वेद प्रकाश पाठक।

महानगर के घासीकटरा की रहने वाली शाहनाज बानो को ईद के मेले के बाद अगर किसी आयोजन का इंतजार रहता है तो वह है मकर संक्राति से एक माह तक चलने वाले पूर्वांचल के एकमात्र बड़े आयोजन खिचड़ी मेले का। इस इंतजार का खास कारण है। यह मेला दैनिक जरूरत की छोटी से छोटी चीजों को किफायती दामों में उपलब्ध कराता है। शाहनाज का कहना है, ‘चूंकि इस आयोजन में शामिल होने के लिए कोई मजहबी पाबंदी नहीं होती इसलिए हम अपनी पसंद और जरूरत की चीजों की खरीदारी यहां से करते हैं। मेले में हमें कभी भी किसी प्रकार की असुरक्षा महसूस नहीं होती है।

शाहनाज बानो की बात को अधिवक्ता ऐनुल हसन नूरानी भी स्वीकार करते हैं। वैसे तो ऐनुल गोरखनाथ मंदिर की सियासी परंपरा से बिल्कुल अलग रुख रखते हैं लेकिन मंदिर की सामाजिक व्यवस्था के सकारात्मक पक्ष पर भी खुलकर बात करते हैं। बकौल ऐनुल, ‘गोरखनाथ मंदिर के आसपास बड़ी तादाद में मुस्लिम आबादी है। खिचड़ी मेले में और सामान्य दिनों में भी मुसलमानों के परिसर प्रवेश पर कोई पाबंदी नहीं है। हमारे लोग परिसर में खरीदारी करने और घूमने के दौरान कहीं से कोई खतरा महसूस नहीं करते। खिचड़ी मेला तो सभी मजहबों को सस्ती और सुलभ चीजें मुहैया कराता है।’

गोरखनाथ मंदिर के पास ही जमुनहिया निवासी महजबीन का कहना है, ‘मंदिर भले ही हिंदू धर्म का स्थान रहा है लेकिन आसपास के मुसलमानों के लिए यह वर्षों से घूमने और खरीदारी करने की जगह भी है। यहां न तो किसी प्रकार की पाबंदी है और न ही इस स्थान के कारण आसपास रहने वाली मुस्लिम आबादी को किसी प्रकार की दिक्कत हुई। परिसर में कहीं भी आपसे आपका मजहब नहीं पूछा जाता है। साल के 365 दिन परिसर में आसपास के मुस्लिम लोगों का आना जाना लगा रहता है।’

विश्व प्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर के सियासी स्टैंड को तो पूरा देश जानता है। यह हिंदुत्व की राजनीति के लिए एक खास पहचान रखता है। लेकिन बहुत कम लोग यह तथ्य भी जानते हैं कि मंदिर ने शिक्षा, चिकित्सा और सेवा के क्षेत्र में एक अलग किस्म की सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया है। मंदिर के श्रद्धालुुओं का आधार सवर्णों से ज्यादा दलित और पिछड़ी जातियों में है। ब्रह्मलीन महंथ अवैद्यनाथ ने बनारस में डोम राजा के यहां साधुओं के साथ सहभोज कर इसे और मजबूत किया था। मंदिर का यही सर्वजातीय प्रभाव क्षेत्र सियासी तौर पर पूर्वांचल में भाजपा को मजबूत करता है।

मंदिर प्रबंधन की ही अगुआई में 1932 में महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की स्थापना हुई। यहां के महंथ और गोरखपुर के तत्कालीन संसद सदस्य ब्रह्मलीन दिग्विजयनाथ जी महाराज ने इस परिषद की अलख जगाई थी। उनके शिष्य महंथ अवैद्यनाथ ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। इस समय परिषद 44 संस्थाओं का संचालन कर रही है जिनके शैक्षणिक विंग से 70 हजार विद्यार्थी लाभान्वित हो रहे हैं। इन विद्यार्थियों में सबसे ज्यादा पिछड़े और गरीब तबके के लोगों के बच्चे शामिल हैं। मंदिर प्रबंधन की ही अगुआई में गुरु गोरक्षनाथ धर्मार्थ चिकित्सालय का भी संचालन होता है जहां बगैर किसी मजहबी या जातीय पाबंदी के लोग सस्ता और सुलभ इलाज हासिल कर पाते हैं।

पूर्वोत्तर के लिए खास योगदान
गोरखनाथ मंदिर ने पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए एक खास पहल 1984-1992 तक की थी। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद से बहुत करीब से जुड़े डॉ. प्रदीप राव बताते हैं, ‘गोरखपुर में श्रीराम वनवासी छात्रावास की स्थापना से पहले 1984 से लेकर 1992 तक देश के पूर्वोत्तर राज्यों के दबे कुचले वर्ग के लोगों को शिक्षा दिलाने के अलावा उनको छात्रावास देने का काम मंदिर परिसर ने ही किया। इन राज्यों के युवाओं को सही दिशा देकर अपने पैरों पर खड़ा करने में गोरखनाथ मंदिर का भी विशेष योगदान रहा है।’ डॉ. राव का कहना है, ‘गोरखपुर के सांसद और महंथ योगी आदित्यनाथ जरूरतमंदों, निराश्रितों और अत्यंत पिछड़े तबकों को शिक्षा और स्वास्थ्य की सर्वसुलभ व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए सदैव तत्पर हैं।’

गोरखनाथ मंदिर में रोजाना दोपहर को होने वाले भंडारे (प्रसाद) में भी भोजन को लेकर कोई पाबंदी नहीं है। हजारों लोगों के लिए बनने वाले इस प्रसाद में मंदिर के कर्मचारियों व साधु संतों के अलावा सैकड़ों लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। इस प्रकार के सहभोज के सामाजिक आयोजन में भी मंदिर की प्रमुख भूमिका रही है। एक निजी कंपनी के एचआर डिपार्टमेंट से जुड़े और मंदिर के करीब रहने वाले अनिल कुमार सिंह का कहना है, ‘ हिंदू धर्म में जाति प्रथा पर हमला करने के लिए सहभोज की परंपरा यहां सदियों से है। परिसर के बाहर मंदिर की अगुआई में वर्षभर में हजारों सहभोज होते हैं जहां सभी जातियों के लोग बगैर किसी भेदभाव के एक साथ भोजन करते हैं। सहभोज में प्रतिभाग को लेकर कोई धार्मिक पाबंदी भी नहीं है।’

पीठ की खास पहचान
गोरक्षनाथ पीठ यूं तो नाथपंथ की परंपरा से जुड़ी है लेकिन सनातनी धार्मिक व्यवस्था के आयोजनों में भी इसकी खास भूमिका रहती है। होली और विजयादशमी के त्योहारों पर गोरक्षपीठ के महंथ या उत्तराधिकारी स्वयं जुलूस में शामिल होते रहे हैं। पीठ पर आने वाला फरियादी या भूखा आदमी निराश नहीं लौटा, फिर चाहे पर वह किसी भी जाति या मजहब का क्यों न हो। मंदिर परिसर में ही एक संस्कृत विद्यालय भी चलता है जहां के कई गैर ब्राह्मण विद्यार्थी भारतीय सेना में पुरोहित पद पर सेवाएं दे रहे हैं। मंदिर परिसर में कर्मचारी विनय गौतम बताते हैं, ‘ हमेशा से इस स्थान का प्रयास रहा है कि जातीय दीवारें गिराई जाएं और एक स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का विकास हो। अपने तमाम प्रयासों के जरिये गोरखनाथ मंदिर पूरे भारत में एक विशिष्ट सामाजिक पहचान स्थापित कर चुका है।’ करीब दस वर्षों से मंदिर में सेवा दे रहे विनय जैसे तमाम लोगों ने कभी भी कोई जातीय भेदभाव नहीं महसूस किया। वह भी ऐसे हालात में जबकि इस पीठ पर एक खास जाति को प्रोत्साहित करने के सियासी आरोप लगते रहे हैं। 