उमेश चतुर्वेदी

इतिहास निश्चित तौर पर भविष्यवाणी का आधार नहीं हो सकता, लेकिन वह सबक का जरिया जरूर हो सकता है। इतिहास से जो कौम सीख नहीं लेती, उसे निश्चित तौर पर पछताना पड़ता है। गांधी जी के रचनात्मक आंदोलन के शिष्य आचार्य विनोबा भावे के शब्दों में कहें तो ‘इतिहास के तजुर्बों से हम सबक नहीं लेते, इसीलिए इतिहास अपने आप को दोहराता है।’ सिक्किम सीमा पर डोकलाम में चीन द्वारा विवाद खड़े किए जाने के बाद जिस तरह भारत ने कड़े तेवर दिखाए हैं और एशिया की साम्राज्यवादी शक्ति चीन के सामने हथियार डालने से इनकार किया है, उसका संकेत तो साफ है। भारत ने इतिहास से सबक जरूर लिया है और मौजूदा सरकार इस बात से सतर्क है कि राष्ट्रीय अखंडता को लेकर फिर वैसी गलतियां ना हों, जैसी इतिहास में हो चुकी हैं।

पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पिछली सदी के पचास के दशक में भी चीन को लेकर आगाह किया गया था। लेकिन वे नहीं माने और उनकी भविष्य के स्वप्नद्रष्टा की वैश्विक छवि में पहली दरार चीन ने ही डाली। जब उसने दोस्ती का हाथ बढ़ाते-बढ़ाते तिब्बत पर कब्जा कर लिया। जबकि आजादी के आंदोलन में उनके सहयोगी रहे प्रखर समाजवादी नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया तिब्बत के मसले पर उन्हें पहले ही चेता चुके थे। लेकिन इतिहास निर्माण की महत्वाकांक्षी, लेकिन कोमल भावना के चलते नेहरू ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। 1950 में जब तिब्बत पर चीन कब्जा कर रहा था, तब लोहिया ने इसे शिशु हत्या करार दिया था। उन्होंने कहा था, ‘तिब्बत भारत का तकिया है। लोहिया ने पंडित नेहरू को आगाह करते हुए यहां तक कह दिया था कि वे तिब्बत पर चीन के कब्जे को मान्यता न दें। लोहिया ने चेताया था कि अगर तिब्बत रूपी भारत के तकिए को चीन हड़प लेगा तो वह किसी दिन भारत के सिर पर कब्जा करने की कोशिश करेगा। बारह साल बाद ऐसा ही हुआ। 20 अक्टूबर 1962 को उस चीन ने भारत पर हमला किया, जिसके साथ नेहरू ने पंचशील का सिद्धांत दिया था। चीन से रिश्तों को लेकर नेहरू कितने मुतमईन थे, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने हिंदी-चीनी भाई-भाई का भी नारा दिया था। लेकिन उसी चीन ने दोस्ती को ताक पर रखकर जब पीठ में छुरा भोंका तो नेहरू के कोमल मन पर गहरा आघात लगा। वे भी खुद चीन को हिटलर बताने लगे थे। इसके बावजूद उन्होंने लोहिया की वह सलाह नहीं मानी, जिसमें उन्होंने नेहरू से कहा था कि अब तक उन्होंने जो पत्र चीन को लिखे हैं, उनके बारे में वे चीन को लिखकर दें कि अब तक उन्होंने मिथ्यावादन किया है।
भारत 1947 में आजाद हुआ। उसके दो साल बाद चीन की मशहूर जनक्रांति हुई। नेहरू चीन से रिश्ते बेहतर रखने के लिए बेहद उतावले थे। इसके लिए उन्होंने लगातार 12 साल तक कोशिश की और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे कई तरह से सहयोग दिया। इसी दौरान उन्होंने चीन सरकार को कई चिट्ठियां लिखीं जिनमें दोनों देशों के रिश्ते सुधारने और उन्हें आगे बढ़ाने की बात की। लोहिया ने इन चिट्ठियों के संदर्भ में 1962 में नेहरू को सुझाव दिया, ‘प्रधानमंत्री ने चीन को पत्र लिखते समय हमारा बड़ा नुकसान किया है। 12 साल तक चीन से बंधुत्व कायम करने के लिए उन्होंने (नेहरू ने) बहुत मिथ्यावादन किया है। पर चीन ने उसका आदर नहीं किया। पर अब समय आ गया है कि श्री नेहरू साहब चीन को लिख कर दें कि आज तक अपने पत्रों में बहुत मिथ्यावादन किया है। पर आपने उसका भी आदर नहीं किया है। इसलिए अब उन पत्रों को खतम समझा जाए।’

देश भले ही चार-चार युद्धों में पाकिस्तान को परास्त कर चुका हो, लेकिन अपने यहां पाकिस्तान के मुकाबले चीन को बड़ा दुश्मन मानने की अवधारणा ही नहीं रही। इस तथ्य के बावजूद कि तिब्बत पर कब्जे के बाद चीन 1962 से ही भारत की करीब 27 हजार वर्गमील जमीन पर कब्जा जमाए बैठा है, चीन के प्रति पाकिस्तान के मुकाबले भारत में गुस्सा कम नजर आता है। निश्चित तौर पर इसके पीछे देसी संचार माध्यमों और शैक्षिक पाठ्यक्रमों की गहरी भूमिका मानी जा सकती है। जबकि देश के पहले उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल चीन की साम्राज्यवादी नीति को आजादी के तुरंत बाद ही समझ गए थे। 7 नवंबर 1950 को उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को पत्र लिखकर चीन से रिश्तों के मसले पर कैबिनेट की बैठक बुलाने को कहा था और चीन से सतर्क रहने की चेतावनी भी दी थी। लेकिन नेहरू ने उस चेतावनी को भी अनसुना कर दिया। दुर्भाग्यवश इस पत्र को लिखने के करीब पौने दो महीने बाद ही पटेल का देहांत हो गया और नेहरू को कोई टोकने वाला वरिष्ठ नेता नहीं बचा। पटेल ने अपने पत्र में लिखा था, ‘चीनी सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों की अपनी घोषणाओं से हमें भुलावे में डालने का प्रयत्न किया है। मेरी अपनी भावना तो यह है कि किसी नाजुक क्षण में चीनी सरकार ने हमारे राजदूत में तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण उपायों से हल करने की अपनी तथाकथित इच्छा में विश्वास रखने की झूठी भावना उत्पन्न कर दी। इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि चीनी सरकार अपना सारा ध्यान तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना पर केंद्रित कर रही होगी। मेरी राय में चीनियों का अंतिम कदम विश्वासघात से जरा भी कम नहीं है। करुणता तो यह है कि तिब्बतियों ने हम पर भरोसा रखा और हमारे मार्गदर्शन में चलना पसंद किया और हम उन्हें चीनी कूटनीति के जाल से बाहर निकालने में असमर्थ रहे। हम तो चीन को अपना मित्र मानते हैं, परंतु वे हमें अपना मित्र नहीं मानते।’

इस पत्र में आए दो संदर्भों का जिक्र करना जरूरी होगा जिन्हें सामान्य जनमानस कम ही जानता है। दरअसल चीन ने 1949 में कम्युनिस्ट क्रांति के अगले ही साल 1950 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया। इसके अगले साल उसने तिब्बत के साथ हुए 17 समझौतों को धता बताते हुए तिब्बत की परंपरागत व्यवस्था को कुचलना शुरू कर दिया था। तिब्बत के खंपा लोगों ने चीनी साम्राज्यवाद का विरोध करना शुरू कर दिया था। लेकिन चीन तिब्बत को अपना क्षेत्र बताने लगा था जिसे नेहरू ने 1950 के आसपास ही सैद्धांतिक मान्यता दे दी थी। पटेल ने इसी संदर्भ में नेहरू को आगाह किया था।

पटेल ने अपने पत्र में जिस राजदूत का जिक्र किया है, वे थे इतिहासकार के एम पणिक्कर। जिन्हें पंडित नेहरू ने चीन में राजदूत बनाया था। चूंकि नेहरू चीन से बेहतर ताल्लुक रखना चाहते थे, लिहाजा उन्होंने पणिक्कर को चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग से मिलने के लिए भेजा। पणिक्कर ने इस मुलाकात के बाद जो रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी, वह कुछ यूं थी- ‘मिस्टर चेयरमैन ( माओत्से तुंग) का चेहरा बहुत कृपालु है और उनकी आंखों से तो जैसे उदारता टपकती है। उनके हाव-भाव कोमलतापूर्ण हैं। उनका नजरिया दार्शनिकों वाला है और उनकी छोटी-छोटी आंखें स्वप्निल-सी जान पड़ती हैं। चीन का यह नेता जाने कितने संघर्षों में तपकर यहां तक पहुंचा है, फिर भी उनके भीतर किसी तरह का रूखापन नहीं है। प्रधानमंत्री महोदय, मुझे तो उनको देखकर आपकी याद आई! वे भी आप ही की तरह गहरे अर्थों में मानवतावादी हैं!’ पटेल ने अपनी इस चिट्ठी के जरिए भारतीय राजदूत के खिलाफ क्रोध भी जाहिर किया था। उन्होंने साफ संकेत दिया था कि चीन सरकार ने हमारे राजदूत को एक तरह मूर्ख बनाया है। यह बात और है कि प्रधानमंत्री नेहरू इस तथ्य को समझ नहीं पाए।
चीन से रिश्ते बेहतर बनाने के लिए स्वप्नद्रष्टा नेहरू कितने गंभीर थे, इसका असर पटेल की चेतावनी के बावजूद 1952 की गर्मियों में देखने को मिला। जब नेहरू की ही बहन विजयलक्ष्मी पंडित की अगुआई में भारत सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल बीजिंग गया। उनकी मुलाकात चीन के कई नेताओं के साथ ही माओत्से तुंग से कराई गई। माओ से वे भी प्रभावित हो गर्इं। उन्होंने तब प्रधानमंत्री नेहरू को चिट्ठी लिखी- ‘मिस्टर चेयरमैन का हास्यबोध कमाल का है और उनकी लोकप्रियता देखकर तो मुझे महात्मा गांधी की याद आ गई।’ इसका असर यह हुआ कि 1954 में पंडित नेहरू ने चीन के साथ दोस्ती का मजबूत हाथ बढ़ा दिया। उन्होंने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मानते हुए पंचशील का समझौता कर लिया। यहां पर याद आते हैं अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति टॉम जैफरसन के शब्द। उन्होंने कहा था, ‘मुझे तो अतीत के इतिहास से कहीं अच्छे लगते हैं भविष्य के सपने।’ लगता है कि नेहरू उसी तरह इतिहास को देखने की बजाय भविष्य के सपने देख रहे थे। जिसका असर उन पर इतना था कि बाद के दिनों में चीन के प्रति उन्हें आगाह करने वाली हर आवाज को उन्होंने अनसुना किया। मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ में लिखा है कि ‘उन दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय में गिरिजा शंकर वाजपेयी नाम के एक अफसर थे। वे प्रधानमंत्री नेहरू को चीन से सतर्क रहने के लिए लगातार चेताते रहे। जो प्रधानमंत्री अपने ही उपप्रधानमंत्री की चेतावनी को अनसुना कर सकता था, वह भला अपने अफसर की क्यों सुनता। उसका असर यह हुआ कि देश अब भी चीन की आंखें देख रहा है।’

हालांकि इस मामले में लोहिया के अनुयायी कहीं ज्यादा व्यावहारिक रहे। 1998 में रक्षा मंत्री रहते वक्त फायर ब्रांड नेता जार्ज फर्नांडिस ने खुलकर चीन को देश का दुश्मन नंबर वन बताया था। तब चीन के प्रति भयाक्रांत रही भारतीय मानसिकता और राजनीति के एक बड़े धड़े ने इसका विरोध किया था। अपने नेता लोहिया की तरह जार्ज भी तिब्बत को चीन का अंग नहीं मानते थे। इसी कड़ी में अगला नाम मुलायम सिंह यादव का है। यह संयोग ही है कि वे भी देश के रक्षा मंत्री रह चुके हैं। लोकसभा में उन्होंने 18 जुलाई को साफ कहा कि ‘पाकिस्तान नहीं, चीन भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है।’ मुलायम को इस बात का भय है कि चीन भूटान व सिक्किम पर कब्जा करना चाहता है। भारत को इसका तीखा प्रतिरोध करना चाहिए और अपनी पूरी ताकत इसके लिए लगानी चाहिए।

एक और समाजवादी नेता की टिप्पणी को इस प्रसंग में याद कर लेना समीचीन होगा। 1962 में चीन से पराजय के बाद समाजवादी नेता आचार्य जे बी कृपलानी ने लोकसभा में पंडित नेहरू को लेकर बड़ी गंभीर टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था, ‘अध्यक्ष महोदय ! प्रधानमंत्री बार-बार इतिहास बनाने की बात करते हैं और चीन भूगोल बना रहा है।’

पश्चिम के चाणक्य कहे जाने वाले मैकियावेली ने अपनी मशहूर पुस्तक ‘द प्रिंस’ में लिखा है, ‘ज्ञानी लोगों का कहना है कि जिन्हें भी भविष्य को देखने की इच्छा हो, उन्हें भूत (इतिहास) से सीख लेनी चाहिए।’ मौजूदा सरकार से यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि वह मैकियावेली की इस सीख पर मजबूती से अमल करेगी।