उमेश चतुर्वेदी

राहुल गांधी का देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का अध्यक्ष बनना औपचारिकता ही था। यह संयोग ही है कि जिस दिसंबर महीने की 28 तारीख को ठीक 132 साल पहले कांग्रेस की स्थापना एक विदेशी ए ओ ह्यूम ने की थी, उसी दिसंबर में विदेशी मूल की मां का भारतीय बेटा उसकी कमान संभाल रहा है। भारतीय लोकतांत्रिक परिवेश में राजनीतिक दल हर मुद्दे पर सियासी हमला करने से नहीं चूकते, लेकिन जैसे ही दलों के अंदरूनी लोकतंत्र का सवाल सामने आता है, उसे दल विशेष का आंतरिक मामला बताकर चुप्पी साध लेते हैं। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की सियासी अदावत किस बिंदु पर जा पहुंची है, इसे आम आदमी भी समझता है। लेकिन राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के मुद्दे पर छिटपुट सवाल के अलावा उसने भी कोई गंभीर सवाल नहीं खड़ा किया है। समाजवादी और कांग्रेसी विचारधारा के लोग सवाल पूछ सकते हैं कि आखिर सवाल क्यों। लेकिन सवाल यह है कि 132 साल पुरानी पार्टी, जिसका दावा है कि वह गांधी के विचार दर्शन पर लोकतांत्रिक ढंग से चल रही है, ऐसा तंत्र अब तक विकसित क्यों नहीं कर पाई, जिसमें किसी आम जन का बेटा भी अपनी योग्यता, लगन और परिश्रम के दम पर पार्टी की कमान संभाल सके।

कांग्रेस की स्थापना बेशक एक अंग्रेज ने की, लेकिन दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे गांधी की ही छत्रछाया में उनके वैचारिक दर्शन पर कांग्रेस आगे बढ़ती रही है। वह आज भी गांधीवाद का मूल अनुयायी होने का दावा करती है। लेकिन उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि गांधीजी खुद वंशवाद के प्रबल विरोधी रहे। लेकिन उनके ही वैचारिक दर्शन पर चलने वाली पार्टी में आखिर ऐसा लोकतंत्र क्यों नहीं विकसित हो पाया, जिसे नेहरू-फिरोज परिवार से बाहर एक अध्यक्ष तक नहीं मिल पाता। नेहरू-फिरोज परिवार के राहुल गांधी छठवें सदस्य हैं, जो कांग्रेस की कमान संभालने जा रहे हैं। उनके पहले उनकी दादी के दादा मोती लाल नेहरू दो बार, उनकी दादी के पिता जवाहर लाल नेहरू आठ बार और उनकी दादी इंदिरा गांधी पहले 1959 और बाद में 1978 से 84 तक अध्यक्ष रहीं। उनके पिता राजीव गांधी को इंदिरा गांधी की 31 अक्टूबर 1984 को हत्या के बाद पार्टी की कमान संभालनी पड़ी, जो अपनी निर्मम हत्या तक 21 मई 1991 तक अध्यक्ष रहे। उसके बाद अप्रैल 1998 में राहुल की मां सोनिया गांधी ने पार्टी अध्यक्ष का दायित्व संभाला, जिनसे यह जिम्मेदारी अब राहुल लेने जा रहे हैं। इस लिहाज से देखें तो राहुल अपने परिवार की पांचवीं पीढ़ी के छठवें सदस्य हैं, जो कांग्रेस का सर्वोच्च पद संभालने जा रहे हैं।

कांग्रेस ही नहीं, तकरीबन पूरी भारतीय राजनीति हर मसले पर गांधी विचार, दर्शन और कर्म की दुहाई देने से नहीं हिचकती। कांग्रेस तो उनकी ही विरासत का विस्तार है। लेकिन खुद गांधी जी वंशवाद के विरोधी थे। इसकी उन्हें कीमत तक चुकानी पड़ी। उनके बेटे हरिलाल गांधी को आजीवन इस बात का दर्द सालता रहा कि गांधी जी ने न तो राजनीति में और न ही वकालत में उन्हें अपने बेटा होने के चलते आगे बढ़ाया। जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका के फिनिक्स आश्रम में थे, तब लंदन में कानून की पढ़ाई करने के लिए उन्हें एक छात्र को भेजने का मौका मिला। पढ़ाई-लिखाई में होशियार गांधी जी के सबसे बड़े बेटे हरिलाल गांधी खुद को उस मौके के लिए सबसे प्रबल दावेदार मानते थे, लेकिन गांधी जी ने उनकी दावेदारी सिर्फ इसलिए दरकिनार कर दी, क्योंकि हरिलाल उनके बेटे थे। उन्होंने जिस युवक को लंदन भेजा, वह अपनी पढ़ाई तक पूरी नहीं कर पाया। इसके बाद राजनीति में भी उन्होंने हरिलाल को तवज्जो नहीं दी। इससे हरिलाल विद्रोही हो गए। सुशीला नायर की पुस्तक हमारी बा के हरफों से आप गुजरेंगे तो पता चलेगा कि हरिलाल अपने पिता महात्मा गांधी से किस कदर घृणा करते थे। इस तथ्य की तस्दीक गांधी जी की पोती सुमित्रा कुलकर्णी के बेटे और गोपाल कृष्ण गांधी के भांजे श्रीकृष्ण कुलकर्णी उर्फ कृष ने अपने एक पत्र में किया। कृष ने यह पत्र इसी साल अगस्त में लिखा था, जब उनके मामा गोपाल कृष्ण गांधी कांग्रेस की अगुआई वाले विपक्ष की ओर से वेंकैया नायडू के खिलाफ उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन गए थे। कृष ने गोपालकृष्ण गांधी के नामांकन के विरोध में लिखा कि महात्मा गांधी के घोर आलोचक भी इस बात से मना नहीं करेंगे कि गांधीजी ने जन्म के कारण मिलने वाले अधिकारों का विरोध किया था।

लेकिन सवाल यह है कि आखिर जो गांधी जी वंशवाद के इतने विरोधी थे, उन्होंने अपनी ही छत्रछाया में पल-बढ़ रही कांग्रेस पार्टी में वंशवाद को क्यों और कैसे बढ़ने दिया। इसके लिए इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। अपनी दमदार वकालत के चलते तब के संयुक्त प्रांत और अब के उत्तर प्रदेश में मोतीलाल नेहरू बड़ी हस्ती बन चुके थे। 1910 में वे संयुक्त प्रांत की विधायिका का चुनाव जीत चुके थे। पहले तो उन्होंने स्वराज पार्टी बनाई, बाद में कांग्रेस की राजनीति में वे सक्रिय हुए और उन्हें सबसे पहले 1919 के अमृतसर अधिवेशन में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इसके नौ साल बाद कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 1928 में उन्हें दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया। इस दौरान गुजरात में बारडोली के सत्याग्रह के बाद बल्लभभाई पटेल कांग्रेस ही नहीं, देश के बड़े नेता के तौर पर स्थापित हो चुके थे। उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि लोगों ने उन्हें सरदार की उपाधि से अलंकृत कर दिया। गांधी से उन दिनों प्रकाशित हरिजन के एक लेख में खुद सरदार की प्रशंसा में लिखा, ‘बल्लभ भाई, वारडोली के ही नहीं, मेरे भी सरदार हैं।’ 1929 में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन होने जा रहा था। उसमें सरदार पटेल के ही अध्यक्ष चुने जाने की प्रबल संभावना थी। लेकिन मोतीलाल नेहरू के मन में कुछ और ही पल रहा था। उन्होंने अपने बेटे जवाहर लाल नेहरू को ही अध्यक्ष बनाने के लिए अंदरूनी तौर पर अभियान चला रखा था। जवाहर लाल भी कांग्रेस में सक्रिय थे और 1919 के जलियांवाला बाग कांड की जांच समिति में बतौर कांग्रेस महासचिव शामिल थे। उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने इस समिति में शामिल किया था। बेशक जवाहर की देशव्यापी छवि बन चुकी थी, लेकिन सरदार पटेल के सामने उनका कद छोटा ही था। मोतीलाल नेहरू इस तथ्य को समझते थे। इसीलिए उन्होंने महात्मा गांधी को पत्र लिखा था। मोतीलाल नेहरू ने 17 जुलाई, 1928 को महात्मा गांधी को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने लिखा, ‘मेरा मानना है कि इस समय के नायक वल्लभभाई हैं और महसूस करता हूं कि हमें उन्हें सत्तासीन करना चाहिए। ऐसा न होने की स्थिति में मेरा मानना है कि जवाहर सर्वश्रेष्ठ विकल्प होंगे।’

दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू की ही याद में नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी और संग्रहालय है। उसमें रखे मोतीलाल पेपर्स पढ़ने के बाद इतिहासकार रिजवान कादरी ने लिखा है, ‘मोतीलाल नेहरू युवा नेहरू को आगे बढ़ाना चाहते थे।’ लेकिन हकीकत यह भी है कि मोतीलाल नेहरू की चिट्ठी के बावजूद महात्मा गांधी मोतीलाल नेहरू के ही बेटे जवाहर लाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने को तैयार नहीं थे। यह बात जब मोतीलाल नेहरू को समझ में आई तो रिजवान कादरी के मुताबिक उन्होंने गांधी जी को दो पत्र और लिखे। इसके अलावा उस दौर की कुछ अन्य मान्य शख्सियतों के जरिए भी गांधी पर दबाव बनाया। इससे दबाव में आए गांधी को जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए सहमति देनी पड़ी। इसके साथ ना सिर्फ जवाहर लाल नेहरू के हाथ कांग्रेस की कमान आ गई, बल्कि जाने-अनजाने देश में वंशवादी राजनीति की नींव भी पड़ गई। बाद के दिनों में एक-दो दलों को छोड़ दें तो पार्टियों को राजतंत्रीय मूल्यों और परंपराओं के मुताबिक चलाने की परंपरा ही पड़ गई। कुछ पार्टियां तो एक ही परिवार की जागीर बन गर्इं। अध्यक्ष का बेटा अध्यक्ष बनने लगा। चूंकि वंशवाद की यह नींव नेहरू परिवार ने डाली, इसलिए राजनीति के प्रथम परिवार का पर्याय नेहरू परिवार हो गया। अगर ऐसा नहीं होता तो पिछली सदी के नब्बे के दशक में राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यह नहीं कहते, ‘मेरा परिवार बिहार का नेहरू परिवार है।’

बहरहाल, 1929 में अपने पिता से जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस की कमान संभाली और इसके बाद 1936-37 में भी पार्टी के अध्यक्ष रहे। इसके बाद एक बार फिर उन्होंने 1951 में पार्टी कमान संभाली और प्रधानमंत्री रहते हुए 1954 तक पार्टी के अध्यक्ष रहे। यह गहन शोध का विषय है कि गांधी के विचारों के विरोधी होते हुए भी गांधी ने उन्हें ना सिर्फ कांग्रेस का अध्यक्ष बनने दिया, बल्कि उन्हें अपना उत्तराधिकारी भी बनाया। 1941 में नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करते हुए गांधीजी ने उम्मीद जतायी थी, ‘भले ही आज मेरी और नेहरू की भाषा भिन्न है, पर एक दिन वे मेरी भाषा बोलेंगे, इसका मुझे विश्वास है।’ यह बात और है कि गांधीजी का यह भरोसा कभी पूरा नहीं हुआ। नेहरू ने कई जगह स्वीकार किया है कि उनका दिमाग गांधी की मुखालफत करता है पर दिल उनके साथ जाने को मजबूर है। नेहरू ने माना है कि उन्हें गांधीजी की जीवन दृष्टि, उनके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विचार नहीं सुहाते, लेकिन वे जानते थे कि भारत को आजादी मिले बिना वे अपने सपने का भारत नहीं बना सकते थे। नेहरू ने यह भी माना कि भारत की आजादी के लिए जनता में जिस जोश त्याग और साहस की आवश्यकता है, वह गांधीजी के अलावा और कोई नहीं भर सकता। इन्हीं वजहों से गांधी जी के वैचारिक दर्शन के विरोधी होते हुए भी उन्होंने उनकी छत्रछाया में रहना मंजूर किया और इसे उन्होंने अपनी मजबूरी भी माना। जब आजादी मिलने की संभावना बढ़ी तो गांधी जी ने नेहरू के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ किया। लेकिन जब उन्हें लगा कि नेहरू उनके विचार पर नहीं चलेंगे तो 1909 में लिखी अपनी किताब हिंद स्वराज पर आस्था जताते हुए उन्होंने 5 अक्टूबर 1945 को नेहरू को पत्र लिखा। लेकिन नेहरू ने उसे सिरे से खारिज कर दिया और लिखा, ‘मैंने उसे बहुत पहले पढ़ा था, तब भी मुझे पिछड़ी सी लगी थी और अब तो जमाना बहुत आगे बढ़ गया है। गांव में जीवन जड़ और अचल है। अब हमें औद्योगिकीकरण और शहरी जीवन को अपनाना पड़ेगा।’

वंशवाद का जो बीज मोतीलाल नेहरू ने 1928 में बोया, उसके ठीक तीस साल बाद उनके बेटे जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री रहते आजाद भारत में उसे आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी 41 साल की बेटी इंदिरा गांधी को 24 सदस्यीय कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनवा दिया। इसके अगले ही साल नेहरू ने इंदिरा को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने की प्रक्रिया शुरू की। तब उनके ही सहयोगी और देहरादून से सांसद महावीर त्यागी ने इसका विरोध किया था। 31 जनवरी 1959 को नेहरू को लिखे पत्र में महावीर त्यागी ने लिखा, ‘आप इंदिरा को कांग्रेस अध्यक्ष न बनवाएं।’ उसके जवाब में एक फरवरी 1959 को जवाहरलाल नेहरू ने महावीर त्यागी को जो पत्र लिखा, उसमें अन्य बातों के साथ -साथ यह भी लिखा था, ‘मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से उसका (यानी इंदिरा का) इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है। खतरे भी जाहिर हैं।’

यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि महावीर त्यागी जवाहर लाल नेहरू के नजदीकी थे। नेहरू की मां स्वरूप रानी त्यागी को अपना दूसरा बेटा मानती थीं। इंदिरा को अध्यक्ष बनाने का समाजवादी चिंतक एवं नेता और एक दौर में नेहरू के सहयोगी रहे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया तक ने विरोध किया था। उन्होंने नेहरू के इस कदम की सख्त आलोचना करते हुए कहा था, ‘नेहरू ने यह क्या सितम कर डाला, लोकतन्त्र में वंशवाद का बीज बो डाला।’

बेशक तब इंदिरा गांधी महज एक कार्यकाल के लिए ही अध्यक्ष रहीं, लेकिन इसी बहाने कांग्रेस में नेहरू परिवार का वंशवाद मजबूत हो गया। बेशक नेहरू के निधन के बाद इंदिरा प्रधानमंत्री नहीं बनीं, लेकिन लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद 1966 में इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज ने वकालत शुरू कर दी। इसके बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं और 1978 से लेकर 1984 में अपनी निर्मम हत्या तक वे कांग्रेस की कर्णधार रहीं। प्रधानमंत्री बनने के दौरान वे अपने पिता की तरह कांग्रेस की अध्यक्ष नहीं रहीं, लेकिन 1969 के बंटवारे के बाद से पार्टी पर उनका एकछत्र प्रभाव रहा। इतना कि एक कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा तक का नारा तक दे डाला।

इंदिरा गांधी के अध्यक्ष बनने के दौर तक कांग्रेस में कुछ लोग ऐसे थे, जिनमें वंशवाद का विरोध करने का साहस था। लेकिन अब कांग्रेस एक तरह से नेहरू-फिरोज परिवार का जेबी संगठन बन गई है। इसलिए नेहरू परिवार के सदस्य की अध्यक्षता का विरोध करने का साहस शायद ही कोई दिखा पाता है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चूंकि देश मर्माहत था, लिहाजा उनके बेटे राजीव गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने का विरोध नहीं हुआ। इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष बने राजीव गांधी आजीवन पार्टी अध्यक्ष रहे। 21 मई 1991 को जब तमिलनाडु के श्रीपेरुंबुदूर में उनकी हत्या कर दी गई तो कांग्रेसियों ने शोक मनाने की बजाय बिना पूछे ही उनकी पत्नी सोनिया गांधी को अध्यक्ष चुन लिया। यह बात और है कि सोनिया ने पद स्वीकार नहीं किया। लेकिन 1997 में कांग्रेस के कोलकाता के प्लेनरी सत्र में उन्होंने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता स्वीकार की और 1998 के अप्रैल महीने में अध्यक्ष बन गर्इं। यह बात और है कि उस दौरान अध्यक्ष रहे सीताराम केसरी कांग्रेस के 1959 के बाद के इतिहास में पहले चुने हुए अध्यक्ष थे और उन्हें बेइज्जत होकर बाहर होना पड़ा था।

बहरहाल इसके ठीक दो साल बाद जब सोनिया गांधी दोबारा अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रही थीं, तब शाहजहांपुर से कांग्रेस के सांसद जितेंद्र प्रसाद ने उन्हें चुनौती दी थी, हालांकि उसमें वे खेत रहे। तब उनके चुनाव एजेंट की भूमिका इंडिया न्यूज चैनल के मालिक कार्तिकेय शर्मा के पिता विनोद शर्मा निभा रहे थे, जो उन दिनों हरियाणा से कांग्रेस के विधायक थे। तब जितेंद्र प्रसाद के तीन मूर्ति मार्ग स्थित बंगले से सारा अभियान चलता था। यह बात और है कि उनके बेटे जितिन प्रसाद अब राहुल गांधी के नजदीकी और सहयोगी हैं।

चुनौती राहुल गांधी को भी किसी ने नहीं दी है। अलबत्ता टीवी चैनलों पर कांग्रेस का पक्ष रखते रहे महाराष्ट्र कांग्रेस के सचिव शहजाद पूनावाला ने उनके निर्वाचन पर जरूर सवाल उठाया था और उसे नाटक करार दिया था। जिसके बाद उन्हें कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। राहुल गांधी के पक्ष में 89 सेट में नामांकन दाखिल किया गया। उनके विरोध में किसी ने पर्चा तक दाखिल नहीं किया। इतनी बड़ी पार्टी में ऐसा होना उनकी लोकप्रियता ही है या परिवार की तानाशाही, इस पर विचार करने से पहले राहुल गांधी के ही दो बयानों को याद किया जाना चाहिए। पिछले दिनों अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान राहुल ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच एक भाषण दिया था। जिसमें उन्होंने अपने वंशवाद को सही साबित करते हुए कहा था कि भारत वंशवाद से ही चल रहा है। इसके लिए उन्होंने मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव से लेकर तमिलनाडु के नेता करुणानिधि के बेटे स्टालिन तक का तो नाम लिया ही, उन्होंने अभिषेक बच्चन को भी वंशवाद के प्रतिनिधि के तौर पर रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि पूरा देश ही ऐसे चल रहा है लिहाजा सिर्फ उनको वंशवाद के आधार पर लक्षित करने की जरूरत नहीं है। जबकि इसके पहले 2008 में उत्तराखंड के जिम कार्बेट में छात्रों से बात करते हुए राहुल गांधी ने कहा था, ‘मैं अगर अपने परिवार से नहीं आता तो यहां नहीं होता। आप अपने परिवार, मित्र या पैसे के बल पर सिस्टम में प्रवेश कर सकते हैं। मेरे पिता राजनीति में थे, मेरी दादी और दादी के पिता राजनीति में थे, इसलिए मेरे लिए राजनीति में आना और पैर जमाना आसान था। ये एक समस्या है और मैं इस समस्या का लक्षण हूं। मैं इसे बदलना चाहता हूं।’ ऐसे में तो सवाल उठेंगे ही… आखिर राहुल की वह सोच और उनका संकल्प कहां गया….!