हिंदू समाज के दलित समुदाय ने हजारों साल वर्ण व्यवस्था का दंश झेला, इस मसले पर कोई मतभेद नहीं है। उस अत्याचार के प्रायश्चित स्वरूप देश के संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की व्यवस्था की। जिस राजनीति ने आम सहमति से इस व्यवस्था को स्वीकार किया उसी राजनीति ने दलित समुदाय को पिछड़ा, गरीब और अशिक्षित रखने के सारे जतन किए। सभी राजनीतिक दलों को और खासतौर से कांग्रेस को लगा कि इस वर्ग को अगर वोट बैंक बनाए रखना है तो उसे हमेशा सत्ता के प्रति आश्रित रखना ही श्रेयस्कर होगा। दलितों को स्वावलम्बी बनाने या उन्हें आर्थिक और शैक्षणिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की कोई कोशिश की ही नहीं। राजनीतिक दलों को चुनाव के समय दलितों की अचानक याद आ जाती है। इसलिए कोई दलित की झोपड़ी में रात बिताने जाता है तो कोई उनके साथ भोजन करने। सरकारी और संवैधानिक स्तर पर तो कई प्रयास हुए। लेकिन जिन लोगों ने इन माध्यमों से कुछ देते हुए दिखने का प्रयास किया उन्हीं लोगों ने अघोषित रूप से यह प्रयास भी किया कि इसे जितना संभव हो सके रोका जाए। नौकरियों में दलितों के आरक्षण का कोटा कभी भरता नहीं। 1947 से 1977 तक तीन दशक भारत का दलित कांग्रेस के खूंटे से बंधा रहा। पर उसकी स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। देश में दलित उत्पीड़न को रोकने के लिए जितने कानून बने हैं उससे ज्यादा अत्याचार बढ़े हैं। दलितों की मसीहा और यह दावा करने वाली मायावती कि उनके लोग उन्हें देवी समझते हैं, भी अपने समुदाय के लोगों के लिए मुख्यमंत्री बन कर कुछ नहीं कर पार्इं। उन्हें सत्ता में बने रहने और आगे बढ़ने के लिए गैर दलित वोटों की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने दलितों की उपेक्षा की। इस समय देश में दलितों से सहानुभूति दिखाने का फैशन सा चल पड़ा है। ज्यादातर राजनीतिक दल किसी न किसी प्रदेश में सत्ता में हैं। वे अपने शासन वाले राज्य में दलितों की हालत सुधारने के लिए कुछ करने की बजाय दूसरी पार्टी के शासन वाले राज्य में दलितों पर होने वाले हर छोटे बड़े मुद्दे को इस तरह उठाते हैं मानो दलितों का उनसे बड़ा हितैषी और कोई है ही नहीं।

दलितों की समस्या राजनीति से ज्यादा समाज की समस्या है। हिंदू समाज पर यह एक बदनुमा दाग की तरह है। अफसोस की बात यह है कि इस दाग को धोने के लिए इस समाज ने कोई प्रयास नहीं किया। सरकारें और राजनीतिक दलों की भूमिका तो बाद में आती है। पहले तो यह सामाजिक समस्या है। आजादी के उनहत्तर साल बाद और संविधान बनने के 66 साल बाद हिंदू समाज में दलितों के प्रति भावना में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। इस मामले में हिंदू धर्म का संत समाज भी दोषी है। संत समाज हिंदुओं की एकता और संगठन की बात तो करता है पर जातिगत भेदभाव को दूर करने का प्रयास नहीं करता। इक्कीसवीं सदी में दलितों को मंदिर में प्रवेश और कुएं का पानी लेने से रोकने की घटनाएं पूरे समाज और देश के लिए शर्मनाक हैं। दलितों पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ किसी शंकराचार्य किसी धर्माचार्य ने कभी कोई बयान नहीं दिया। राजनीतिक दलों का लोभ तो समझ में आता है। वे चुनाव से कुछ महीने पहले दलितों की चिंता करते हैं फिर भूल जाते हैं। जो जीत जाते हैं वे भी और हार जाते हैं वे भी। गोरक्षा के नाम जो लोग दलितों पर अत्याचार कर रहे हैं उनके खिलाफ कोई सामाजिक संगठन खड़ा नहीं हुआ। राजनीतिक दलों की चिंता केवल जबानी जमा खर्च है, जो तात्कालिक है। इसका नमूना ग्यारह अगस्त को लोकसभा में दिखा। दलितों पर अत्याचार के मुद्दे पर विपक्ष चर्चा की मांग इस तरह कर रहा था मानो उनके लिए इससे ज्यादा अहम कोई मुद्दा नहीं है। सरकार भी चर्चा कराने के लिए इतनी तत्पर थी मानो वह इस स्थिति से बहुत चिंतित है। जब चर्चा शुरू हुई तो सत्ता पक्ष और विपक्ष की खाली बेंच बता रही थीं कि हमारे नेताओं को दलितों की कितनी चिंता है। किसी दल का कोई बड़ा नेता सदन में मौजूद नहीं था। ज्यादातर वही लोग थे जिन्हें इस मुद्दे पर बोलना था। जाहिर है कि ऐसी चर्चा से किसी सार्थक नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य सरकारों से अनुरोध किया है कि ऐसे गोरक्षकों के खिलाफ कार्रवाई करें। उन्होंने बहुत भावुक होकर कहा कि दलित भाइयों को मारने की बजाय मुझे गोली मारो। प्रधानमंत्री की बात सही है पर पहले नहीं तो कम से कम उनकी बात के बाद तो कार्रवाई हो। जिस बात के बाद जमीनी स्थिति न बदले उसका कोई अर्थ नहीं है। सही है कि कानून व्यवस्था राज्य का मामला है। पर प्रधानमंत्री से इतनी अपेक्षा तो की जा सकती है कि भाजपा शासित राज्यों में उनके कहे पर अमल हो। भाजपा और संघ परिवार इस समय दलितों को जोड़ने के अभियान में लगा है। इस तरह की घटनाओं से दलित जुड़ने की बजाय और दूर ही होंगे। सत्ता अपनी हनक से चलती है। देश का प्रधानमंत्री बोले तो शासन को उस पर डोलना चाहिए। ऐसा नहीं होता है तो शासन का इकबाल घटता है।