संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के प्रावधान के अनुसार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पीठासीन न्यायाधीश को सिर्फ महाभियोग के माध्यम से ही पद से हटाया जा सकता है। महाभियोग चलाने की कार्यवाही संसद करती है। किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए पेश प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से पारित करना होता है। प्रस्ताव पर पहले उस सदन में विचार होता है जिसके सदस्यों ने इसके लिए याचिका दी होती है। किसी भी न्यायाधीश पर गंभीर कदाचार और दुराचार अथवा भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर राज्यसभा के कम से कम 50 अथवा लोकसभा के कम से कम एक सौ सदस्यों की हस्ताक्षरयुक्त याचिका पर ही सभापति अथवा अध्यक्ष कार्यवाही कर सकते हैं। इसी कार्यवाही के तहत न्यायाधीश जांच कानून के प्रावधानों के अनुरूप याचिका में लगे आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय जांच समिति गठित होती है।
हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में पहली बार किसी न्यायाधीश को पद से हटाने की कार्यवाही मई 1993 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के शासनकाल में हुई थी। उस समय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी पर उनके 1990 के दौरान पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को लेकर उन्हें पद से हटाने के लिए लोकसभा में पेश प्रस्ताव पर लंबी और सार्थक बहस हुई थी। इस बहस में जॉर्ज फर्नांडीस और सोमनाथ चटर्जी जैसे कई दिग्गज नेताओं ने हिस्सा लिया था। जस्टिस रामास्वामी के बचाव में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल (जो बाद में कांग्रेस के नेता और कानून मंत्री भी बने) ने जबर्दस्त दलीलें दीं। सदन में जब मतदान का समय आया तो यह प्रस्ताव क्षेत्रवाद की भेंट चढ़ गया। विपक्ष ने जहां उन्हें पद से हटाने के प्रस्ताव के समर्थन में मत दिया, वहीं दक्षिणी राज्यों के सांसदों के दबाव में कांग्रेस और उसके समर्थक दलों ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया। जस्टिस रामास्वामी को पद से हटाने का प्रस्ताव गिर गया।
इसके विपरीत कलकत्ता हाई कोर्ट के न्यायाधीश सौमित्र सेन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बी सुधाकर रेड्डी की अध्यक्षता वाली जांच समिति ने उन्हें अमानत में खयानत का दोषी पाया था। जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही उन्हें कदाचार के आरोप में पद से हटाने के लिए पेश प्रस्ताव राज्यसभा ने 18 अगस्त, 2011 को पारित किया। इस प्रस्ताव पर लोेकसभा में बहस शुरू होने से पहले ही सौमित्र सेन ने एक सितंबर, 2011 को पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि राष्ट्रपति को भेजे इस्तीफे में उन्होंने कहा था, मैं किसी भी तरह के भ्रष्टाचार का दोषी नहीं हूं।
इसी तरह कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यााधीश पीडी दिनाकरण पर भी पद का दुरुपयोग करके जमीन हथियाने और बेशुमार संपत्ति अर्जित करने जैसे कदाचार के आरोप लगे थे। इस मामले में भी राज्यसभा के ही सदस्यों ने उन्हें पद से हटाने के लिए महाभियोग चलाने की याचिका दी थी। इस मामले में काफी दांव पेंच अपनाए गए। जस्टिस दिनाकरण ने जनवरी, 2010 में गठित जांच समिति के एक आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी। अगस्त, 2010 में सिक्किम हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बना दिए गए जस्टिस दिनाकरण को इसमें सफलता नहीं मिलने पर उन्होंने 29 जुलाई, 2011 को पद से इस्तीफा दे दिया। इस तरह उन्हें महाभियोग की प्रक्रिया के जरिये पद से हटाने का मामला वहीं खत्म हो गया।
इसके बाद तेलंगाना और आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश सीवी नागार्जुन रेड््डी और गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश जेबी पादीर्वाला के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही के लिए राज्यसभा में प्रतिवेदन दिए गये। न्यायमूर्ति पादीर्वाला के खिलाफ तो उनके 18 दिसंबर, 2015 के एक फैसले में आरक्षण के संदर्भ में की गई टिप्पणियों को लेकर यह प्रस्ताव दिया गया था। लेकिन मामले के तूल पकड़ते ही उन्होंने 19 दिसंबर को इन टिप्पणियों को फैसले से निकाल दिया था।