श्रीनगर से फरजाना मुमताज।

कश्मीर के बिगड़े हालात को सुधारने के लिए केंद्र सरकार की पहल के तहत चार सितंबर को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने कश्मीर का दौरा किया। 27 सदस्यीय इस प्रतिनिधिमंडल में सभी बड़ी पार्टियों के नेता और सांसद शामिल थे। आठ जुलाई को हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की सुरक्षा बलों के साथ एनकाउंटर में हुई मौत के बाद घाटी में बड़े पैमाने पर लोगों के विरोध प्रदर्शन और उनसे निपटने के लिए सुरक्षा बलों की ओर से की गई कार्रवाई ने जो स्थिति पैदा की है उसका जायजा लेना और हालात को सामान्य बनाने के उपाय तलाशना इस प्रतिनिधिमंडल का मुख्य मकसद था।

कश्मीर के इतिहास में यह चौथा मौका है जब सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने यहां का दौरा किया है। 1990 में जब आतंकवाद यहां चरम पर था तब पहली बार सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने यहां का दौरा किया था। अमरनाथ जमीन विवाद पर हुए व्यापक विरोध प्रदर्शन के बाद दूसरी बार 2008 में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने हालात का जायजा लिया। तीसरी बार यह प्रतिनिधिमंडल घाटी में तब पहुंचा जब 2010 में अलगाववादियों के प्रदर्शन और पत्थरबाजों से निपटने के लिए सुरक्षा बलों की ओर से की गई कार्रवाई में 122 लोग मारे गए थे।

कश्मीर के जमीनी हालात पर करीब से नजर रखने वालों का मानना है कि यह प्रतिनिधिमंडल अपने मकसद में पूरी तरह से असफल रहा है। यह न सिर्फ कश्मीर में जमी बर्फ को पिघलाने में नाकाम रहा बल्कि इस तरह के संकेत भी दे दिए कि हालात से निपटने के लिए सख्त कदम उठाने से गुरेज नहीं किया जाएगा। बहुत सारे लोग शायद यह मानते हों कि इस तरह का संकेत शायद इसी वजह से दिया गया है कि अलगाववादी नेताओं ने प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों से न सिर्फ बात करने से इनकार कर दिया बल्कि सांसदों के लिए घर के दरवाजे तक नहीं खोले। कश्मीर के मसले को सुलझाने में उन्होंने न तो कोई सहानुभूति दिखाई और न ही कोई नरमी बरती। मगर सच्चाई यह भी है कि प्रतिनिधिमंडल हालात को सामान्य बनाने के कोई हल ढूंढने में पूरी तरह से नाकाम रहा। यहां तक कि सिविल सोसायटी या कारोबारी संगठनों तक में प्रतिनिधिमंडल भरोसा बहाल नहीं कर पाया। उनसे एक बैठक कर इस तरह की कोशिश की जा सकती थी जो नहीं हुई। सिविल सोसायटी के किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति या संगठन का नाम तक उनके सामने नहीं रखा गया।

हैरानी की बात यह है कि अलगाववादियों को बातचीत के लिए बुलाने पर भी प्रतिनिधिमंडल में एका नहीं थी। उहापोह वाली इस स्थिति से भी गलत संदेश गया। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के कश्मीर दौरे की पहली प्राथमिकता लोगों के गुस्से को कम करना था जिसे हासिल करने में भी प्रतिनिधिमंडल असफल रहा। कश्मीर खासकर दक्षिण कश्मीर के अशांत क्षेत्रों में लोगों का गुस्सा कम नहीं हुआ। प्रतिनिधिमंडल के दौरे के बाद कश्मीर में सुरक्षा सख्त करने को लेकर हुई बातचीत से भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि वास्तविक जमीनी राजनीति के हिसाब से प्रतिनिधिमंडल को कुछ खास हासिल नहीं हुआ।

कश्मीर में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की केंद्र की पहल को ज्यादातर लोग सही नहीं मान रहे हैं। खासकर ऐसे समय जब कोई भी पक्ष इस मसले पर नरम रुख अपनाने को तैयार नहीं है। घाटी के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों और टिप्पणीकारों का भी यही मानना है कि बाकी तीन सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की तुलना में यह प्रतिनिधिमंडल सबसे ज्यादा बेअसर रहा है। एक वरिष्ठ विश्लेषक ने बताया कि 2010 के व्यापक विरोध प्रदर्शन के बाद जब प्रतिनिधिमंडल ने कश्मीर का दौरा किया था तो हिंसा को रोकने और लोगों के गुस्से को शांत करने में उसने अहम भूमिका निभाई थी। इससे न सिर्फ तोड़फोड़ का सिलसिला रुका था बल्कि आम नागरिकों की मौत के मामले भी बंद हो गए थे। मगर इस बार हालात कुछ और हैं। कश्मीर के प्रदर्शनकारी इस बार न सिर्फ कम भयभीत हैं बल्कि कई क्षेत्रों में आजादी की मांग अब तक के सबसे जोरदार तरीके से उठ रही है। प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों की अलग-अलग राय से भी घाटी में गलत संदेश गया।

यहां तक कि प्रतिनिधिमंडल के प्रतिष्ठित सदस्यों ने भी सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि इस बार का दौरा सबसे ज्यादा निराशाजनक रहा। इससे यही साबित होता है कि कश्मीर की मौजूदा स्थिति को कितनी गंभीरता से लिया गया। 10 सितंबर को फिर से भड़की हिंसा को काबू में करने के लिए सुरक्षा बलों की कार्रवाई में दो लोगों की मौत और पैलेट गन से दर्जनों लोगों के घायल होने की घटना भी इसी ओर इशारा करती है कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के दौरे से सुरक्षा बलों को और सख्त कार्रवाई करने का जैसे लाइसेंस मिल गया है। यहां के पूरे मसले को केवल पाकिस्तान के नजरिए से ही देखा जा रहा है।

ईद में भी प्रदर्शन
पिछले ढाई दशक में यह पहला मौका था जब अलगाववादियों ने ईद उल अजहा (बकरीद) के मौके पर प्रदर्शन जारी रखने का फैसला किया। तीन दिन तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान भी प्रदर्शन करने का फैसला कर अलगाववादियों ने अपने मंसूबे साफ कर दिए। इससे पहले त्योहारों के दौरान अलगाववादी किसी तरह के विरोध प्रदर्शन से बचते रहे हैं। 2008 और 2010 में जब घाटी में व्यापक प्रदर्शन हुए थे तब भी अलगाववादियों ने ईद के मौके पर प्रदर्शन नहीं करने का फैसला किया था। त्योहारों के मौके पर आमतौर पर घाटी के लोग ईदगाह या बड़ी मस्जिदों में नमाज पढ़ने जाते हैं। हालांकि तब भी सुरक्षा के तमाम बंदोबस्त को धता बताते हुए लोगों ने नमाज के बाद व्यापक प्रदर्शन किया था। हजारों लोगों ने सिटी सेंटर की ओर मार्च किया था और महत्वपूर्ण सरकारी ठिकानों को निशाना बनाते हुए अपने झंडे फहराए थे। अलगाववादियों के इस ऐलान के बाद ही केंद्र सरकार ने घाटी में सुरक्षा बलों की और टुकड़ियां भेजने का फैसला किया।