बनवारी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की पाकिस्तान नीति में एक ऐतिहासिक परिवर्तन कर दिया है। अब तक पाकिस्तान के बारे में हमारी नीति अति रक्षात्मक थी। हम अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के किसी अज्ञात भय से पाकिस्तान के आतंकवाद के सामने सुरक्षात्मक बने हुए थे। जब कोई आतंकवादी कार्रवाई की जाती थी, हम एक औपचारिक चेतावनी देकर चुप बैठ जाते थे। यह रक्षात्मक पाकिस्तान नीति अब छोड़ दी गई है। भारत पाकिस्तान से उसी के खेल में निपटने की तैयारी कर रहा है। प्रधानमंत्री ने बिना किसी लाग-लपेट के यह घोषित कर दिया है कि भारत दुनियाभर में फैले हुए गिलगित के शियाओं, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के पीड़ित कश्मीरियों और बलूचिस्तान के अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे संगठनों से सहानुभूति रखता है और उनकी आवाज सुनी जाए, इसका प्रयत्न करता रहेगा। इस घोषणा के अपेक्षित परिणाम निकले हैं। इन सभी संघर्षरत लोगों और संगठनों ने भारत का आभार प्रकट किया है और भारत से अधिक सक्रिय सहयोग की अपेक्षा की है।
भारत की अब तक की पाकिस्तान नीति की नींव जवाहरलाल नेहरू के समय रखी गई थी। जवाहरलाल नेहरू निरंतर यह गलतफहमी पाले रहे कि भारत की सदाशयता पाकिस्तान को एक न एक दिन प्रभावित करेगी और वह भारत से शत्रुता की भावना छोड़ देगा। इसके अपेक्षित परिणाम नहीं निकले। जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के तुरंत बाद अयूब खां ने यह सोचकर भारत पर आक्रमण कर दिया कि नेहरू की मृत्यु के कारण भारतीय नेतृत्व कमजोर पड़ गया होगा। भारत की सेना पाकिस्तान की मुस्लिम सेना का मुकाबला नहीं कर पाएगी और कश्मीर पाकिस्तान को मिल जाएगा। ऐसा हुआ नहीं और 1965 की उस लड़ाई के अनिर्णीत रहने के बावजूद भारत बेहतर स्थिति में रहा। लेकिन लड़ाई में हमने जो पाया था, उसे रूसी राजनयिक दबाव में ताशकंद में गंवा दिया गया। पाकिस्तान के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

लेकिन इस राजनयिक दुर्बलता ने कांग्रेस के नेतृत्व को यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि पाकिस्तान को रास्ते पर लाने के लिए भारत की उदार नीति निष्प्रभावी रही है। फिर भी भारत का राजनीतिक और राजनयिक प्रतिष्ठान पाकिस्तान संबंधी नीति में किसी बड़े परिवर्तन के लिए तैयार नहीं था। यह श्रेय इंदिरा गांधी को दिया जाना चाहिए कि उन्होंने समूचे सत्ता प्रतिष्ठान की हिचकिचाहट के बावजूद बांग्लादेश के संघर्ष में सहयोग करने का निर्णय लिया और 1971 में हमारी सेना के साहस और कौशल से बांग्लादेश के लोगों को पाकिस्तान के उत्पीड़क शासन से मुक्ति मिल गई। इस बड़ी सफलता के बावजूद भारत कोई सार्थक पाकिस्तान नीति नहीं बना पाया। इसका बड़ा कारण सदा अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का अज्ञात भय रहा है। जब इंदिरा गांधी ने मुक्तिवाहिनी के समर्थन में सेना भेजने का फैसला किया था, तब भी यही कहा गया था कि चीन पाकिस्तान की सहायता के लिए आगे आ जाएगा और अमेरिकी हस्तक्षेप से बात बिगड़ सकती है। लेकिन इंदिरा गांधी की दृढ़ता ने इन सब आशंकाओं को गलत सिद्ध कर दिया।

इंदिरा गांधी के समय 1971 में जिस तरह के साहसिक निर्णय लिए गए थे, उन्हीं के अनुरूप बाद की पाकिस्तान नीति बनाई गई होती तो अब तक कश्मीर समस्या सुलझ गई होती। लेकिन आंतरिक हिचकिचाहट और बाहरी दबाव के चलते हमारी पाकिस्तान नीति फिर पुराने ढर्रे पर आ गई। इस बीच पाकिस्तान अपनी भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाकर अमेरिका का समर्थन तो पा ही रहा था, उसने चीन से भी संपर्क बनाए और अक्साई-चिन का रणनीतिक क्षेत्र मिल जाने के बाद चीन ने पाकिस्तान को अपने एक क्षेत्रीय मोहरे के रूप में इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया। 1972 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की चीन यात्रा पाकिस्तान के सहयोग से ही संभव हुई थी। तब से पाकिस्तान अमेरिका और चीन दोनों को साधे रखने में सफल रहा है। पाकिस्तान को नाभिकीय शक्ति बनाने में चीन की सीधी भूमिका है। अमेरिका इससे आंखें मूंदे रहा है।

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पाकिस्तान इस सत्य को समझता है कि अंतरराष्ट्रीय शक्तियां केवल अपने हित को सामने रखती हैं। यह क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के लिए पिछली दो शताब्दियों से महत्वपूर्ण बना हुआ है। इस क्षेत्र में पश्चिमी शक्तियां और रूस एक-दूसरे के विस्तार को रोकने के लिए सामरिक-कूटनीतिक होड़ में पड़े रहे हैं। पाकिस्तान सोवियत रूस के विरुद्ध अमेरिकी हितों की रक्षा के बहाने अमेरिका से सब तरह की सहायता पाता रहा। उसके चीन से बढ़ते संबंधों की तरफ भी अमेरिका इसीलिए आंखें मूदें रहा कि चीन और रूस के संबंध तनावग्रस्त थे। अफगानिस्तान पर सोवियत रूस के नियंत्रण ने पाकिस्तान को अमेरिका के लिए अपरिहार्य बनाए रखा। अफगानिस्तान से रूस की विदाई और बाद में शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका के लिए अब पाकिस्तान की उपयोगिता उतनी नहीं रह गई है। पाकिस्तान के सहयोग से अब चीन इस क्षेत्र की बड़ी बाजी में शामिल हो गया है। उसने गिलगित-बाल्तिस्तान के भीतर से अपना आर्थिक कॉरिडोर और ग्वादर बंदरगाह बनाकर इस क्षेत्र तक पहुंच बना ली है। निश्चय ही पश्चिमी शक्तियां इस नई रणनीतिक परिस्थिति से अनभिज्ञ नहीं हैं।

भारत को इन बदली हुई परिस्थितियों से अपनी सुरक्षा को उत्पन्न होने वाली गंभीर चुनौती का भान रहा है। लेकिन अब तक हमारा सत्ता प्रतिष्ठान पुरानी पाकिस्तान नीति पर ही जमा हुआ था। इससे हम अपनी नौकरशाही और राजनयिक प्रतिष्ठान में व्याप्त तमस का अनुमान लगा सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू में पाकिस्तान और चीन दोनों के प्रति सदाशयता दिखाने की कोशिश की। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तर्ज पर पाकिस्तानी नेताओं से व्यक्तिगत संबंध बनाते हुए परस्पर सौहार्द की एक नई दिशा खोजने की कोशिश की गई। लेकिन नरेंद्र मोदी को पाकिस्तान और चीन दोनों से निराशा ही हाथ लगी है। न पाकिस्तान भारत से शत्रुता का भाव छोड़ना चाहता है और न चीन भारत से मित्रवत व्यवहार में कोई रुचि रखता है। इसी का परिणाम हमारी पाकिस्तान नीति में वह परिवर्तन है, जिसकी झलक नरेंद्र मोदी के हाल के वक्तव्यों से मिलती है।

यद्यपि भारत की पाकिस्तान संबंधी नीति में परिवर्तन बहुत पहले हो जाना चाहिए था। फिर भी यह इस परिवर्तन का बहुत उचित समय है। आतंकवाद को बढ़ाने में अब तक पाकिस्तान की जो भूमिका रही है, वह पश्चिमी शक्तियों को अब इस क्षेत्र में अपने हितों के विरुद्ध नजर आने लगी है। इसलिए उन्होंने पाकिस्तान से अपने हाथ धीरे-धीरे खींचने आरंभ कर दिए हैं। चीन का हाथ पाकिस्तान की पीठ पर अवश्य है, लेकिन उसके और पाकिस्तानी राजतंत्र के बीच वैसी समरसता नहीं है जैसी पाकिस्तानी राजतंत्र और अमेरिका के बीच थी। अगर चीन को पाकिस्तान में अपने हितों को आगे बढ़ाने लायक स्थितियां नहीं मिलती हैं तो वह सीधे पाकिस्तान के मामलों में उलझना नहीं चाहेगा। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद उसके सिंक्यांग प्रांत के लिए भी बड़ी चुनौती बना हुआ है।

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शुरू में चीन की रुचि सिंक्यांग से तिब्बत तक युद्ध सामग्री ले जाने लायक सड़क बनाकर तिब्बत को सुरक्षित करने तक सीमित थी। धीरे-धीरे उसने व्यापारिक उद्देश्य के बहाने पाकिस्तान के उत्तरी क्षेत्रों से होकर समुद्र तट तक अपनी पहुंच बना ली। यह स्वाभाविक ही है कि पश्चिमी शक्तियां चीन के इरादों के प्रति सशंकित हों। बहुत संभव है कि उन्होंने भी भारत को यह संकेत दिया हो कि वे पाकिस्तान के दोहरेपन से आजिज आ गई हैं और अगर भारत पाकिस्तान के सभी अशांत क्षेत्रों को अंतरराष्ट्रीय चर्चा में लाता है तो वे भारत से सहयोग करेंगी। भारत के लिए पाकिस्तान को खलनायक सिद्ध करने का यह अनुकूल अवसर है। नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकारों को यह दिखाई दे गया है कि पुरानी हिचकिचाहट छोड़कर पाकिस्तान नीति को बदलने और आक्रामक बनाने का यह सबसे सही मौका है।

इस नई नीति का पहला परिणाम यह निकलेगा कि विवाद केवल कश्मीर घाटी पर केंद्रित नहीं रहेगा। पाकिस्तान ने अपने अधिकार वाले जम्मू और कश्मीर के क्षेत्र से गिलगित और बाल्तिस्तान को अलग करके एक भ्रामक स्थिति बना रखी है। लेकिन इन पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी आबादी शियाओं की है और वे पाकिस्तान की सुन्नी बहुल सेना के आततायी रुख से त्रस्त रहे हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी सेना द्वारा नियंत्रित रखे जाने के कारण उबलता रहता है। बलूचिस्तान के लोग तो कभी पाकिस्तान के समर्थक नहीं रहे। बलूचिस्तान का कलात राज्य भारत में मिलना चाहता था और इससे संबंधित आग्रह जवाहरलाल नेहरू द्वारा अव्यावहारिक कहकर ठुकरा दिया गया था। उसके बाद जिन्ना ने कलात राज्य को स्वायत्तता दिए रहने का वचन दिया। लेकिन जिन्ना की मृत्यु के बाद कलात राज्य पर आक्रमण करके उसे पाकिस्तान में विलय के लिए विवश कर दिया गया। तब से बलूच अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं। बलूचिस्तान में आबादी भले कम हो, पर वह पाकिस्तान का सबसे विशाल और खनिज संपन्न क्षेत्र है। अगर अफगानिस्तान मजबूत होता है और भारत सक्रिय सहयोग करता है तो पाकिस्तान के लिए बलूचिस्तान को अपने अधिकार में रखना असंभव हो जाएगा।

नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए एक साथ इन तीनों क्षेत्रों का उल्लेख किया। लेकिन भारत का संदेश केवल इन क्षेत्रों के संघर्षरत लोगों तक सीमित नहीं रहने वाला। पाकिस्तान में सिंधी, मुहाजिर, बरेलवी, शिया आदि बहुत से ऐसे समूह हैं, जो पाकिस्तानी सेना और तालिबानी जेहाद से त्रस्त हैं। पाकिस्तान के आतंकवादी तंत्र द्वारा अधिक हिंसा तो इन्हीं सब लोगों पर की जाती रही है। त्रस्त रहने के बावजूद वे मुखर होकर अपनी बात नहीं कह पाते। भारत के बोलने के बाद ये सब समूह शक्ति अनुभव करने लगेंगे। पाकिस्तान में भले पाकिस्तानी राष्ट्रवाद के नाम पर उनकी आवाज दबा दी जाए, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वह अधिक मुखर होकर सुनाई देगी। यह बात पाकिस्तान जानता है। उसे भारत से ऐसे साहसिक कदम की अपेक्षा नहीं थी। इसलिए अभी वह हतप्रभ है। यही समय है जब भारत को अपनी इस परिवर्तित नीति के आधार पर सामरिक और राजनयिक तैयारी आरंभ कर देनी चाहिए। पाकिस्तान से निपटने का यही एक तरीका है। पाकिस्तान को यह समझाना आवश्यक है कि उसके भीतर की दरारें बहुत चौड़ी हैं और उन्हें पाट पाना उसके लिए असंभव होता जा रहा है।