अमीश त्रिपाठी।

तीन चार साल पहले की बात है। एक दक्षिण भारतीय नेता ने एक उत्तर भारतीय नेता पर आर्य हमलावर होने का इल्जाम लगाया। पहले तो मेरा मन हुआ कि इसे एक और सियासी पैंतरा मानकर नजरअंदाज कर दूं। आखिर नेता वही करते हैं जा उन्हें करना होता है। कुछ तुर्क/मंगोल हमलावरों की निंदा करते हैं, तो कुछ ब्रिटिश हमलावरों की, और फिर कुछ ऐसे भी हैं जो आर्य हमलावरों की बात करते हैं। यह आजाद देश है; लोग अतीत के मिलेजुले हमलावरों के खिलाफ द्वेष पाल सकते हैं। इसके बावजूद इक्कीसवीं सदी में रह रहे भारतीयों से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। यह साफ है।
हालांकि, मुझे हैरानी इस नेता के बिना किसी शक के आर्यांे के हमले की अवधारणा पर विश्वास करने पर है। यह अवधारणा क्या है? इतिहास की किताबें हमें बताती हैं कि सिंधु या हड़प्पा सभ्यताकालीन लोग गहरी रंगत वाले द्रविड़ (यह नाम बाद में जोड़ा गया था; पहले तो उन्हें ‘मूल निवासी’ कहा जाता था) थे जिन पर करीब 3500 साल पहले मध्य एशिया/पूर्वी यूरोप के श्वेत वर्ण वाले आर्यांे ने हमला किया था। हमें बताया जाता है कि आर्यांे ने द्रविड़ों का नरसंहार किया और फिर बचे-खुचे द्रविड़ों को दक्षिण की ओर ठेल दिया, आजाद धरती पर कब्जा किया, अनेक संस्कृत ग्रंथों के साथ ही वेदों की भी रचना की। द्रविड़ों का दमन करने के लिए उन्होंने जाति प्रथा भी ईजाद की। आर्यांे के हमले की यह अवधारणा ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भी रुची जो प्राचीन कहानी दोहरा रहे नए श्वेत हमलावरों की नई खेप की ‘रुमानी’ समानता से चमत्कृत थे। आर्यांे के हमले की अवधारणा बहुत हद तक भाषाओं के अध्ययन पर आधारित है। उपनिवेश युग के यूरोपीय विद्वानों को संस्कृत और ईरानी/यूरोपीय भाषाओं के बीच जबरदस्त समानताएं दिखीं, जिससे समान स्रोत या आपसी मेलजोल का आभास हुआ। इस रोचक खोज की व्याख्या करने के लिए अनेक धारणाएं सामने आर्इं, जिनमें से एक आर्यांे के हमले की अवधारणा थी। एक और अवधारणा भारत से बाहर जाने की थी, जिसका मानना था कि लोग अपनी जन्मभूमि भारत को छोडकर उत्तर-पश्चिमी दिशा में गए और अपने साथ अपनी भाषा को भी ले गए। और भी कई अवधारणाएं थीं। बदकिस्मती से, भाषाओं पर वापसी का पता नहीं होता, इसलिए इन अवधारणाओं के समर्थन में लोग अनेक तर्क जुटा सकते हैं। कुछ लोग भाषाविज्ञान को एक विज्ञान मानते हैं (अनेक लोग इससे असहमत हैं), लेकिन दूसरे, ज्यादा कठिन वैज्ञानिक शास्त्रों की तुलना में इसमें अंतर्निहित सीमाएं हैं। भाषाविज्ञान पर आधारित अवधारणाओं की अनेक व्याख्याएं की जा सकती हैं। दुर्भाग्य से, इस क्षेत्र में होने वाली चर्चाएं भी हमारे सामान्य ‘परिपक्व’ अंदाज में आयोजित की जाती हैं (व्यंग्य चेतावनी)। भाषाविज्ञान प्रेरित इतिहासकार सार्वजनिक तौर पर और विद्वतापूर्ण रवैये के साथ बहस करने के बजाय गालीगलौज पर उतर आते हैं। अशिष्टता से और बहुतायत में अपमानजनक बातें कही जाती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
अपनी प्रकृति के अनुरूप भाषाविज्ञान विरोधाभासी अटकलबाजियों के लिए राह खोल सकता है, लेकिन खुशकिस्मती से आर्य हमलावरों के मुद्दे का आकलन करने में मदद करने के लिए आज दूसरे वैज्ञानिक शास्त्र भी मौजूद हैं। पुरातत्व स्थलों की खुदाई और प्राप्त वस्तुओं/शारीरिक अवशेषों के विश्लेषण के जरिए इतिहास का आकलन करते हैं। आक्रमणकारी विनाश की एक लकीर छोड़ जाते हैं; तो अगर कोई हमला हुआ होता तो इसका कोई न कोई पुरातात्विक साक्ष्य जरूर होता। दुर्भाग्य से, आर्यांे के हमले की अवधारणा के समर्थकों के लिए 3500 साल पहले कोई हिंसक हमला होने के कोई विश्वसनीय पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं। अपनी अवधारणा के तले से जमीन खिसकती देखकर आर्यांे के हमले के कुछ प्रस्तावकों ने यूटर्न लिया और आर्यांे के आप्रवास की एक नई अवधारणा रखी… यानी, तथाकथित आर्य शांतिपूर्वक भारत में दाखिल हुए और सिंधु घाटी में तथाकथित रूप से भारी तादाद में रह रहे द्रविड़ स्वयं ही दक्षिण की ओर चले गए। अगर यह सच होता तो उस समय भारत में पूर्वी यूरोपियों/मध्य एशियाइयों का जबरदस्त रेला आया होता, है न? जो कि आनुवंशिक रिकॉर्डों में नजर आता?
दुर्भाग्य से, (अब) आर्य आप्रवासन अवधारणा के समर्थकों के लिए आनुवंशिक विज्ञान इस परिकल्पना को नकारता है। पिछले कुछ सालों में नेचर और अमेरिकन जर्नल आॅफ ह्यूमन जेनेटिक्स जैसे वैज्ञानिक जर्नलों में भारतीय आनुवंशिकी पर प्रकाशित पेपर्स एक बात पर सहमत हैं: 3500 साल पहले भारतीय जीन पूल में कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई थी!
तो अब निष्कर्ष निकालते हैं: आर्यांे के हमले/आर्यांे के आप्रवासन की अवधारणा के समर्थकों ने हमसे यह विश्वास करने को कहा कि आर्य नाम के खानाबदोश लोगों का एक छोटा सा समूह था जो 3500 साल पहले भारत आया था। यह इतना छोटा सा समूह था कि किसी पुरातात्विक या आनुवंशिक रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हुआ। और यह छोटा सा समूह किसी विशाल स्तर की हिंसा में लिप्त नहीं हुआ। मगर किसी तरह से इन मिथकीय सुपरमैनों ने शांतिपूर्वक, कहीं ज्यादा आबादी वाले, उन्नत और शहरी द्रविड़ों को सामूहिक रूप से दक्षिण कूच कर जाने के लिए राजी कर लिया था। संभवत: उन्होंने तथाकथित द्रविड़ों से अपने घर छोड़कर जाने को कहा होगा। और ऐसा करते हुए इन खानाबदोश ‘बर्बर आर्यांे’ ने भारत के सारे भाषाई और सांस्कृतिक परिदृश्य को बदल डाला। इसके अलावा, यह तथाकथित विदेशी संस्कृति इतने व्यापक रूप से जज्ब हो गई कि हजारों साल बाद भी सारे देश में आज तक बरकरार है। वाकई, क्या इसमें कोई तर्क नजर आता है? एक और विरोधाभास पर विचार करें जिसे हमसे बिना सवाल किए हजम करने की अपेक्षा की जाती है: तथाकथित द्रविड़ों ने जिन्होंने अपने समय की महानतम सभ्यता का निर्माण किया था (जिसे आज हड़प्पा/सिंधु सभ्यता कहते हैं), उन्होंने कोई साहित्य नहीं छोड़ा। दूसरी ओर, इन खानाबदोश-बर्बर आर्यांे ने, जिनके पास कोई स्थायी आवास नहीं था, उस युग के सबसे विशाल साहित्य, दार्शनिक और तकनीकी पुस्तकों की रचना की। इन जबरदस्त विरोधाभासों का मेल करने के लिए इतिहास के आख्यानों का निर्माण करना जलेबी बनाने से भी ज्यादा पेचीदा है। ओकमस रेजर सिद्धांत, ज्यादा सरल स्पष्टीकरण ही संभवत: सही होता है, का पालन करते हुए : शायद आर्य नाम की कोई प्रजाति थी ही नहीं। हड़प्पा/सिंधु और वैदिक संस्कृतियां शायद एक ही रही थीं। और आज भारत, उत्तर और दक्षिण, के हम ज्यादातर लोग बहुत संभव है कि उसी संस्कृति के वंशज हैं।
भारतीय बच्चों को यह पढ़ाया जाना चाहिए कि बहुत सारे (भारतीय ही नहीं, बल्कि विश्व के) इतिहासकारों को आर्यांे के आक्रमण की अवधारणा पर गंभीर और विश्वसनीय संदेह हैं। पुरातत्व और आनुवंशिकी विज्ञान पर आधारित इन वैकल्पिक अवधारणाओं, जो प्राय: आर्यांे के आक्रमण की अवधारणा का समर्थन नहीं करती हैं, को भी पढ़ाया जाना चाहिए। फिर छात्रों को, साथ ही भावी पीढ़ियों को भी, अपना मत बनाने देना चाहिए।
जहां तक मेरी बात है तो मैं तो उससे सहमत हूं जो एक बार एक यूरोपीय मित्र ने कहा था, कि- शेक्सपीयर के बेहतरीन नाटकों के बाद, आर्यांे के आक्रमण की अवधारणा यूरोपीयों द्वारा गढ़ी गई बहुत जबरदस्त कपोल-कथा है। शायद अब किताब को बंद कर देने का वक्त आ गया है। 