विजय माथुर

भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर आए दिन निशाने पर रहने वाली वसुंधरा सरकार के दागी लोकसेवकों को बचाने के लिए लाए गए अध्यादेश ने उसे दुर्भाग्यपूर्ण नतीजों के दलदल में धकेल दिया है, जहां से उबरने की हर कोशिश उसे फिसलन से रूबरू करा रही है। सरकार दागी लोकसेवकों को संरक्षण देने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में संशोधन तो अध्यादेश के जरिये डेढ़ माह पूर्व ही कर चुकी थी लेकिन अब उसे स्थायी बनाने के लिए विधेयक लाया गया जिसमें सियासी षडयंत्र की छाया साफ नजर आती है। इस अध्यादेश में पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में अधिकारियों को रक्षा कवच पहनाते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 228ए के बाद 228बी जोड़ दी गई है। कानून का पूरा सोपान समझें तो भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए सरकार ने मीडिया और अदालत को ही नहीं आम आदमी को भी पूरी तरह लक्ष्मण रेखा में बांध दिया है। उसे इतना बेबस कर दिया गया है कि सुनवाई नहीं होने पर वह सोशल मीडिया पर भी अपनी पीड़ा उजागर नहीं कर पाएगा। अभियोजन चलाने की सरकारी स्वीकृति से पहले अफसर का नाम सोशल मीडिया पर उछाला गया तो उसे दो साल की सजा हो सकती है। लोकसेवकों के हितों की रक्षा के नाम पर उन्हें बचाने वाले इस विधेयक को लेकर सरकार 24 अक्टूबर को बुरी तरह घिर गई। सदन में पक्ष-विपक्ष दोनों ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया और विधेयक को काला कानून बताते हुए विपक्ष वाकआउट कर गया। विरोध का यह धारावाहिक कांग्रेस के सड़क मार्च के साथ काफी लंबा खिंच गया और अब इसमें वकील, छात्र और मीडिया भी शामिल हो गया है।

सरकार को करारा झटका लगने की शुरुआत हाई कोर्ट की इस तल्ख टिप्पणी के साथ हुई कि ‘सरकार लोकहित छोड़कर अफसरों को बचाने में जुट गई है’। उधर सदन से लेकर सड़क तक उबलते विपक्ष की दहाड़ से हालात इस कदर बेकाबू हुए कि स्तब्ध सरकार बैकफुट पर आ गई और टकराव को संवाद बनाने की कोशिश करते हुए वैकल्पिक जड़ें रोपने की कोशिश की कि विधेयक पर फिर से विचार किया जाएगा। इस विवाद पर सफाई देते हुए गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया ने कहा कि भ्रष्ट लोकसेवकों को संरक्षण देने की बात इस अध्यादेश में कहीं नहीं है। इसे लाने का मकसद ईमानदार लोकसेवकों की छवि को खराब होने से बचाना है। दिलचस्प बात यह है कि सदन में विधेयक पेश करने वाले गृह मंत्री इस बात से बेखबर थे कि अध्यादेश तो डेढ़ महीने पहले ही मंजूर कराया जा चुका था। अब जबकि विधेयक सदन में पेश हो चुका है और सरकार पुनर्विचार का आश्वासन दे रही है तो सवाल उठता है कि ऐसे में सरकार के पास विकल्प क्या है? कानून के विशेषज्ञ इस मामले में दो विकल्पों की संभावना व्यक्त करते हैं। पहला, या तो विधेयक वापस ले लिया जाए अथवा प्रवर समिति को सौंपकर प्रावधानों में बदलाव करे। दूसरा, मीडिया पर से पाबंदी हटाई जाए तथा अभियोजन मंजूरी की अवधि 180 दिन से कम करने जैसे बदलाव किए जाएं।

इस मामले में अध्यादेश लाने की जरूरत क्यों पड़ी? इस सवाल पर सरकार की ओर से यह सफाई देने की कोशिश की गई कि चूंकि तब विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा था। लेकिन इस बात का जवाब किसी के पास नहीं था कि आखिर किसे बचाने के लिए अध्यादेश लाने की जल्दबाजी की गई? अध्यादेश का लब्बोलुआब यह है कि इस संशोधन से भारतीय दंड संहिता की धारा 228 में 228बी जोड़कर प्रावधान किया गया है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) और धारा 190 (1) (सी) के विपरीत कार्य किया गया तो दो साल जेल और जुर्माने की सजा भी दी जा सकती है। न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट और लोकसेवक के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति मिलने से पहले उनका नाम व अन्य जानकारी का प्रसारण या प्रकाशन नहीं हो सकेगा। बवाल मचने पर बचाव में आई सरकार ने स्पष्टीकरण जारी कर अध्यादेश को जीरो टोलरेंस की नीति के तहत बताया है। सरकार का कहना है कि करीब 73 फीसदी मुकदमों में पुलिस ने घटना घटित नहीं होना बताकर फाइनल रिपोर्ट लगाई है। सरकार का तर्क है कि महाराष्ट्र विधानसभा में भी इस तरह का संशोधन 23 दिसंबर, 2015 को पारित हो चुका है जबकि महाराष्ट्र के इस कानून के खिलाफ मामला हाई कोर्ट में लंबित है। हालांकि उसकी पूरी व्याख्या करें तो महाराष्ट्र सरकार ने ऐसा कानून दो साल पहले लागू किया था। वहां अभियोजन स्वीकृति के लिए सरकार को केवल तीन माह का समय दिया गया है तथा सजा का प्रावधान भी नहीं है।

सिक्किम हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एसएन भार्गव का कहना है कि यह ऐसा प्रावधान है जिसे कोई कोर्ट में चुनौती देगा तो उसे रद्द करने में कोर्ट को कुछ ही मिनट लगेंगे। जबकि राजस्थान के संसदीय कार्य मंत्री राजेंद्र राठौड़ का कहना है कि दरअसल तंग करने वाली मुकदमेबाजी को रोकने के लिए यह कानून लाना पड़ा। ऐसा कानून लाने वाला राजस्थान अकेला नहीं है बल्कि अन्य राज्यों में भी ऐसा कानून है। वहीं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने सरकार पर हमलावर होते हुए कहा कि भ्रष्टाचार खत्म करने के नाम पर सत्ता में आई भाजपा सरकार खुद इसे संरक्षण दे रही है। अध्यादेश में दंडात्मक प्रावधान हैं जो मीडिया के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने जैसे हैं। इस मुद्दे पर भाजपा के ही वरिष्ठ नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी के ट्वीट में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को दिया गया मशविरा काफी सुर्खियां बटोर रहा है कि, ‘मैं वसुंधरा से इस बेकार बिल को वापस लाने की मांग करता हूं’। सुप्रीम कोर्ट में लताड़े जाने की आशंका जताते हुए स्वामी कहते हैं, ‘यह सुप्रीम कोर्ट में थप्पड़ खाएगा’।

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कहते हैं, ‘मैडम चीफ मिनिस्टर, हम 2017 में जी रहे हैं न कि 1817 में ।’ राहुल गांधी के इस तंज के पीछे एक ऐतिहासिक अंतर्कथा का खुलासा होता है। वसुंधरा राजे का सिंधिया घराने से खून का रिश्ता है। 1794 से लेकर 1827 तक ग्वालियर में दौलतराव सिंधिया का शासन था। 1816 में अंग्रेजों ने पिंडारियों के दमन के लिए सिंधिया घराने का सहयोग मांगा। कुछ समय तक सिंधिया घराना अंग्रेजों के आमंत्रण पर असमंजस की स्थिति में रहा। अगले साल 1817 में पूर्ण सहयोग का वादा करते हुए ग्वालियर संधि हुई। आम आदमी पार्टी के राजस्थान प्रभारी कुमार विश्वास ने भी वसुंधरा राजे के राजशाही मिजाज को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वो भूल गई हैं कि यह राजतंत्र नहीं है। वो महिला किंगजॉंग की तरह काम कर रही हैं।

वरिष्ठ पत्रकार रवीश तिवारी का कहना है कि किसी सरकार का मूल्यांकन इस बात से होना चाहिए कि प्रेस कितना स्वतंत्र है? न कि फ्लाई ओवर या एयरपोर्ट से? रवीश कहते हैं कि इस प्रावधान का क्या तुक है कि जब तक एफआईआर दर्ज नहीं होगी तब तक प्रेस में रिपोर्ट नहीं कर सकते और ऐसे मामले में नाम लिया तो दो साल की सजा हो सकती है। एक नागरिक के तौर पर आप सोचिए कि इसके बाद आपकी क्या भूमिका रह जाती है। आपका राष्ट्रीय और राजकीय कर्तव्य क्या रह जाएगा? आप क्या कहानी लिखेंगे कि फलां विभाग के फलां अफसर ने ऐसी गड़बड़ी की है। अगर आप लिख देंगे कि समाज कल्याण के सचिव का नाम आ रहा है तो यह भी एक तरह का नाम लेना ही हो गया? एंटी करप्शन एक्टीविस्ट निखिल डे ने इसे काला अध्यादेश की संज्ञा देते हुए कहा कि सीआरपीसी की आड़ में अब तक भ्रष्ट अधिकारी मुकदमे से बचते थे जिसे हटाने की मांग लंबे अरसे से की जा रही थी। उसे और ताकत दे दी गई है।

वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी सत्तारोहण के दौरान वसुंधरा राजे के उस अलाप को दोहराते हैं जिसमें उन्होंने कहा था, ‘हम परों से नहीं, हौसलों से उड़ान भरते हैं’। कोठारी तंज कसते हुए हैं कि क्या हौसला दिखाया है? सात करोड़ प्रदेशवासियों ने जिस सम्मान से उन्हें सिर आंखों पर बिठाया, उसे ठेंगा दिखा दिया? विधि विभाग की असहमति को भी बार-बार नकार दिया। अब कौन रोक सकता था उनके अनैतिक आक्रमण को? कोठारी कहते हैं कि यह संशोधन असंवैधानिक है और सुप्रीम कोर्ट के 2012 के फैसले के खिलाफ है जो सुब्रह्मण्यम स्वामी के मामले में दिया गया था। आखिर क्या वजह थी इतनी जल्दबाजी की? आनन-फानन में राष्ट्रपति से स्वीकृति लेना, राज्यपाल द्वारा अध्यादेश को मंजूरी देना और विधानसभा सत्र की प्रतीक्षा तक नहीं करना? सब सवालों के घेरे में आ जाते हैं? राजनीतिक विश्लेषक इन अंदेशों को बरी नहीं करते कि अध्यादेश में कोई बदलाव हो पाएगा? हालांकि छक्के छुड़ाने वाले हालात से सकपकाई सरकार ने 25 अक्टूबर को विधेयक प्रवर समिति को सौंपने का फैसला कर लिया लेकिन मुख्यमंत्री की बेखुदी का हवाला देते हुए गृह मंत्री कटारिया ने बेतुकी सफाई का मुजाहिरा भी कर दिया कि उन्हें तो विधेयक में सजा के प्रावधानों का पता ही नहीं था? विश्लेषकों की मानें तो राजहठ की कुटैव के चलते राजे ने जिस खास मकसद के लिए यह वज्र चलाया उससे उनका पीछे हटना सहज नहीं है। लेकिन गुलाब कोठारी एक अहम सवाल भी उठाते हैं कि क्या महाराष्ट्र और राजस्थान में उठाए गए इन कदमों को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की स्वीकृति भी प्राप्त है?