्षु ह्वेनसांग के जीवन पर भारत और चीन ने साझा फिल्म बनाई थी। इसकी लागत करीब 2.2 करोड़ डॉलर थी। इसे दोनों देशों में रिलीज किया गया लेकिन यह फिल्म नहीं चली। 1980 के दशक में चीन में लंबा वक्त गुजार चुके फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज इस बारे में कहते हैं, ‘हिंदी फिल्मों का चीन से रिश्ता तो पुराना है लेकिन यह परवान नहीं चढ़ सका। हिंदुस्तानी फिल्मकारों को चीन कई वजह से नहीं लुभाता। फाहियान और ह्वेनसांग जैसे ऐतिहासिक चरित्रों पर फिल्म बनाना अच्छा हो सकता है लेकिन ऐतिहासिक फिल्में बनाना इतना खर्चीला है कि नहीं चलने पर फिल्म से जुड़े लोगों को भारी नुकसान होता है। यही कारण है कि घाटे का जोखिम कोई उठाना नहीं चाहता।’

एक वजह फिल्म सेंसर बोर्ड भी है। 1962 के युद्ध के बाद जब दोनों देशों के बीच शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए तो सेंसर बोर्ड ने इस चीज पर प्रतिबंध लगा दिया कि चीन को खलनायक के तौर पर फिल्मों में नहीं दिखाया जाएगा। इस कारण भी फिल्मकार चीन के मुद्दों से दूर होते चले गए।

पेट्रीसिया कहती हैं कि कुछ साल पहले आई अक्षय कुमार की फिल्म चांदनी चौक टू चायना में चीन के मार्शल आर्ट कुंग फू को दिखाया गया लेकिन बॉलीवुड स्टाइल में। फिल्म में समकालीन चीन को नहीं दिखाया गया।
विदेशी फिल्मों को लेकर चीन की नीतियों के हिसाब से चीन के सिनेमाघरों में ज्यादा हिंदी फिल्में नहीं दिखती हैं। चीन की सरकार हर साल केवल 20 विदेशी फिल्मों को ही सिनेमाघरों में दिखाने की मंजूरी देती है। पहले यह सीमा 10 फिल्मों की थी। इनमें से ज्यादातर हॉलीवुड फिल्में होती हैं।

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अनिल पांडेय चीन में भारतीय फिल्मों के बारे में कहते हैं, ‘चाहे भारतीय फिल्में सिनेमाघरों में कम दिखाई जाती हों लेकिन चीन के लोग आॅन लाइन हिंदी फिल्मों को खूब देखते हैं। आमिर खान, शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित, दीपिका पादुकोण, ऐश्वर्या राय, अनुष्का शर्मा की फिल्में यहां खूब पसंद की जाती हैं। थ्री इडियट्स, कुछ कुछ होता है, तारे जमीं पर, पीके और बाहुबली जैसी ब्लॉक बस्टर फिल्में यहां काफी चर्चित और लोकप्रिय हुर्इं। थ्रिलर फिल्में भी यहां के लोग काफी पसंद करते हैं। मल्लिका सहरावत की फिल्म ‘हिस्स’ यहां काफी पसंद की गई थी।’

आमिर खान की पीके ऐसी फिल्म रही जिसने चीन में 120 मिलियन युआन (करीब 20 मिलियन डॉलर) का कारोबार किया। चीन के इतिहास में यह पहली भारतीय फिल्म रही जिसने कमाई के सभी रिकॉर्ड तोड़े। उसके बाद बाहुबली को खूब सराहा गया। जय प्रकाश चौकसे कहते हैं, ‘भले ही दोनों देशों का सामाजिक तानाबाना अलग हो, दोनों देशों की प्राचीन सभ्यताएं रही हैं और यह जोड़ अहम रोल अदा कर सकता है।’ भारतीय फिल्में भले ही चीन में खूब पसंद की जाती रही हों लेकिन भारत के रुपहले पर्दे पर चीन जितना अनजान पहले था, उतना अब भी बना हुआ है।