राज खन्ना

प्रसंग पुराना है। 1981 में स्व. राजीव गांधी के मुकाबले शरद यादव भारी अन्तर से चुनाव हारे थे। मतदान से मतगणना तक धांधली की शिकायत करते शरद यादव ने अमेठी में डटे रहने का निश्चय किया था। उन्होंने कुछ दिनों तक जनसरोकारों को लेकर धरना-प्रदर्शन जैसी कोशिशें कीं। फिर वह निराश हो गए। ऐसे ही एक मौके पर इन पंक्तियों के लेखक से उन्होंने कहा था, ‘क्या किया जा सकता है! कोई खिड़की नहीं खुलती। कोई दरवाजे से नहीं निकलता।’ फिर शरद यादव अमेठी को भूल गए। इस लंबे दौर में गांधी परिवार को अमेठी में असफल चुनौती देने वाले और बड़े नाम (जिसमें इसी परिवार के दूसरे खेमे की मेनका गांधी शामिल हैं) ने मतगणना के बाद अमेठी को भूलना बेहतर समझा। पर 2014 आते-आते अमेठी काफी कुछ बदल गई।
बेशक इस चुनाव बाद भी संसद में अमेठी की नुमाइंदगी गांधी परिवार के हाथों में है। चाचा स्व. संजय गांधी, पिता स्व. राजीव गांधी और मां सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी तीसरी बार इस सीट से संसद में हैं। लेकिन अपनी पार्टी की उम्मीदों के केंद्र राहुल को उनके परिवार की समझी जाने वाली अमेठी ने इस चुनाव में मतदान के दिन एक से दूसरे बूथ के बीच दौड़ लगाने को मजबूर कर दिया था। फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में संसदीय क्षेत्र की पांचो विधानसभा सीटों पर उनके प्रत्याशियों को चित्त कर दिया। गांव की पंचायत से लेकर शहरी निकाय तक विपक्षियों को माथे पर बिठा लिया। और जिस अमेठी में कभी खिड़की- दरवाजे नहीं खुलते थे वहां 2018 आने तक राहुल का रास्ता रोकने और उनके खिलाफ नारे लगाने वाले भी सड़कों पर नजर आने लगे। पार्टी के लिहाज से राहुल के खाते में असफलताओं की लम्बी फेहरिस्त है। लेकिन खुद वह अब तक अमेठी से लगातार जीते हैं। दिक्कत यह है कि अब अमेठी भी उनकी चिंताएं बढ़ा रही है। उनके परिवार को बार-बार चुनने वाली अमेठी विधानसभा और अन्य चुनाव में पहले भी झटके देती रही है। पर 2014 के चुनाव से हो रही टेढ़ी निगाह होने थमने का नाम नहीं ले रही।
केंद्र-प्रांत में कांग्रेस सत्ता से बाहर है। उ.प्र. से संसद में उसकी सिर्फ दो सीटें हैं। एक राहुल की अपनी अमेठी और दूसरी पड़ोस में रायबरेली, जहां से उनकी मां सोनिया गांधी सांसद हैं। भाजपा की इन दोनों सीटों पर नजर है। भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देती रही है। पार्टी के रणनीतिकारों को लगता है कि अमेठी-रायबरेली को फतह करके कम से कम उ.प्र. से लोकसभा में कांग्रेस की हाजिरी सिफर की जा सकती है। भाजपा 2014 में अमेठी में हारने के बाद इस दिशा में लगातार काम कर रही है। पार्टी रायबरेली के लिए तो कोई चेहरा नहीं तलाश सकी है लेकिन अमेठी उसे उत्साहित कर रही है। चुनाव के दौरान राहुल को कड़ी चुनौती देने वाली स्मृति ईरानी ने वादा किया था , ‘हारूं या जीतूं, अमेठी नहीं छोडूंगी।’ उस वादे को वह चुनाव हार कर भी मन से निभा रही हैं। उनकी खुशकिस्मती है कि हारने के बाद भी वह केंद्र में मंत्री हैं। उससे भी बड़ी उनकी उपलब्धि यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में अमेठी की पांच में चार सीटें उन्होंने पार्टी की झोली में डाल दीं। प्रदेश में उनकी पार्टी की प्रचंड बहुमत की सरकार है। विधानसभा के बाद शहरी निकाय चुनाव नतीजों में भी अमेठी ने एक बार फिर साथ दिया। ऐन गुजरात के चुनाव के मौके पर अमेठी की नगर पंचायत में जीत का डंका पार्टी ने वहां खूब बजाया। इस जीत को पार्टी ने इस हद तक तरजीह दी कि प्रधानमंत्री मोदी ने अमेठी से जीते पंचायत अध्यक्षों से दिल्ली में मुलाकात की। मुसाफिरखाना की नगर पंचायत जहां भाजपा मुकाबले से बाहर थी, वहां विजयी निर्दलीय अध्यक्ष को पार्टी नेता दिल्ली ले गए। उन्हें भाजपा में शामिल किया और फिर प्रधानमंत्री से भेंट कराई। भाजपा अमेठी को लेकर इस कदर गंभीर है कि केंद्र और उ.प्र. दोनों की ही सरकारें अमेठी का खास ख्याल रख रही हैं। राज्य सरकार के तो मंत्रियों के एक समूह को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है। राहुल गांधी भले अमेठी के सांसद हों लेकिन उनसे पराजित स्मृति के अमेठी के दौरे उनसे बीस ठहरते हैं। उनकी सक्रियता, वाक्-कौशल, सघन जनसम्पर्क और फिर साथ जुड़ी सत्ता ने ‘अमेठी की नई दीदी’ को उस पुरानी दीदी (प्रियंका गांधी) से कहीं ज्यादा लोकप्रिय बना दिया है, जो सिर्फ चुनाव के मौके पर भाई राहुल की मदद के लिए अमेठी का रुख करती हैं। स्मृति दिल्ली में अमेठी के लोगों को अलग समय देती हैं। वहां के मसलों-जरूरतों की विभिन्न मंत्रालयों में पैरवी करती हैं। राज्य सरकार उनकी सिफारिशों को गंभीरता से लेती है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ अमेठी में मंच साझा करके संदेश दे चुके हैं कि संगठन और सरकार दोनों अमेठी को लेकर बेहद गंभीर हैं। गुजरात चुनाव के दौरान जब राहुल गांधी वहां मोदी के विकास मॉडल की खिल्ली उड़ा रहे थे, ठीक उसी समय अमित शाह अमेठी में गांधी परिवार के जुड़ाव के हासिल का हिसाब कर रहे थे। अमेठी को जिले का दर्जा पाये चंद साल हुए हैं। पहले बसपा ने राजनीतिक कारणों से जिले का दांव चला। सपा को भी फायदा दिखा और उस फैसले पर मोहर लगाई। राहुल इस महत्वपूर्ण मौके पर तटस्थ बने रहे। जिले के पास कोई आधारभूत ढांचा नहीं था। इससे लोगों की दिक्कतें बढ़ी हैं। भाजपा अब वहां की हर कमी का ठीकरा राहुल पर फोड़ रही है। भाजपा दोहरे फायदे में है। एक ओर सत्ता में रहते हुए उसने विपक्षी को रक्षात्मक स्थिति में ला दिया है। दूसरी ओर नए जिले के हर निर्माण के शिलान्यास और उदघाट्न के श्रेय उसकी झोली में जा रहे हैं।
असलियत में अमेठी गांधी परिवार का पर्याय मानी जाती रही है। इस परिवार के लिये अमेठी से मुंह मोड़ना आसान नहीं। उधर भाजपा राहुल को उनके घर में ही लगातार घेरे रखने की रणनीति पर काम कर रही है। वहां के छोटे-बड़े हर चुनाव के नतीजे सीधे राहुल और उनकी वोट खींचने की क्षमता पर सवाल खड़े करते हैं। दिक्कत यह है कि जिस परिवार के नाते अमेठी देश-दुनिया में जानी जाती है, वहां के मतदाता उस परिवार से बढ़ती दूरी के बार-बार सन्देश दे रहे हैं।
क्या इस बढ़ती दूरी और कमजोर होती पकड़ के लिए अकेले राहुल जिम्मेदार हैं? उद्धृत न करने की शर्त पर अमेठी के अनेक कांग्रेसी इस निष्कर्ष पर एक राय हैं। वे उनके पिता स्व. राजीव गांधी को याद करते हैं, जिन्होंने अमेठी और वहां के लोगों से जज्बाती रिश्ते बनाये। वे वहां के तमाम लोगों को सीधे जानते-पहचानते थे। कार्यकर्त्ताओं को नाम से पुकारते थे। काम करते और करा देते थे। राहुल की पहली दो संसदीय पारी में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकारें थीं। इस दरमियान अपने निर्वाचन क्षेत्र के नेताओं – कार्यकर्त्ताओं को वह बार-बार चेहरा न दिखाने की फटकार लगाते रहे। गांवों में जाने और वहां लोगों की समस्याएं सीधे जानने की उनकी नसीहतें बेशक वाजिब थीं लेकिन लौट कर जब वे काम और जरूरतों की फेहरिस्त लेकर आए तब उनकी सुनने का राहुल न वक्त निकाल सके और न ही इसके लिए तंत्र विकसित कर सके। बेशक यूपीए की सत्ता के दस सालों में उ. प्र. में उनकी सरकार नहीं थी। पर इस बीच की प्रदेश की कम से कम सपा की सरकार से उनके और पार्टी के रिश्ते सामान्य थे। सपा अमेठी में उनके खिलाफ चुनाव नहीं लड़ती। इन सरकारों ने अमेठी के लिए क्या किया- से बड़ा सवाल यह है कि राहुल ने सांसद के रूप में क्या कोशिशें कीं? केंद्र में जहां उनकी सरकार थी, उससे भी वह क्या खास करा पाये? इस बीच वहां के लिए जो घोषणाएं हुर्इं, वह कितना अमली जामा पहन सकीं और अगर नहीं तो क्यों? इन सवालों की जबाबदेही राहुल की ही बनती है। सरकार की सुस्ती और नौकरशाही के अड़ंगे अगर रास्ता रोक रहे थे तो सांसद के रूप में राहुल उनके खिलाफ क्या-कैसे आवाज उठा रहे थे? एक राजनेता के रूप में राहुल की छवि जरूरी मौकों पर लापता हो जाने या फिर चुप्पी साध लेने की रही है। अपने संसदीय क्षेत्र में उनकी छवि इससे अलग नहीं है। इसी का नतीजा है कि मोदी सरकार के दौर में अमेठी से भेदभाव और वहां के पूर्व घोषित प्रोजेक्ट्स ठप किये जाने के जब वह आरोप लगाते हैं तो उनके अपने क्षेत्र में न उनके समर्थन में लोग लामबंद होते नजर आते हैं और न ही भाजपा और उसकी सरकारों के खिलाफ आवाजें उठती हैं।
अपने निर्वाचन क्षेत्र में पसरती भाजपा को रोकने के लिए राहुल क्या कर रहे हैं? बेशक 2014 की कड़ी चुनौती ने राहुल का अमेठी में अंदाज बदला है। वहां के दौरों में वह लोगों से बेहतर संवाद करते हैं। कार्यकर्त्ताओं की भी कुछ सुनने लगे हैं। समस्याओं की तह तक भी पहुंचने की कोशिश करते हैं। पर यह बदलाव ऐसे समय में नजर आ रहे हैं जब उनके पास देने और कुछ करने की गुंजाइश बेहद सीमित है। राज्य-केंद्र कहीं उनकी सरकार नहीं है। अपने क्षेत्र के लिए उनके पास सिर्फ सांसद निधि है। उनकी दिक्कत यह है कि अपने मिजाज और कद के चलते वह अमेठी के सांसद के रूप में वहां की वाजिब जरूरतों के लिए न ही सरकारों से कुछ मांगते दिखते हैं और न लड़ते नजर आते हैं। अमेठी पहुंचते ही वह सरकार पर सौतेले सलूक के लिए बरसते हैं और फिर वहां से रवाना होते ही अगले दौरे तक सन्नाटा पसर जाता है। पार्टी के अध्यक्ष पद पर उनकी ताजपोशी भी अमेठी में कोई जोश नहीं भर सकी है। पार्टी की बुरी हालत और उत्तर प्रदेश की खास दुर्गति ने राहुल की मौजूदगी के बावजूद अमेठी के कांग्रेसियों का मनोबल बुरी तरह तोड़ा है। स्व. राजीव गांधी के दौर की स्थानीय नेताओं की पीढ़ी के अधिकांश नेता उदासीन हो चुके हैं। तमाम फ्रंटल संगठन निष्क्रिय हैं। न अपनी सरकार है और न दूर तक गुंजाइश। युवाओं को अपनी ओर खींचने और नई पौध तैयार करने की दिशा में कोई काम नहीं हो रहा। इस सबका नतीजा है कि सिर्फ राहुल के दौरों के वक्त पार्टी अपनी उपस्थिति दर्ज करती नजर आती है। अमेठी से गांधी परिवार के जुड़ाव की शुरुआत के समय से वहां पार्टी और उसके संगठन से जुड़ा कोई छोटा सा भी फैसला खुद परिवार ही लेता है। प्रदेश संगठन की वहां कोई भूमिका नहीं और बड़े से बड़े कांग्रेसी को वहां किसी राजनीतिक गतिविधि की इजाजत नहीं। जिले का संगठन भी हर मसले पर दिल्ली की ओर निहारने को मजबूर है। स्व.राजीव गांधी के वक्त से ही परिवार का अमेठी के लिए नियुक्त प्रतिनिधि संगठन-सरकार और नौकरशाही से संवाद का माध्यम रहा है। इस प्रतिनिधि की भी सीमाएं होती हैं। दिलचस्प है कि कांग्रेसी हों या फिर स्थानीय लोग- सबसे ज्यादा नाराजगी इसी प्रतिनिधि के हिस्से जाती है। अपनी सरकार रहते गाड़ी जैसे-तैसे चलती है। पर विपक्षी खेमे में संगठन भी जरूरी होता है और भीड़ भी। फिलहाल पार्टी दोनों की किल्लत से दो चार है। सत्ता-प्रशासन से शिकायतें हों या फिर स्थानीय जरूरतों के लिए जनांदोलन। इस सबके लिए मनोबल बढ़ाने वाले जिस नेतृत्व की जरूरत है, उसका संकट अमेठी में कांग्रेस की बड़ी समस्या है।
कांग्रेस की यही कमजोरियां भाजपा को ताकत दे रही हैं। 2014 के पहले अमेठी में भाजपा का नामलेवा नहीं था। इस चुनाव में गांधी परिवार के किले पर कमल का झंडा भले न फहर पाया हो पर मोदी लहर की टक्करों ने उसकी दीवारों को जरूर कमजोर कर दिया। 2012 के चुनाव तक जिस अमेठी की विधानसभा सीटों पर उसके प्रत्याशी मुकाबले से दूर अपनी जमानतें जब्त कराते थे उसी अमेठी की 2017 मे पांच में चार सीट भाजपा जीत गई। पांचवी सपा के खाते में गई। सच तो यह है कि भाजपा 2014 के नतीजे के फौरन बाद से 2019 की अमेठी को लेकर सिर्फ सपने नहीं बुन रही बल्कि उन्हें सच में बदलने के लिए जमीनी काम कर रही है। उसकी सरकारें इसमें मददगार हैं। उधर पार्टी अध्यक्ष के रूप में और व्यस्त हो चुके राहुल के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए वक्त निकलना और मुश्किल होता जा रहा है। चुनाव के मौके पर अमेठी-रायबरेली की कमान उनकी बहन प्रियंका गांधी वढेरा संभालती रही हैं। पर सिर्फ चुनाव में नजर आने के चलते अब उन्हें उलाहने सुनने पड़ते हैं। उनका जादू ढलान पर है। नतीजे इसके गवाह हैं। यकीनन पास आती 2019 की चुनौती अमेठी में राहुल और गांधी परिवार को काफी मेहनत के लिए मजबूर करेगी।