अभिषेक रंजन सिंह

दशकों में कभी-कभी ऐसे चुनाव होते हैं जिनके नतीजों को लंबे समय तक याद रखा जाता है। गुजरात विधानसभा चुनाव का किस्सा भी कुछ ऐसा ही था। जहां एक तरफ भाजपा अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहती थी। वहीं बाईस वर्षांे से राजनीतिक वनवास झेल रही कांग्रेस किसी तरह सत्ता के करीब पहुंचना चाहती थी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने न केवल भरपूर मेहनत की, बल्कि कई राजनीतिक गठजोड़ और प्रयोग भी किए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह गुजरात चुनाव में डेढ़ सौ सीटें जीतने का दावा कर रहे थे। लेकिन चुनावी नतीजों में भाजपा महज निन्यानवे सीटों पर सिमट गई।

पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार जहां भाजपा की सीटों में कमी आई है वहीं कांग्रेस अपने विधायकों की संख्या बढ़ाने में कामयाब रही। लेकिन इस कामयाबी के पीछे कई तात्कालिक कारण थे। जिनमें पहला हार्दिक पटेल की अगुवाई में शुरू हुआ पाटीदार अनामत आंदोलन और दूसरा अल्पेश ठाकोर का कांग्रेस में शामिल होना। कांग्रेस अस्सी के दशक की तरह ही जातीय समीकरणों के आधार पर गुजरात चुनाव फतह करना चाहती थी। लेकिन उसे उतनी बड़ी कामयाबी नहीं मिली जैसी माधव सिंह सोलंकी से समय मिली। गुजरात के चुनावी नतीजों में कई बातें ऐसी हैं जिनपर गौर करना जरूरी है। इस चुनाव में एक तरफ भाजपा थी तो दूसरी तरफ कांग्रेस और उसके समर्थन में पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, दलित नेता जिग्नेश मेवाणी समेत तमाम गैर सरकारी संगठन। बावजूद इसके न तो कांग्रेस को पाटीदारों का एकमुश्त वोट मिला और न ही ओबीसी का।

सबसे खास बात रही राज्य के आदिवासी मतदाताओं का भाजपा के प्रति झुकाव। गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा ने आदिवासियों के लिए सत्ताइस आरक्षित सीटों में से चौदह सीटों पर जीत हासिल की। पिछले चुनाव में भाजपा को ग्यारह सीटें ही मिल पाई थीं। अमूमन दलित-अदिवासी को कांग्रेस का परंपरागत मतदाता माना जाता है। लेकिन हाल के वर्षों में आदिवासियों और दलित मतदाताओं में भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ी है। गुजरात में आदिवासियों का भाजपा के प्रति झुकाव कोई एक दिन का किस्सा नहीं है। इसके पीछे है आदिवासी इलाकों में राज्य सरकार की कई कल्याणकारी योजनाओं का सफल कार्यान्वयन और आरएसएस की इन इलाकों में वर्षों की मेहनत। जो गुजरात चुनाव में भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ। राज्य में आदिवासियों की पंद्रह फीसदी आबादी है। देश के अन्य राज्यों से यहां के आदिवासियों का जीवन स्तर काफी ऊंचा है। आदिवासी गांवों में बुनियादी सुविधाओं से लेकर शिक्षा-रोजगार के क्षेत्र में गुजरात एक अग्रणी राज्य है। आरएसएस से संबद्ध वनवासी कल्याण आश्रम के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगदेव राम उरांव आदिवासी इलाकों में भाजपा को मिली कामयाबी को वनवासी कल्याण आश्रम की वर्षों की मेहनत का नतीजा मानते हैं। उनके मुताबिक, ‘देश भर में वनवासी कल्याण आश्रम के सवा दो सौ छात्रावास हैं। इनमें आदिवासी छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा और आवासीय सुविधा मिलती है। भारत में आदिवासियों का धर्मांतरण एक बड़ी समस्या है। हालांकि वनवासी कल्याण आश्रम और आरएसएस के संयुक्त प्रयास से इसमें काफी कमी आई है।’ वह कहते हैं, ‘ पूर्वोत्तर के राज्यों, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा संचालित स्कूल और छात्रावास की वजह से आदिवासी छात्र-छात्राओं का शैक्षणिक उत्थान हुआ है।’

हालांकि गुजरात चुनाव में इस बार भाजपा को पाटीदार आंदोलन की वजह कई इलाकों में नुकसान हुआ। लेकिन भाजपा ने इसकी भरपाई आदिवासी इलाके में कर ली। वहीं दलित बहुल इलाकों में भी इस बार भाजपा कुछ सीटें बढ़ाने में सफल रही। उल्लेखनीय है कि गुजरात की कुल 182 विधानसभा सीटों में 50 ओबीसी प्रभाव वाली मानी जाती हैं। इन पचास सीटों में इस बार दो दर्जन से अधिक सीटें भाजपा जीतने में सफल रही। गुजरात में आदिवासी पंद्रह फीसदीी हैं। राज्य में अनुसूचित जन जातियों के लिए कुल सत्ताइस सीटें आरक्षित हैं। पिछले चुनाव में इनमें सोलह सीटें कांग्रेस के पास थीं और ग्यारह भाजपा के पास। इस बार भाजपा के चौदह उम्मीदवारों ने जीत हासिल की वहीं कांग्रेस को तीन सीटों का नुकसान झेलना पड़ा। आदिवासी मतदाता कांग्रेस के परंपरागत वोटर माने जाते रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से भाजपा यहां लगातार मजबूत हो रही है। इसकी दो वजहें हैं। पहला इन आदिवासी इलाकों में हुए विकास कार्य और दूसरा आदिवासियों के बीच आरएसएस की जबरदस्त पैठ।

अगले साल फरवरी में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में विधानसभा के चुनाव होने हैं। त्रिपुरा में 32 फीसदी, मेघालय में 86 फीसदी और नगालैंड में 89.1 फीसदी आदिवासी हैं। वैसे पूर्वोत्तर के इन राज्यों में भाजपा का कोई खास असर नहीं है। लेकिन पार्टी को उम्मीद है कि इस बार त्रिपुरा और मेघालय में उसकी स्थिति मजबूत होगी। इसकी दो वजहें हैं पहला आदिवासी बहुल इन राज्यों में आरएसएस और वनवासी कल्याण आश्रम की सक्रियता और दूसरा असम और मणिपुर में भाजपा की सरकार। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी कई मौकों पर पूर्वोत्तर का दौरा कर चुके हैं। अपने भाषणों में वह पूर्वोत्तर के विकास की बात करते रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी वहां के लोगों को यह बात समझाने में सफल रहे हैं कि कांग्रेस की वजह से पूर्वोत्तर की उपेक्षा हुई है। यह सच है कि आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी पूर्वोत्तर कई मामलों में देश के बाकी राज्यों से पीछे है। अगले साल ही छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं। कर्नाटक को छोड़कर बाकी तीनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। इन राज्यों में आदिवासियों की आबादी क्रमश: छत्तीसगढ़ में 34 फीसदी, मध्य प्रदेश में 22 फीसदी, राजस्थान में 13 फीसदी और कर्नाटक में 7 फीसदी है। छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह को उम्मीद है कि राज्य में भाजपा की लगातार चौथी बार सरकार बनेगी। छत्तीसगढ़ नक्सल प्रभावित राज्य है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यहां नक्सली घटनाओं में कमी आई है। यहां आदिवासी बहुल गांवों में बुनियादी सुविधाएं तो दूर स्कूल, अस्पताल और सड़कें भी नहीं थीं। लेकिन अब यहां के हालात में काफी बदलाव आया है। छत्तीसगढ़ को लेकर भाजपा इसलिए भी उत्साहित है, क्योंकि कांग्रेस यहां लगभग मृतप्राय हो चुकी है। अजीत जोगी के रूप में कांग्रेस के पास एक बड़ा आदिवासी नेता था। लेकिन कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने भी अपनी नई पार्टी बना ली है। साल 2013 में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर नक्सलियों ने हमला किया था। उसमें विद्याचरण शुक्ल समेत कद्दावर आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा की मौत हो गई थी। कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा झटका था। ऐसे में सवाल यह है कि अगले साल छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपने किस चेहरे पर चुनाव लड़ेगी? मध्य प्रदेश का किस्सा भी कमोबेश ऐसा ही है। भाजपा के खिलाफ लोगों में कई मुद्दों को लेकर नाराजगी है। लेकिन कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व की वजह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कुर्सी पर बड़ा खतरा नजर नहीं आता है। अगले साल मध्य प्रदेश में चुनाव होने हैं लेकिन कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि राज्य में किसकी अगुवाई में चुनाव लड़ा जाए। यहां एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह हैं, ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं और कमलनाथ हैं। इन तीनों नेताओं के अपने-अपने खेमे और अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। मध्य प्रदेश में मंडला, छिंदवाड़ा और वड़वानी आदि जिलों में आदिवासियों की संख्या अधिक है। आदिवासी बहुल इन जिलों में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ कई आंदोलन भी चल रहे हैं। कांग्रेस को भरोसा है कि भाजपा के खिलाफ इस गुस्से का लाभ उसे मिल सकता है। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में मिली कामयाबी से पार्टी को उम्मीद है कि इसका फायदा उसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में मिलेगा। ये ऐसे राज्य हैं जहां आदिवासियों की संख्या अधिक है। अगर इन राज्यों में भाजपा को सफलता मिलती है तो इससे साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव और ओडिशा में होने वाले विधानसभा चुनावों में फायदा होना लाजिमी है।