अभिषेक रंजन सिंह,नई दिल्ली।

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी सरकारें किसानों एवं उनकी मूल समस्याएं समझने में नाक़ाम साबित हुई हैं। किसानों के लिए एक लोकप्रिय योजना है किसान क्रेडिट कार्ड ( केसीसी) जिसकी शुरूआत वर्ष 1998 में शुरू हुई थी। यह काफी फायदेमंद हैं लेकिन इसका फायदा किन किसानों को मिल रहा है यह एक बड़ा सवाल है। जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए दरअसल उन्हें कुछ नहीं मिलता। काफी संख्या में ऐसे किसान जो ख़ुद से खेती नहीं करते और अपनी ज़मीनें बटाई देकर शहरों में रहते हैं। जब उन्हें क्रेडिट कार्ड के तहत बैंकों से पैसा लेना होता है तब ऐसे भू-स्वामी तहसील जाते हैं और राजस्व कर्मचारी से भू-लगान की अद्यतन रसीद कटाकर बैंक से केसीसी लोन लेते हैं।

बीते तीन दशकों में ख़ुद से खेती करने वाले किसानों की संख्या घट गई है। नतीजतन वे अपनी ज़मीनें बटाई पर लगा देते हैं। भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ नहीं होने की वजह से बैंक उन किसानों केसीसी लोन नहीं देते हैं। ऐसे में वे किसान गांव के साहूकारों से ऊंची ब्याज़ दरों पर कर्ज लेते हैं। फ़सल तैयार होने पर आधा बटाई में चला जाता है और काफ़ी हिस्सा कर्ज चुकाने में। अगर खेतों में फ़सल खड़ी है और ओलावृष्टि,तूफान,बेमौसम बारिश होने पर फ़सल तबाह हो गई फिर भी ज़िला कृषि विभाग से उन बटाईदार किसानों को कोई मुआवज़ा नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके पास भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ नहीं हैं। फिर शहरों में रहने वाले केसीसी लोन ले चुके वैसे काश्तकार गांव आते हैं। कृषि विभाग में ज़मीन का दस्तावेज़ प्रस्तुत कर मुआवज़ा हासिल कर लेते हैं।

यही किस्सा सरकारी फ़सल ख़रीद योजना की है। इस बार बजट में केंद्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली ने सभी ख़रीफ़ फ़सलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा की। लेकिन बटाईदार किसानों को यहां भी कोई राहत नहीं। क्योंकि सरकारी फ़सल ख़रीद केंद्रों पर उन्हीं किसानों की फ़सलें ख़रीदी जाती हैं जिनके पास जमीन के कागजात होते हैं। भारत के महाराष्ट्र,तेलंगाना,आंध्र प्रदेश,कर्नाटक,बुंदेलखंड आदि राज्यों में जहां बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या करते हैं। इन इलाक़ों की रिपोर्टिंग में एक खास बात देखने को मिली। यहां भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ ही कलेक्टरों और कृषि विभाग को यह समझाने में सफल होते हैं कि आत्महत्या करने वाला किसान वाकई किसान था। तेलंगाना और मराठवाड़ा के कई कलेक्टरों से इस बाबत सवाल पूछा कि अगर कोई बटाईदार किसान आत्महत्या करता है तो उसके आश्रितों को मुआवज़ा मिलेगा या नहीं? संबंधित ज़िलों के कलेक्टरों ने कहा कि नहीं? सरकार की नज़रों में वे किसान नहीं थे,क्योंकि उनके पास भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ नहीं थे। आज़ादी के सात दशक बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे किसानों को सूचीबद्ध नहीं कर पाई जो दूसरों की ज़मीन पर बटाई करते हैं। हमारी सरकारें और उनके सलाहकार नौकरशाह भी ऐसी योजनाएं बनाने में नाक़ाम साबित हुए हैं। शायद यही वजह है कि बटाईदार किसानों को केसीसी,सरकारी फ़सल ख़रीद,प्राकृतिक आपदाओं से तबाह हुई फ़सलों का मुआवज़ा और आत्महत्या करने की स्थिति में सरकार की तरफ अनुग्रह राशि आदि का लाभ नहीं मिलता है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसानों के हित में शुरू की जाने वाली योजनाओं क्या लाभ जिससे मूल किसानों को ही कोई फ़ायदा न हो?

अब कुछ बात करते हैं सिंचाई की। देश के सभी राज्यों में सिंचाई की अलग-अलग व्यवस्था है। कहीं स्थिति अच्छी है तो कहीं ख़राब। बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य में आज भी किसानों को सिंचाई के लिए डीजल पंपसेटों पर निर्भर रहना पड़ता है। पहले राज्य सरकार की तरफ से बिजली से चलने वाले राजकीय नलकूप होते थे। लेकिन उचित देख-रेख के अभाव में वे बंद हो गए। देश के अधिकांश राज्यों में आज बिजली से चलने वाले सिंचाई उपकरण हैं। लेकिन बिहार के किसानों को आज भी डीजल पंपसेटों के सहारे सिंचाई करनी पड़ती है। नहर से सिंचाई की प्रणाली राज्य में ठीक नहीं है। सिल्ट जमा होने की वजह से नहरों का वजूद मिट रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के हित में दो महत्वपूर्ण योजनाओं की शुरूआत की थी एक प्रधानमंत्री सिंचाई योजना और दूसरा राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) शुरू की थी। इस बात केंद्र सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किए। देश की क़षि और उससे जुड़े करोड़ों किसानों के लिए ये योजनाएं काफ़ी फ़ायदेमंद हैं। प्रधानमंत्री क़षि सिंचाई योजना और राष्ट्रीय कृषि बाज़ार केंद्र सरकार की महत्वपूर्ण योजनाएं हैं। इस योजना के तहत अगले चार वर्षों में 50,000 करोड़ रुपये ख़र्च किए जाएंगे। लेकिन कई राज्य सरकारें इस दिशा में लापरवाही बरत रही हैं। राष्ट्रीय कृषि बाज़ार के तहत देश की सभी कृषि मंडियों को कम्प्यूटर नेटवर्किंग से जोड़ने की बात कही गई थी। राष्ट्रीय क़षि बाज़ार का मकसद कृषि मंडियों में आढ़तियों पर नकेल कसना था। लेकिन इस दिशा में भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है।

किसानों की एक बड़ी समस्या है ट्रैक्टरों की ऊंची कीमत। आकाश से लेकर अंतरिक्ष तक भारत नित्य नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। लेकिन कम क़ीमत पर ट्रैक्टर निर्माण करने में हमारे विशेषज्ञ नाक़ाम रहे हैं। गांवों में ज़्यादातर किसान निजी फाइनेंस कंपनियों से क़र्ज़ लेकर ट्रैक्टर ख़रीदते हैं। समय पर क़र्ज़ न चुकाने की स्थिति में किसान और उनके परिजनों के साथ अभद्रता की जाती है। उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में रिकवरी एजेंट द्वारा किसान को कुचला जाना एक हालिया उदाहरण है। आख़िर किसानों को ट्रैक्टर ख़रीदने के लिए निजी वित्तीय कंपनियों से क़र्ज़ क्यों लेना पड़ता है? गांव का कोई काश्तकार जिसके पास दस-पंद्रह बीघा ज़मीन है। उनकी भूमि ग़ैर-विवादित है,सिंचित और बहु-फ़सली फिर भी सरकारी बैंक उस किसान को ट्रैक्टर ख़रीद के लिए लोन देने से हिचकता है। सरकार ने इस बजट में किसानों के लिए नई योजनाओं और राहत का ऐलान किया है। लेकिन किसानों को इसका कितना लाभ मिल रहा है यह एक अहम सवाल है।