अमीश ।

कल्पना करें कि आप इतिहास की सबसे खतरनाक सेनाओं में से किसी के गर्वाेन्मत्त सैनिक, मध्ययुग के खूंखार मंगोल/तुर्क योद्धा हैं। आपकी विजयी सेना ने चीन, अरब, यूरोप और भारत में मौत और तबाही मचा दी है। आप खुद को बेहतरीन योद्धा के तौर पर देखते हैं। अब हम कल्पना करते हैं कि, विज्ञान के चमत्कार के जरिये, आप समय-चक्र को पार करके इक्कीसवीं सदी में आ जाते हैं। अब सामाजिक संरचना के संदर्भ में आपने जो देखा, उससे क्या हैरान रह जाएंगे? निश्चय ही!

आज की बेहतरीन जीवनशैली राज्य-प्रमुखों (सैनिक के युग के राजा के समकक्ष) या सेना-प्रमुखों तक के लिए उपलब्ध नहीं है। इसके बजाय यह कामयाब बिजनेसमैन का विशेषाधिकार है।
सेना के जनरल की आय किसी मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन में मध्य स्तर के कर्मचारी से भी कम है। समय-चक्र पार करके आए सैनिक के युग के विपरीत, जब अपने निम्नतर स्तर की ओर से बाखबर व्यापारी अधीनस्थों की तरह राजाओं के पास जाते थे… आज बिजनेसमैन वास्तव में अपने नेताओं के सामने मांगें रखता है। आज के युवा कंपनियों में जाने या कारोबार शुरू करने का प्रशिक्षण लेते हैं- मध्ययुग के विपरीत जब प्रतिभाशाली नौजवान सेना में जाने की हसरत रखते थे। समय के पार आए सैनिक को यह हैरान कर सकता है, मगर हमें नहीं। क्यों? क्योंकि हम पैसे के युग, या जैसा कि हमारे शास्त्र कहते हैं वैश्य युग में रहते हैं। इसका संबंध किसी जाति से नहीं, बल्कि जातिगत व्यवसाय से है। इस तरह से ब्राह्मण युग ज्ञान का युग है; क्षत्रिय युग योद्धा प्रतिभाओं और सैन्यवाद का युग है और शूद्र युग व्यक्तिवाद का युग है। काल के अनंत चक्र में ये युग बार-बार आते रहते हैं। क्षत्रिय युग में जो लोग युद्धकला और हिंसा में पारंगत थे, वही शक्तिशाली और सम्मानित थे… जो लोग कारोबार और व्यापार के जरिये धन-संपत्ति जमा करते हैं, वे वैश्य युग में शक्तिशाली और समृद्ध होंगे। महत्वपूर्ण रूप से, सामाजिक बदलाव लागू करने का सबसे सक्षम साधन उस युग का प्रमुख जातिगत व्यवसाय है जिसमें आप रहते हैं। सैन्य युग (जिससे हम हाल ही में निकले हैं) और पैसे के युग (जिसमें हम वर्तमान में हैं) की मदद से मैं इसे समझाने की कोशिश करता हूं।
सैन्य युग में बदलाव की सबसे अहम मुद्रा हिंसा थी। धर्मांे को हिंसा से बढ़ाया और फैलाया जाता था-उन अधिकांश धर्मांे की रक्षा- जो आज की तारीख तक बचे रहे हैं- योग्य और प्रतिष्ठित योद्धाओं ने ही की थी, जैसे सलाउद्दीन और रिचर्ड द लॉयनहार्ट। लोगों के लिए अपना स्तर बढ़ाने का सबसे प्रभावशाली तरीका सैन्य ताकत के जरिये था… तो कोई हैरानी नहीं कि ज्यादातर संस्कृतियों में सेना एक सम्मानित संगठन हुआ करती थी। आज हम देखते हैं कि जो राष्ट्र जरूरत से ज्यादा हिंसक हैं, वे प्रगति नहीं कर रहे हैं- उदाहरण के लिए सोमालिया। मगर सैन्य युग में जो लोग हिंसा करने में माहिर थे वे दुनिया भर में विशिष्ट हो गए, उदाहरण के लिए- मंगोल/तुर्क कबीले। सैन्य युग में धन या ज्ञान सत्ता पाने के सबसे ज्यादा प्रभावशाली रास्ते नहीं थे। पैसा कमाने की कला या ज्ञानार्जन का वजूद था, मगर वे परिवर्तन की प्रबल मुद्रा नहीं थे। सफल लीडर वह नहीं था जो समृद्ध या शिक्षित लोगों के समूह से घिरा रहता था, हालांकि उनके अपने लाभ थे… बल्कि सफल लीडर वह होता था जिसके साथ सबसे ज्यादा निर्भीक योद्धा रहते थे। आज, हम पैसे के युग में, या वैश्यों के तौर तरीकों में रहते हैं। परिवर्तन की सबसे ज्यादा सक्षम मुद्रा पैसा है… हिंसा नहीं। कुछ लोग युग के नियमों को स्वीकार करते हैं और समृद्ध होते हैं। दूसरे नहीं मानते और दुख पाते हैं।

अक्सर पूछा जाता है कि क्या भारत सैन्य युग से पैसे के युग में चला गया है?
मेरे ख्याल से तो हम उलझन में हैं। सैन्य युग को हम पीछे छोड़ चुके हैं, पिछली सदी के महानतम नेताओं में से एक महात्मा गांधी की बदौलत। हम भारतीयों ने अपने लिए एक भ्रमजाल बुना है कि हम हमेशा से अहिंसावादी रहे हैं। यह सच नहीं है। हमने भी अपने हिस्से के हिंसक दुस्साहस देखे हैं। उदाहरण के लिए- बर्बर पाल-चोल युद्ध। महात्मा गांधी के प्रभाव ने (हमारी प्राचीन दार्शनिक विरासत के अंशों पर निर्मित) नाटकीय रूप से अधिकांश भारतीयों में हिंसा के प्रति रुझान को कम कर दिया था, और इस तरह हमें क्षत्रिय युग से बाहर निकाला था।

सवाल यह भी है कि क्या हम पूरे मन से वैश्य युग में प्रवेश कर चुके हैं?
ऐसा नहीं है। पैसे के साथ हमारा एक जटिल रिश्ता है। बहुत से लोगों- खासकर हमारी वृद्ध पीढ़ी- का यह नजरिया है कि धन भ्रष्टाचार को बढ़ाता है। हमारे मन में धन के प्रति ब्राह्मणवादी/क्षत्रियवादी घृणा है। हालांकि हमारे नौजवान इस रवैये से कम पीड़ित़्ा हैं। यह उस ढर्रे में सामने आती है जिससे हम अपने जीवन को, अपने रिश्तों को चलाते हैं। यह हमारे धनाढ्य वर्ग की बेहूदा फिजूलखर्ची तक में उजागर होती है, जो कि धन के साथ अस्वस्थ रिश्ते का लक्षण है।
तमाम लोगों के मन में यह आशंका हो सकती है कि क्या कभी पैसा भी समाज का अहित कर सकता है और उसे नुक्सान पहुंचा सकता है?
यकीनन। मगर फिर, वह तो क्षत्रिय युग की हिंसा ने, ब्राह्मण युग के ज्ञान ने …या शूद्र युग के व्यक्तिवाद ने भी किया था। पैसा अपने आप में समस्या नहीं है, बल्कि उसके प्रति हमारा रवैया समस्या है।
सैन्य युग में जापान के समुराई की तरह के धार्मिक योद्धा होते थे, जो योद्धा संहिता (बुशिदो संहिता) के साथ लड़ते थे। उनका विश्वास था कि उनका एक मिशन है, जिसमें कमजोरों का संरक्षण निहित था। लेकिन अधार्मिक योद्धा भी थे, जो अपने कौशल का प्रयोग निर्दाेषों और कमजोरों को यातना देने में करते थे। इसी तरह आज धार्मिक पैसा कमाने वाले और अधार्मिक पैसा कमाने वाले हैं।

तो… पैसे के इस युग में आम भारतीयों को क्या करना चाहिए?
सबसे पहले, हमें पैसे को लेकर अपना पाखंड छोड़ना और इस युग के नियमों को स्वीकार करना चाहिए। जो लोग उपदेश देते हैं कि धन भ्रष्ट करता है और पूंजीवाद बुरा है, वे उतने ही ग़्ौरजिम्मेदार हो रहे हैं जितने कि वे लोग जो सैन्य युग में अंहिसा की बात करते थे। दूसरी बात, हमें अपने धार्मिक पैसा कमाने वालों का सम्मान करना चाहिए… जैसे सैन्य युग में समाज अपने महान योद्धाओं का करते थे। तीसरी बात, हमें स्वीकार करना होगा कि ज्ञान, हिंसा और व्यक्तिवाद हमारे युग में भी प्रासंगिक हैं… मगर परिवर्तन लाने के लिए धन के समान सामर्थ्य से उनका प्रयोग नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान दूसरे सभी साधनों की अपेक्षा हिंसा के प्रयोग से अपने वैश्विक स्तर को बदलने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन ने प्रमुख रूप से धन का रूपांतरण के साधन के रूप में इस्तेमाल किया है। कौन सा देश ज्यादा सफल है? क्या यह वाकई कोई सवाल हो सकता है? अंत में, हमें समझना होगा कि आज अगर ज्ञान का प्रयोग हो रहा है तो इसकी सफलता की संभावना तब कहीं ज्यादा बढ़ जाती है जब इसे धन का सहारा हासिल होता है, उदाहरण के लिए- चिंतकों और बुद्धिजीवियों की अगर अच्छी मार्केटिंग न हो तो उन्हें कमोबेश नजरअंदाज ही कर दिया जाता है।

और एक महत्वाकांक्षी पैसा कमाने वाले को क्या करना चाहिए?
धार्मिक बनें और सही तरीके से पैसा कमाएं बिना कानून तोड़े… समझदारी से खर्च करें… अपने शौकों और ठसकपने की इच्छाओं पर नियंत्रण रखें… लोकोपकार में योगदान दें… और शोषितों की मदद करें। यह आपके लिए पुण्य अर्जित करेगा और आपको ऐसी प्रसन्नता प्रदान करेगा जो पैसा नहीं खरीद सकता।
हम पैसे के युग में रहते हैं। हो सकता है आगे ज्ञान, सैन्य या व्यक्तिवाद युग आए… यह संभवत: व्यक्तिवाद युग भी लग सकता है। मगर आज हमें अपने युग के नियमों को समझना होगा। डंग जियाओ पंग के शब्दों को थोड़ा सा तोड़ने-मरोड़ने के लिए माफी मांगते हुए कहूंगा… हमारे देश का प्रतीक वाक्य होना चाहिए : धन अर्जित करना भव्य है!