पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खासियत रही है कि यहां लोग अपनी भावनाओं को बहुत साफ रखते हैं, बिना लाग लपेट के बोलते हैं। क्या चुनावी नतीजा भी इसी तरह का होगा? नोटबंदी का असर, जाट, दलित और मुसलिम का गणित क्या है? इन सब बिंदुओं पर पश्चिमी यूपी के लोगों के चुनावी मंतव्य को समझने की कोशिश करती ओपिनियन पोस्ट के संपादक मृत्युंजय कुमार  की ग्राउंड रिपोर्ट।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के रुख का अंदाजा लगाना उत्तर भारत के अन्य इलाकों जैसा मुश्किल नहीं है। चुनावी सीजन में अन्य जगहों पर मतदाता नेता से ज्यादा राजनीतिक हो जाता है। अकसर जिन्हें वह वोट देना चाहता है उसके बारे में खुलकर बोलना तो दूर संकेत तक नहीं देता है। इसलिए सर्वे और राजनीतिक पंडित आखिर तक असमंजस में रहते हैं। लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव के रुझान को भांपने जब हम लोग पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में गए तो लोगों ने अपनी राजनीतिक राय रखने में कोई कंजूसी नहीं बरती।
गाजियाबाद से एनएच 58 पर निकलते ही हाइवे के दोनों ओर चुनावी होर्डिंग की कतार दिखने लगती है। मुरादनगर से पहले ही एक बैंक के बाहर मारामारी करती भीड़ के सामने मायावती की तस्वीर वाली विशालकाय होर्डिंग पर नारा लिखा था, ‘न गुंडागर्दी, न लूटमार आ रही है बसपा सरकार।’ अंबेडकर परिनिर्वाण स्थल के पास खड़े एक व्यक्ति कहते हैं, ‘इसका मतलब है कि बहन जी की सरकार आना तय है। जो लोग असमंजस में हैं वे तय कर लें कि अपना वोट सरकार बनाने वाली पार्टी को देना है या हारने वाली को।’ हो सकता है कि वह बसपा से जुड़े व्यक्ति रहे हों पर सच यही है कि सभी पार्टियां अभी तक चुनावी निर्णय पर नहीं पहुंचे वोटरों को अपनी ओर मोड़ने का प्रयास कर रही हैं। भाजपा के होर्डिंग भी सपा और बसपा पर हमला करते हुए भय और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देने की बात कर रहे हैं।

मुस्लिमों की राय एकदम साफ
मोदीनगर से पहले मुस्लिम बहुल एक इलाके में मदरसा मदीनतुल उलूम चलाने वाले मुफ्ती मजहरूल हक नोटबंदी से बेहद परेशान हैं। अपना बहीखाता दिखाते हुए उन्होंने बताया, ‘हमारा मदरसा इमदाद से चलता है। पर नोटबंदी के बाद से पैसा आना बहुत कम हो गया है। यहां पढ़ाने वाले शिक्षकों को कैश में वेतन दिया जाता रहा है। कारण, वेतन बहुत कम है और कोई बैंक के चक्कर नहीं काटना चाहता। इस बार दिक्कत हो गई है। बनिया मदरसे का राशन चेक से देने को राजी नहीं हो रहा। बच्चे दिन भर बैंक की लाइन में लग रहे हैं। पर जब शाम को नंबर आता है तब पैसे खत्म हो जाते हैं। सरकार को यह फैसला वापस लेना चाहिए।’ मुफ्ती साहब ने मदरसे के अकाउंट पर अभी तक डेबिट कार्ड नहीं लिया है पर अब लेने को तैयार दिखे। इस इलाके में ज्यादातर लोग छोटे-मोटे काम करने वाले हैं। जुमे की नमाज के लिए वहां आए अधिकतर लोग उनकी बात से सहमत दिखे। चुनाव की बाबत उन लोगों का साफ मानना था कि मुस्लिम भाजपा को वोट नहीं देंगे। पर किसे देंगे, सपा, बसपा, कांग्रेस या रालोद को? इस पर तीन बातें सामने आर्इं। पहली, पार्टी के तौर पर सपा और सीएम चेहरे के तौर पर अखिलेश यादव उनकी पहली पसंद हैं। दूसरी, जो भाजपा को टक्कर देता दिखेगा। तीसरा, मुस्लिम प्रत्याशी को वरीयता। यह मुस्लिमों के राजनीतिक रुझान का कॉमन परसेप्शन भी है।

आगे मेरठ और फिर सहारनपुर में मुस्लिम समुदाय के लोगों से बात करने पर यह बात साफ हो गई कि पश्चिमी यूपी में मुसलमान किसी एक पार्टी को वोट नहीं देने जा रहा। वह सहारनपुर में इमरान मसूद के प्रभाव में कांग्रेस को वोट करेगा तो कहीं भाजपा को हराने की स्थिति में दिख रहे बसपा या सपा प्रत्याशी को। ओवैसी फैक्टर के असर का अभी किसी को अंदाजा नहीं है। पश्चिमी यूपी से भाजपा के एक कद्दावर विधायक का भी यही आकलन है कि मुस्लिम यूपी में किसी पार्टी से नहीं जुड़ा है। जमीन पर हालात अलग हैं। यहां अगर बसपा मुस्लिम प्रत्याशी देती है तो वे बसपा को वोट देंगे। जहां मुस्लिम प्रत्याशी नहीं होगा वहां मुस्लिम वोट उसे जाएगा जो भाजपा से लड़ रहा होगा।

अजित सिंह और जाट
चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने वाले राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह को उम्मीद है कि पश्चिमी यूपी में जाट उनके साथ हैं और मुस्लिम उनका साथ देगा। यह उनकी राजनीति का आधार भी था। पर मुजफ्फरनगर दंगे के कारण अब यह आधार टूटता दिख रहा है। जाट वोटर मुस्लिम समुदाय के साथ किसी सूरत में राजनीतिक तौर पर जाने को तैयार नहीं दिखता। मेरठ से आगे दौराला मार्केट में बातचीत शुरू करते ही कई दुकानदार जमा हो गए। इनमें एक दो को छोड़कर सभी जाट थे। सबसे पहले बात नोटबंदी को लेकर हुई। एक दुकानदार संदीप ने कहा कि हमारी बिक्री एकदम साफ हो गई है। दिन भर में डेढ़ सौ की भी बिक्री नहीं होती। सौ दो सौ ऊपर-नीचे छोड़कर सबका यही हाल है। इतने की तो हम चाय पी जाते हैं। लेकिन हम परेशान नहीं हैं। मोदी सरकार ने यह बहुत अच्छा किया है। राजदीप और कपिल का कहना था कि बैंक वाले गड़बड़ कर रहे हैं। सरकार कैश की समस्या को जल्दी ठीक कर दे तो कोई दिक्कत नहीं है।

चुनाव की बात पूछने पर एक जाट युवक आशु ने कहा कि अजित सिंह हमारे सबसे बड़े नेता हैं। हम उनके साथ हैं पर वे चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ें। ऐसा हुआ तो पश्चिमी यूपी में एक भी सीट किसी और को नहीं मिलेगी। तभी दूसरे युवक ने कहा कि हमारा नेता सिर्फ बेपेंदी का होता तो कोई बात नहीं, पेंदी तो हमलोग लगा देते। लेकिन वो तो उस नाव पर चले जाते हैं जहां सुराख बंद करने की भी गुंजाइश नहीं होती। उसे डूबने से कैसे बचाएं। कुल मिलाकर यह समझ में आया कि जाट समुदाय अजित सिंह से हमदर्दी तो रखता है पर उनसे चुनाव में कोई उम्मीद नहीं रखता। खासकर युवा वर्ग। बुजुर्ग जाट अभी भी चौधरी चरण सिंह परिवार की विरासत का सम्मान करते हैं पर वे चुनावी जमीन पर अजित सिंह की पार्टी को जीत की फसल का वादा करते नहीं दिखते।

रार्धना गांव के संजय सिंह अपने गांव की सड़क को दिखाते हुए कहते हैं कि विकास कार्य तो हुए हैं पर यह यहां चुनाव का मुद्दा नहीं होगा। जिस दिन से बैंकों में पैसे मिलने की स्थिति ठीक हो जाएगी उस दिन से यह भी गायब हो जाएगा। गांवों में इसे लेकर बहुत ज्यादा परेशानी नहीं है। वे मानते हैं कि चुनाव पर मुजफ्फरनगर दंगे का असर अभी तक है। मुस्लिम और बड़ी संख्या में दलितों को छोड़ दें तो बाकी जातियां भाजपा की ओर झुकी दिखती हैं। इस लिहाज से पश्चिमी यूपी में कुछ सीटों को छोड़ दें तो अधिकतर पर भाजपा और बसपा की लड़ाई दिखती है।

किसान नोटबंदी से नाराज नहीं
सकौती के किसान विकास चौधरी कहते हैं कि किसानों को सही जानकारी न होने से नोटबंदी से दिक्कत तो हुई पर अब काफी कुछ पटरी पर है। लोग अभी तक पुरानी करेंसी में लेनदेन कर ले रहे हैं क्योंकि इसे बैंक में जमा करने के अलावा किसान क्रेडिट कार्ड के लोन चुकता करने में भी इस्तेमाल किया जा रहा है। दादरी के एक किसान योगेश गूजर कहते हैं कि किसानों को इसलिए दिक्कत नहीं हुई क्योंकि अधिकतर किसान अपना बीज इस्तेमाल करते हैं। बाजार में सालों से व्यापारियों से संबंध होते हैं इसलिए जरूरत पड़ने पर वहां से उधार भी मिल जाता है। इसलिए हम लोगों में नोटबंदी को लेकर कोई नाराजगी नहीं है। रार्धना के बुजुर्ग किसान रविंद्र सिंह बताते हैं कि गन्ना यहां बड़ा मुद्दा अब भी है। वैज्ञानिकों के अनुसार जो इसका लागत मूल्य है और जो चीनी मिलें दे रही हैं उसमें प्रति क्विंटल सिर्फ 18 रुपये का फर्क है। इस फर्क को बढ़ाने की जरूरत है। जो पार्टी गन्ने का खरीद मूल्य बढ़ाने का वादा करेगी उसे किसानों का समर्थन बढ़ सकता है। 