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आम तौर पर भारतीय राजनीति को एलीट क्लास का ‘खेल का मैदान’ माना जाता रहा है. लेकिन, बीच-बीच में यहां आम आदमी का हस्तक्षेप भी होता रहा है. नेहरू के एलिटिज्म को चुनौती देते हुए लोहिया हों या इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ मैदान में उतरे कामराज या फिर जेपी. आम आदमी के इस हस्तक्षेप ने भारतीय राजनीति के ‘लौह सिद्धांत’ को भी ललकारने का काम किया है, जहां बाहरी का प्रवेश वर्जित बना दिया जाता है. हाल में बिहार की राजनीति में एक ‘वीआईपी’ हस्तक्षेप हुआ है.

सोचिए कि अगर कोई अंजान सा आदमी अपनी पार्टी का नाम ‘वीआईपी’ रखता है, तो उसका आत्मविश्वास कितना मजबूत होगा. और, शायद यह उसका आत्मविश्वास ही है कि पहली बार चुनाव मैदान में उतरते ही महागठबंधन से तीन सीटें झटक लेता है. लेकिन ‘वीआईपी’ नाम से कंफ्यूज नहीं होना है. इस दल का पूरा नाम है, विकासशील इंसान पार्टी और इसके नेता हैं मुकेश सहनी, जो खुद को ‘सन ऑफ मल्लाह’ कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. अब यह किसी को जातीय मामला लग सकता है, लेकिन बिहार की राजनीतिक हकीकत यही है, जहां किसी नेता की हैसियत इस बात से आंकी जाती है कि उसे उसकी जाति का कितना समर्थन हासिल है यानी उसकी जाति के वोट कितने हैं. तो इस मामले में मुकेश सहनी बाजी मार ले जाते हैं. उनकी जाति का बिहार में एक ठीकठाक मतदाता प्रतिशत है.

पिछले ही साल नवंबर में पटना के गांधी मैदान में मुकेश सहनी ने एक रैली में पार्टी की घोषणा की थी, जिसका नाम वीआईपी रखा गया. और, इतने कम समय में ही उनकी पार्टी महागठबंधन की अहम सहयोगी बन गई और सीट बंटवारे में उसके खाते में तीन सीटें भी आ गईं. वीआईपी को खगडिय़ा, मधुबनी एवं मुजफ्फरपुर की सीट मिली है. मुकेश सहनी खुद खगडिय़ा से चुनाव लड़ रहे हैं. सवाल यह है कि चंद महीने पहले बनी इस पार्टी को बिहार में महागठबंधन ने इतनी अहमियत क्यों दी? तो इसका जवाब यह है कि इस पार्टी के मुखिया के पास जातिगत समीकरण के आधार पर न केवल एक बड़ा वोट बैंक है, बल्कि पार्टी के पास पैसा भी है. मुकेश सहनी बिहार के दरभंगा के रहने वाले हैं. लेकिन, उनका कनेक्शन बॉलीवुड से है. वह मुंबई में फिल्मों के लिए सेट बनाने का काम करते हैं. इस काम में उन्होंने बहुत पैसा कमाया. इस तथ्य को वह खुद भी स्वीकारते हैं, लेकिन यह भी साथ में कहते हैं कि इस पैसे को वह अपने समाज की बेहतरी के लिए खर्च करते हैं. वैसे, उनकी चुनावी सभाओं और रैलियों में जो तडक़-भडक़ होती है, गाडिय़ों का काफिला होता है, उसे देखकर पार्टी की मजबूत आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है.


मिथिला टू मुंबई

मुकेश सहनी मूल रूप से दरभंगा के सुपौल बाजार के रहने वाले हैं. एक साधारण मछुआरे परिवार में जन्मे मुकेश सहनी ने रोजगार के लिए मुंबई का रास्ता अख्तियार किया. वहां जाकर उन्होंने बॉलीवुड में फिल्म सेट बनाने का काम शुरू किया. जब उन्होंने संजय लीला भंसाली की फिल्मों के सेट डिजायन करने शुरू किए, तबसे उनका नाम चर्चा में आ गया था. आज उनकी खुद की एक कंपनी है, जिसका नाम मुकेश सिनेवल्र्ड प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. वैसे तो यह उम्मीद जताई जा रही थी कि मुकेश दरभंगा से ही चुनाव लड़ेंगे, लेकिन यह सीट राजद के खाते में चले जाने के बाद उन्होंने खगडिय़ा से लडऩे का फैसला किया. अब देखना यह है कि ‘सन ऑफ मल्लाह’ बिहार की राजनीति में कितना भव्य सेट बना पाता है…


गौरतलब है कि पार्टी बनाने से पहले मुकेश सहनी भाजपा और जदयू के साथ भी रह चुके हैं. हालांकि उस वक्त वह इन दलों के साथ प्रचारक के तौर पर थे. अब आप यह सोच सकते हैं कि इन दोनों दलों ने तब मुकेश सहनी को क्यों साथ रखा था? राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि इन दोनों दलों ने उन्हें अपने साथ इसलिए भी लिया, क्योंकि उन्होंने उनके चुनाव प्रचार में काफी समय और पैसा दिया था. फिर ऐसा क्या हुआ कि मुकेश सहनी इन दोनों दलों से इतर अब महागठबंधन के साथी बन गए. इसके पीछे यह बताया जाता है कि लोकसभा चुनाव 2014 में उनके समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला था. वैसे यह भी संभव है कि तब मुकेश सहनी खुद भाजपा के टिकट पर चुनाव लडऩा चाहते रहे हों, लेकिन उन्हें टिकट नहीं दिया गया और बाद में उन्होंने खुद को ठगा महसूस किया हो. वैसे वह मीडिया से बातचीत करते हुए कह चुके हैं कि अमित शाह ने उनके साथ गद्दारी की थी, इसलिए अब वह खुद की पार्टी बनाकर भाजपा को सबक सिखाने जा रहे हैं.

बहरहाल, वीआईपी का राजनीतिक भविष्य तो चुनाव नतीजों से तय होगा. लेकिन यह हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती है कि यहां एक आम और अंजान से आदमी के लिए भी जगह होती है. बशर्ते, उसके पास जनाधार हो, नीति हो और नीयत हो. पिछले कुछ सालों में भारतीय राजनीति में राजनीतिक वंशवाद से इतर लोगों की आमद बढ़ी है. चाहे वह जिग्नेश मेवानी हों, हार्दिक पटेल हों, अरविंद केजरीवाल हों, कन्हैया कुमार हों या फिर मुकेश सहनी. इनके विचार, इनकी नीति अलग हो सकती है, जनता किसे स्वीकारती है, किसे नकारती है, यह भी एक अलग विषय है. लेकिन, मुख्य धारा की राजनीति में इस तरह के ‘वीआईपी’ हस्तक्षेप अच्छे हैं.