सुनील वर्मा/दिल्ली  

विकसित राष्ट्र बनने के लिए तेजी से प्रयास कर रहे भारत में एक ऐसी श्रम व्यवस्था का होना जरूरी है जो मजदूर और कारखाना मालिक, दोनों के लिए हितकारी हो। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के 68 साल में ऐसा न हो सका। श्रमेव जयते का नारा देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछली सरकारों के नजरिये में दिखी एक बड़ी भूल की तरफ इशारा करते हुए कहा कि सरकारों में बैठे लोग ही नहीं, बड़े-बड़े अर्थशास्त्री भी मजदूरों-कर्मचारियों से जुड़े मुद्दों को अक्सर निवेशकों या उद्योगपतियों के ही चश्मे से देखने की गलती करते रहे हैं। इससे देश के निराश-हताश मजदूरों और कामगारों में एक नई उम्मीद जाग उठी। लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार ने भी श्रम सुधारों का जो मसौदा बनाया है, उसे सभी श्रमिक संगठनों ने एकमत से मजदूरों के लिए अहितकर बताया है, जिनमें भाजपा का भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) भी शामिल है।

श्रम सुधारों का नया मसौदा कैबिनेट के बाद संसद के दोनों सदनों से भी पारित हो चुका है, लेकिन श्रम संगठनों के उग्र विरोध को देखते हुए प्रधानमंत्री ने श्रमिक संगठनों की सहमति से ही कानून को अमली जामा पहनाने का विचार किया। सरकार ने उसे मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास न भेजकर नए संशोधनों और प्रस्तावों के साथ बदलाव के लिए स्टैडिंग कमेटी के पास भेजा है।

फिलहाल देश में करीब 100 श्रम कानून हैं, जिनमें ज्यादातर समवर्ती सूची में हैं। इसका आशय यह है कि राज्य भी इनमें संशोधन करने के लिए कह सकता है। लेकिन संशोधन की मंजूरी देने का हक केंद्र के पास है। पिछले साल राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने तीन कानूनों-औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, ठेका मजदूर अधिनियम, 1970 और कारखाना अधिनियम, 1947 में संशोधन करने की अनुमति राजस्थान सरकार को दी थी। राजस्थान मॉडल का पालन करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने भी अध्यादेश के रूप में आठ श्रम कानूनों में संशोधन करने का प्रस्ताव राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पास भेजा है। महाराष्ट्र में भी औद्योगिक घराने राज्य के श्रम कानूनों में ऐसे ही बदलाव की पैरवी कर रहे हैं।

भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के महासचिव बिरजेश उपाध्याय का कहना है कि केंद्र सरकार सीधे तौर पर राजस्थान में लागू किए गए श्रम कानूनों को जस का तस लागू करने की कोशिश में जुटी है, जिससे बहुत सारे कामगार कानून के दायरे से बाहर हो गए हैं। इसके अलावा मजदूर संगठनों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल न करके राज्य सरकार अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन सम्मेलन 144 का उल्लंघन कर रही है। राजस्थान के नए श्रम कानूनों के मुताबिक कारखाना अधिनियम के दायरे में महज 257 कारखाने आएंगे जबकि इससे पहले करीब 1,400 कारखाने इसके दायरे में थे।

अन्य ट्रेड यूनियनें भी राजस्थान व केन्द्र सरकार के श्रम कानूनों में सुधार के प्रस्तावों पर कड़ा विरोध जता रही हैं। इसी के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रमिक संगठनों के साथ बातचीत करने के लिए वित्तमंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालयीय समिति बनाई है। श्रम व रोजगार मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, केन्द्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान, पीयूष गोयल और जितेंद्र सिंह भी इसमें शामिल हैं। श्रमिक संगठनों के नेता इस समिति और प्रधानमंत्री से मिल चुके हैं।

श्रमिक संगठनों-एटक (ऑल इंडिया यूनाइटेड ट्रेड यूनियन सेंटर), ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स, भारतीय मजदूर संघ, सीटू, हिंद मजदूर सभा, हिंद मजदूर संघ, आईएनटीयूसी, लेबर प्रोग्रेसिव फेडरेशन, नेशनल फ्रंट ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स, सेल्फ-एम्प्लायड वीमेंस एसोशिएशन, ट्रेड यूनियन कोऑर्डिनेशन सेंटर और यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रतिनिधियों से बैठक में प्रधानमंत्री से उन्हें भरोसा दिलाया था कि वह श्रमिक संगठनों की आपत्तियों की गहराई में जाऐंगे और श्रममंत्री को जरूरी सुझाव देंगे। साथ ही उन्होंने कहा कि गैर जरूरी और बेकार कानून हर हाल में हटाए जाएंगे।

नए कानून की अहम बातें

बदलाव

  • नया श्रम कानून तीन पुराने श्रम कानूनों इंडस्ट्रियल डिस्प्युट्स एक्ट 1947, ट्रेड यूनियंस एक्ट 1926 और इंडस्ट्रियल एंप्लॉयमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर्स) एक्ट 1946 की जगह लेगा।
  • फैक्टरी एक्ट, 1948 में बदलाव
  • अप्रेंटिसशिप एक्ट, 1961 में बदलाव
  • लेबर लॉज एक्ट, 1988 में बदलाव
  • नए प्रस्तावित श्रम कानून में कैबीनेट ने किए कुल 54 संशोधन

नए एक्ट

  • मोटर ट्रांसपोर्ट वर्कर्स एक्ट-1961
  • पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट-1965
  • इंटर स्टेट वर्कमेन एक्ट- 1979
  • बिल्डिंग एंड अदर्स कंस्ट्रक्शन एक्ट 1996

विरोध करने वालों का तर्क

  • कर्मचारियों को नौकरी से निकालना आसान होगा। छंटनी बढ़ जाएगी।
  • यूनियन बनाना मुश्किल हो जाएगा। न्यूनतम 10 फीसद या 100 कर्मचारियों की जरूरत होगी। जहां 7 कर्मचारी मिलकर ट्रेड यूनियन बना सकते थे वहां अब यह संख्या बढ़ाकर 30 कर दी गई है।
  • 44 श्रम कानूनों को मिलाकर 4 करना ठीक नहीं।
  • ट्रेड यूनियनों में बाहरी लोगों पर रोक।
  • फैक्ट्री मालिकों को ज्यादा अधिकार मिलेंगे।
  • अप्रैंटिसेज एक्ट में इकतरफा बदलाव।
  • राजस्थान और मध्य प्रदेश ने फैक्ट्रीज एक्ट और दूसरे श्रम कानूनों में इकतरफा बदलाव किए।
  • महाराष्ट्र और हरियाणा भी श्रम कानून बदलने की तैयारी में जो चिंताजनक।
  • कानून में बदलाव के पहले ट्रेड यूनियनों से सलाह-मशविरा नहीं किया।
  • कामगारों और कार्यस्थल पर सुरक्षा, स्वास्थ्य से जुड़े मसलों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र को मिल जाएगा जो पहले राज्यों के पास था।
  • पहले कारखाना अधिनियम 10 या ज्यादा मजदूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल होता हो) तथा 20 या ज्यादा मजदूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल न होता हो) वाली फैक्टरियों पर लागू होता था, अब इसे क्रमश: 20 और 40 मजदूर कर दिया गया है। इससे अब मालिक कानूनी तौर पर मजदूरों की बहुसंख्या को हर अधिकार से वंचित कर सकते हैं।
  • उन कंपनियों को श्रम कानून की बंदिशों से छूट मिल जाएगी, जहां 40 से कम लोग काम करते हैं। अभी तक 10 से कम कर्मचारियों वाली कंपनी को ये छूट हासिल है।
  • एक माह में ओवर टाइम की सीमा को 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे करना गलत क्योंकि इसका भुगतान डबल रेट से न होकर सिंगल रेट से होता है। जब कानून में ही 100 घण्टे के ओवरटाइम का प्रावधान हो जायेगा तो वास्तविकता में मजदूरों को कितने घण्टे कारखानों के भीतर खटना पड़ेगा।

बदलाव के पक्ष में तर्क

  • नौकरी से निकाले जाने पर तीन गुना ज्यादा मुआवजे का प्रावधान।
  • एक साल से अधिक समय से कार्यरत कर्मचारी को छंटनी के पहले 3 महीने का नोटिस देना जरूरी।
  • मैटरनिटी लीव की सीमा मौजूदा 3 महीने से बढ़ाकर 6 महीने करने का प्रस्ताव है।
  • बोनस के लिए वेतन सीमा 10 हजार रुपये से बढ़ाकर 19 हजार रुपये करने का प्रस्ताव। अभी 10,000 रुपये तक की आय वाले कर्मचारी को 8.33-20 फीसदी तक बोनस मिलता है। इसके साथ ही बोनस के लिए कैलकुलेशन सीलिंग को 3,500 रुपये से बढ़ाकर 6,600 रुपये करने का भी प्रस्ताव।
  • कर्मचारियों को बोनस के नियम और ग्रेच्युटी के फायदे के लिए 5 साल की नौकरी के नियम में ढील जैसे प्रस्तावों पर भी विचार।
  • कानूनी पेचीदगियां कम होने से औद्योगिक निवेश को बढ़ावा मिलेगा। विदेशी पंजी से लगने वाले कारखानों के बाद रोजगार के ज्यादा अवसर मौजूद होंगे।
  • नए बाल श्रम कानून से घरेलू व पारंपरिक कौशल को बढ़ावा मिलेगाा और आर्थिक विपन्नता में जीने वाले पारंपरिक व्यवसाय कर रहे लोगों को मदद मिलेगी।
  • लेबर इंस्पेक्टरों के पास यह तय करने का अधिकार नहीं रह जाएगा कि कब किस यूनिट के किस हिस्से का निरीक्षण करना है। यानी इंसपेक्टर राज पर अंकुश लगेगा, जिससे कारखाना मालिक कर्मचारियों के हितों पर ज्यादा ध्यान दे सकेंगे।
  • श्रम सुविधा पोर्टल के लिए नियोजकों को एक-एक श्रम पहचान संख्या दी जाएगी, जिसके जरिए वे रिटर्न्स की ई-फाइलिंग कर सकेंगे। इसके अलावा श्रम कानूनों की बाबत एम्प्लॉयर्स को जो 16 फॉर्म भरने पड़ते थे, उनकी जगह अब सिर्फ एक फॉर्म भरना पड़ेगा।

नए उद्योग क्यों नहीं लग रहे?

बीएमएस के राट्रीय महासचिव बिरजेश उपाध्याय ने प्रधानमंत्री के इस तर्क को एक मुलाकात के दौरान  खारिज कर दिया कि देश के औद्योगिक विकास, विदेशी पूंजी निवेश या रोजगार सृजन में श्रम कानून सबसे बड़ी बाधा हैं। उनका कहना है कि सरकारी नीतियां एवं पर्यावरण सहित विभिन्न मंजूरियां लेने के जटिल पचड़े ही उद्योगों के लिए नये निवेश की लिए मुख्य बाधाएं हैं।

ऐसा ही तर्क सीटू के राष्ट्रीय अध्यक्ष एके पद्मनाभन का भी है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार पिछले 20 साल में 63 देशों में श्रम कानूनों में बदलाव हुए लेकिन इससे कहीं भी रोजगार पैदा नहीं हुए। इसके बावजूद मोदी सरकार रोेजगार सृजन का झांसा देकर श्रम कानून बदलने को आमादा है।

हालांकि श्रम कानूनों में संशोधन के पीछे सरकार का तर्क है कि विदेशी निवेशक मौजूदा श्रम कानूनों के रहते देश की किसी भी परियोजना में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। विदेशी निवेशकों का मानना है कि मौजूदा श्रम कानून कंपनियों के हितों के खिलाफ हैं और निवेशकों को प्रताड़ित करने के लिए श्रमिक संगठन अक्सर इनका इस्तेमाल करते हैं।

भारतीय मजूदर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद डॉ जी संजीव रेड्डी नए श्रम कानून को पूंजीपतियों के हक में तैयार श्रम व्यवस्था बताते हैं। हिंद मजदूर सभा के राष्ट्रीय महासचिव हरभजन सिंह संधू कहते हैं, ‘वास्तविकता यह है कि श्रम कानूनों का निर्माण इसलिए किया गया था कि मिल मालिक और मजदूरों के बीच न्यूनतम लोकतांत्रिक रिश्ते कायम रहें तथा केवल मुनाफे के लिए कारखाना प्रबंधन मजदूरों के नागरिक होने के न्यनूतम अधिकार का हनन न कर सकें। श्रम कानूनों से ही मजदूरों का शोषण से बचाव होता था। सरकार अब श्रम कानून में बदलाव करके मजूदर शोषण का ये हथियार नष्ट करना चाहती हैं।’

मांग बढ़ने से रोजगार बढ़ेगा

दरअसल, धीमा उत्पादन और नए रोजगार सृजन में श्रम कानून कहीं से बाधक ही नहीं है। यह पूरी समस्या पूंजीवाद के आपसी अंतर्विरोध से जन्मी है। रोजगार तब तक नहीं बढ़ेंगे जब तक बाजार में वस्तुओं की मांग नहीं बढ़ती। आज बाजार का सारा संकट मांग का संकट है। बाजार में माल की कहीं कमी नहीं है, संकट उसकी बिक्री का है। और माल न बिक पाने के कारण उत्पादन क्षेत्र में सुस्ती है। फिर यहां श्रम कानून कहां समस्या बन रहे हैं?

ज्यादातर श्रमिक नेताओं का मानना है कि सरकार का यह दावा करना बिल्कुल गलत है कि देश के 44 श्रम कानूनों के कारण भ्रम की स्थिति फैलती है तथा इन कानूनों के कामगारों के पक्ष में होने के साथ-साथ इनको लागू करने में काफी लागत आती है।

बाल श्रम कानून में बड़ा बदलाव

बाल अधिकार कार्यकर्ता जहां बाल श्रम पर पूरी तरह रोक लगाने की मांग करते रहे हैं, वहीं केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले दिनों बाल श्रम कानून में भी बड़े बदलाव के फैसले पर मुहर लगा दी। इसके तहत 14 साल से कम उम्र के बच्चों को जोखिम रहित पारिवारिक व्यवसाय, मनोरंजन उद्योग और खेल गतिविधियों में काम करने को मंजूरी दे दी गई। बच्चों को इन कामों में विद्यालय समय के बाद काम पर लगाया जा सकेगा। इसके साथ ही अभिभावकों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई में भी ढील दी गई है। सरकार का तर्क है कि सामाजिक तानेबाने तथा सामाजिक-आर्थिक हालात को ध्यान में रखकर यह कदम उठाया गया है। नए संशोधनों के तहत बाल श्रम को संज्ञेय अपराध बनाने का प्रस्ताव किया गया है तथा कानून का उल्लंघन कर 14 साल से कम आयु के बच्चों को काम पर रखने वालों के लिए दंड बढ़ाने का भी प्रस्ताव है। दोषियों के लिए जेल की सजा बढ़ाकर तीन साल तक करने का प्रावधान किया जा रहा है। नए कानून के तहत हर बार अपराध के लिए 50,000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा।

उधर, बाल श्रम कार्यकतार्ओं और मजदूर संगठनों का तर्क है कि यह प्रावधान बाल श्रम को प्रतिबंधित करने की जगह उसे प्रोत्साहित करने का काम करेगा और बच्चों को उनके बचपन से भी वंचित करेगा। साथ ही  घरों में हो रहे किसी भी काम को घरेलू उद्यम का नाम देकर बिना कानून की गिरफ्त में आये बच्चों को ऐसे कामों