प्रियदर्शी रंजन

भागलपुर जहां 1989 में आजादी के बाद से तब तक का सबसे बड़ा दंगा हुआ था, एक बार फिर दंगा की चिंगारी से धधक उठा। 17 मार्च को जब भागलपुर के नाथनगर में केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र अर्जित शास्वत की अगुआई में भाजपा और बजरंग दल का एक जुलूस निकाला गया था। नया विक्रम संवत साल की शाम को निकाले गए इस जुलूस पर कुछ स्थानीय लोगों को आपत्ति हुई और तनाव पैदा हो गया। भागलपुर जिले से शुरू हुई हिंसा धीरे-धीरे 25 मार्च को औरंगाबाद, 27 मार्च को समस्तीपुर, 28 व 30 मार्च को नवादा, मुंगेर होते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा समेत नौ जिलों तक पहुंच गई। इन 15 दिनों में बिहार दंगे का कारखाना बन गया और सैकड़ों लोगों के घाायल होने के साथ करोड़ों का माली नुकसान हुआ। इस दौरान औरंगाबाद, नवादा और नालंदा धू-धू कर जल उठा। तीन रोज तक भागलपुर जिले में इंटरनेट सेवा को बंद करवा दिया गया और नाथनगर के बाजार बंद रहे।
बिहार में दंगे की यह पहली घटना न होने के बावजूद महत्वपूर्ण है। देश भर में बिहार के इन दंगो के निहतार्थ ढूंढने की कोशिश हो रही है। लोगों के लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि जिस राज्य में आडवाणी का रथ रोके जाने के बाद भी सांप्रदायिक माहौल नहीं बिगड़ा, तकरीबन तीन दशक से बिहार में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ, उस राज्य के नौ जिले 15 दिनों में किस तरह जल उठे? कहीं यह धार्मिक ताकतों की ओर से जोर-आजमाइश तो नहीं है या राजनीतिक नफा-नुकसान के मद्देनजर इसे प्रायोजित किया जा रहा है? इन सवालों के जवाब तलाशने में जुटे समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह गहरा षड़यंत्र है तो प्रशासन इन दंगों के पीछे स्थानीय घटनाओं को जिम्मेवार मान रहा है।
दरअसल, पिछले कुछ महीनों में बिहार का राजनीतिक घटनाक्रम सांप्रदायिक रहा है। खासकर उपचुनाव के बाद बिहार में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बयार चल पड़ी। अररिया उपचुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवार सरफराज आलम की जीत के बाद कुछ समर्थकों का पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते हुए एक वीडियो वायरल हुआ। वीडियो में कुछ बंदे ‘भारत तेरे टुकडेÞ होंगे, इंशा अल्लाह’ के नारे लगाते दिखाई दिए। इस पर कई केंद्रीय मंत्रियों ने भी विवादित बयान दिया। इसके बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र अर्जित शास्वत के खिलाफ बिहार पुलिस के सांप्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप में मामला दर्ज कर लिया। अर्जित के पिता चौबे और एक दूसरे केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने बिहार पुलिस के खिलाफ बयान दे दिया। अब नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने पूछा कि झूठ कौन बोल रहा है-बिहार सरकार या केंद्रीय मंत्री। इसके साथ ही दरभंगा में भी तनाव पैदा करने की कोशिश की गई। इसी दौरान एक ऐसी अफवाह फैलाई गई कि एक भाजपा कार्यकर्ता के पिता राम चंद्र यादव की हत्या राजद के समर्थकों ने कर दी। राजद समर्थकों ने राम चंद्र को इसलिए जान से मार दिया कि उसने अपने गांव के चौक का नाम नरेंद्र मोदी के नाम पर रख दिया था। जबकि पुलिस का स्पष्ट मानना था कि हत्या भूमि विवाद में की गई।
इन घटनाओं को मिलाकर देखें तो दंगा करने की पृष्ठभूमि तैयार करने की कोशिश पहले से ही हो रही थी। राजनीतिक दलों ने गहरी रुचि से सांप्रदायिकता की आग को हवा दी, जो रामनवमी के मौके पर धधक उठी। कई सालों से रामनवमी पर विशेष कवरेज करने वाले पत्रकार ब्रजेश कुमार के मुताबिक, बिहार में यह पहली बार हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में शोभा यात्राएं निकाली गर्इं। रामनवमी ही नहीं, अगले तीन दिनों तक कई जिलों में जुलूस का आयोजन किया गया। शोभा यात्राओं की भव्यता रामनवमी के जुलूस से भी अधिक रही। इससे पहले भी शोभा यात्राएं निकाली जाती थीं, लेकिन इनका स्तर इतना बड़ा नहीं होता था। ब्रजेश की मानें तो बिहार की सड़कों पर जिस तरह से तीन दिनों तक शोभा यात्रा निकाली गई, वह इससे पहले नहीं होता था। राजनीतिक दलों ने इस तरह के आयोजन में पीछे के रास्ते भरपूर सहयोग किया। किसी संगठन या राजनीतिक दल के सहयोग के बिना इतने बड़े पैमाने पर हिंसा व आगजनी संभव नहीं है।
इन दंगों में एक नई बात और उभर कर आई है। मुजफ्फरपुर, भागलपुर व दरभंगा जैसे बड़े शहर ही दंगों के लिए अभी तक बदनाम थे। इस बार के दंगों में औरंगाबाद, समस्तीपुर, नवादा व शेखपुरा जैसे छोटे शहर भी इसकी लपेट में आ गए हैं। पूर्व सांसद व सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. एजाज अली कहते हैं कि दंगों का छोटे-छोटे जगहों पर पहुंचना इस बात का प्रमाण है कि सुनियोजित तरीके से दंगे का माहौल तैयार हो रहा है। उसके लिए किसी एक दल या संप्रदाय को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। दोनों ओर के कट्टर लोगों की कोशिश है कि दो संप्रदायों के बीच ध्रुवीकरण हो। मुस्लमानों में तीन तलाक और अन्य मसलों को लेकर जिस तरीके से केंद्र सरकार से नाराजगी है, उसे जायज नहीं कहा जा सकता। खुद को मुस्लिम आका समझने वाले कुछ लोग इसका फायदा उठा रहे हैं। कट्टर हिंदुओं की ओर से भी मुसलमानों को चिढ़ाने की कोशिश होती है। ऐसे लोग मुसलमान को देश में दोयम दर्जे का समझते हैं। उससे मुसलमानों में रोष है। यह रोष अब गांवों और छोटे शहरों तक पहुंच चुका है। छोटी जगहों में हिंदू-मुस्लिम टकराव की यह बड़ी वजह है।

बेबस मुख्यमंत्री
देश भर मेंं नीतीश कुमार के सुशासन का डंका पिछले एक दशक से बज रहा है तो इसकी वजह यह रही है कि इनके कार्यकाल में लोमहर्षक हिंसा के लिए बदनाम बिहार को इस दाग से मुक्ति मिल गई। इनके कार्यकाल में इस साल से पहले कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ था। जब लालू यादव की राजद के साथ सांठगांठ में सरकार का नेतृत्व किया तब भी नीतीश कुमार ने अपनी सुशासन बाबू वाली छवि कि साथ समझौता नहीं किया। मगर पिछले एक माह में जिस तरह से बिहार में दंगे का माहौल बना, उसके बाद नीतीश की सुशासन बाबू वाली छवि में राष्ट्रीय मीडिया व राजनीतिक पंडितों को कई छेद नजर आ गए। प्रशासन की ओर से दंगाइयों से निपटने में सुस्ती से नीतीश के नेतृत्व के इकबाल पर सवाल खड़ा हो गया है। जबकि रामनवमी के कुछ दिनों पहले एक सार्वजनिक मंच से मुख्यमंत्री ने प्रशासन से अपील की थी- ‘रामनवमी आने वाली है, आप लोग मुस्तैद रहिएगा, कुछ लोग इस अवसर पर अशांति फैलाने की कोशिश करेंगे। मेरी आम जनता से भी अपील है कि माहौल को सौहार्दपूर्ण बनाए रखें।’
नीतीश कुमार की इस मार्मिक अपील के बाद भी बिहार में दंगा हुआ। प्रशासन की सुस्ती ने इसे भड़कने का मौका दिया तो मुख्यमंत्री बेबस नजर आए। मुख्यमंत्री की बेबसी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह गृह जिले नालंदा, जहां कथित तौर पर उनकी तूती बोलती है, वहां भी हिंसा हुई। वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र तिवारी नालंदा में हुई हिंसा के सवाल पर कहते हैं कि नीतीश कुमार पर भाजपा हावी हो रही है। जिस नालंदा जिले में उनका सिक्का चलता था, वहां भी इस तरह की घटना हो तो आप समझ सकते हैं कि प्रशासन पर उनकी पकड़ कितनी कमजोर हो चली है। नीतीश कुमार के पास अब कोई विकल्प नहीं है। राजेंद्र तिवारी इस पूरे मामले को चुनावी तैयारी के तौर पर देखते हैं। उनके मुताबिक नीतीश कुमार ने 2005 से 2003 तक भाजपा के साथ सरकार चलाई, लेकिन उन्होंने कानून व्यवस्था से कोई समझौता नहीं किया। भाजपा से अलग होने के बाद भी कांवड़ यात्रा के दौरान दंगा भड़काने की कोशिश हुई पर प्रशासन की कड़ाई से मामला निपट गया। यह पहली बार हो रहा है कि वही भाजपा है, वही नीतीश कुमार हैं पर कार्रवाई नहीं हो रही है। नीतीश कुमार ने भले ही भाजपा के बारे में अपनी राय न बदली हो मगर लोगों को यह समझ आ रहा है कि अब भाजपा का नेतृत्व पहले जैसा नहीं रहा। भाजपा नीतीश के कंधे पर नहीं अब अपने दम पर बिहार में राजनीति करना चाहती है। और इसके लिए जरूरी है कि बिहार में भाजपा और राजद ही मुख्य धुरी हों।
‘द हिंदू’ के स्थानीय संपादक अमरनाथ तिवारी का भी मानना है कि दंगों के बाद नीतीश कुमार के पास अपनी छवि बचाने का मौका नहीं है। वे मुस्लिम परस्त राजनीति करते रहे हैं। अब वे क्या करेंगे? लौट कर लालू के पास जा नहीं सकते। भाजपा के साथ रहेंगे तो मुसलमान का भरोसा टूट जाएगा। लेकिन जहां तक मुझे मालूम है नीतीश कुमार इस स्थिति से उबरने के लिए कोई न कोई चाल जरूर चलेंगे। और यह चाल समय पूर्व चुनावी मैदान जाने का भी हो सकता है। हालांकि जदयू इससे रजामंद नहीं है कि नीतीश कुमार की छवि घूमिल हुई है। नीतीश कुमार की बेबसी और उनकी छवि पर उठते सवाल पर जदयू के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री श्याम रजक का मानना है कि नीतीश कुमार हिंसा रोकने में कामयाब रहे हैं। उन्होंने अपनी छवि के मुताबिक ही काम किया। बिगड़े हातात को फौरन काबू में कर लिया गया। वहीं रजक दंगे के सवाल पर राजद को कठघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं कि राजद की दंगों में भूमिका पर जांच होनी चाहिए।

पहली बार धू-धू कर जला औरंगाबाद
औरंगाबाद जिले में दंगे का आगाज रामनवमी के जुलूस के दौरान हुआ। रामनवमी जुलूस शहर के रमेश चौक से मुख्य बाजार में ज्यों ही पहुंचा, लोग उतावले हो उठे। हंगामा तब हिंसा में बदल गया जब जुलूस शहर की एक बड़ी मस्जिद की ओर से गुजर रहा था। इस दौरान लोगों ने जुलूस पर पथराव कर दिया। हालात बेकाबू हो गए और कुछ लोगों ने दुकानों में तोड़फोड़ शुरू कर दी और धीरे-धीरे तोड़फोड़ आगजनी में बदल गई। उपद्रवियों ने कई बड़ी दुकानें फूंक दी। कुछ ही मिनटों में पूरा शहर आग की लपटों में समा गया और शहर धू-धू कर जलने लगा। इससे दर्जनों लोग घायल हो गए।
औरंगाबाद के लिए हिंदू-मुस्लिम तनाव की बात नई नहीं है। लेकिन जिस अंदाज में इस रामनवमी पर दोनों एक दूसरे से भिड़ गए और शहर को दोनों ओर से आग के हवाले करने की होड़ मच गई, यह पहली बार इस शहर में हुआ। इस हिंसा के पीछे राजनीति को ही जिम्मेवार माना जा रहा है। औरंगाद जिले के राजनीतिक पत्रकार अरविंद कुमार के मुताबिक इस शहर में जो हुआ उसे देख कर यह लगा कि यह सब कुछ पहले से तय था। मिनटों में शहर जल गया और इसी दौरान 50 से अधिक लोग घायल हो गए। इतनी बड़ी हिंसा के लिए व्यापक तैयारी करनी होती है। ऐसा मालूम होता है कि दोनों ओर से कुछ दिनों से इसके लिए तैयारी की जा रही थी। इस दंगे के पीछे कट्टरवादी धार्मिक ताकतों के साथ राजनीतिक दलों का बड़ा हाथ होने का दावा करते हुए अरविंद कहते हैं कि भाजपा नेता अनिल सिंह का इस पूरे प्रकरण में बडा नाम उभर कर आना अनायास नहीं है। अनिल सिंह की छवि कट्टर हिंदूवादी की रही है।
हालांकि भाजपा इस पूरे प्रकरण में खुद को पाक-साफ मानती है। अनिल सिंह भी खुद को निर्दोष बताते हैं। दंगे के लिए आरोपी बनाए गए अनिल सिंह ने सीजीएम के यहां आत्मसमर्पण के दौरान कहा कि अगर वे दंगा में शामिल होंगे तो इच्छा मृत्यु मांग लेंगे। लेकिन वे हर साल रामनवमी की पूजा करते हैं और आगे भी करते रहेंगे। जबकि रामनवमी जुलूस के दौरान औरंगाबाद में हुुए उपद्रव के सवाल पर बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी बड़े भाजपा नेताओं को जिम्मेवार मानते हैं। चौधरी के मुताबिक भाजपा राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की साजिश रच रही है। रणनीति के तहत दंगे को भड़काया गया। उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई करने से प्रशासन बच रहा है। बेकसूर लोगों को रंजिश के तहत जेल में डाल दिया गया है। चौधरी नीतीश पर भी सवाल उठाते हुए कहते हैं कि मुख्यमंत्री की बेबसी की वजह से भाजपा को बिहार में कोहराम मचाने की ताकत हासिल हो रही है।