अनूप भटनागर

पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ आतंकवाद सहित कई मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद भ्रष्टाचार के मामले में वहां की न्यायपालिका द्वारा पेश नजीर से हम अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भ्रष्टाचार और आपराधिक तत्वों से मुक्त कराने के अभियान में सबक तो ले ही सकते हैं। पनामा पेपर्स लीक में न्यायिक व्यवस्था के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य ठहराए गए नवाज शरीफ को यदि वहां की शीर्ष अदालत इसी आधार पर उन्हें अपनी पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए अयोग्य करार दे सकती है तो भारत में भी इस दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकते हैं।

पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत ने चुनाव कानून, 2017 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर अपनी व्यवस्था में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 के तहत अयोग्य व्यक्ति राजनीतिक दल का मुखिया नहीं बन सकता। पकिस्तानी शीर्ष अदालत के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने इस कानून को निरस्त करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि पार्टी अध्यक्ष के लिए अनुच्छेद 62 और 63 में प्रदत्त अनिवार्यताओं को पूरा करना जरूरी है और अयोग्य घोषित व्यक्ति राष्ट्रीय असेम्बली या सीनेट के लिए किसी भी प्रत्याशी के नामांकन कागज पर दस्तखत नहीं कर सकता है। इस व्यवस्था के बाद नवाज शरीफ के लिए पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना मजबूरी हो गई। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि इसी अदालत ने पिछले साल नवाज शरीफ को पनाना पेपर्स लीक मामले में उनकी भूमिका को लेकर उन्हें अयोग्य घोषित किया था।

यह भी एक संयोग है कि भारत की सर्वोच्च अदालत ने सजायाफ्ता नेताओं के पार्टी के मुखिया या पदाधिकारी बनने और चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन पर 12 फरवरी को गहरी चिंता जताई थी। इसके एक सप्ताह के भीतर ही अयोग्य व्यक्ति के पार्टी की कमान संभालने के मुद्दे पर सीमा पार की सर्वोच्च अदालत का फैसला आ गया। हालांकि हमारे देश के जन-प्रतिनिधित्व कानून में भी सजायाफ्ता व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर पाबंदी का प्रावधान है। इसके बावजूद सांसदों और विधायकों की सदस्यता बची रहती थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट की एक व्यवस्था ने इन्हें संरक्षण प्रदान करने वाला प्रावधान निरस्त कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अदालत से दोषी ठहराए जाने के साथ ही सांसद और विधायक की सदस्यता भी खत्म होने लगी। जन-प्रतिनिधित्व कानून में प्रावधान है कि आपराधिक मामलों में दो साल या इससे अधिक की सजा पाने वाला व्यक्ति जेल में यह दंड भुगतने के बाद अगले छह साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य है।

पनामा पेपर्स मामले में अयोग्य ठहराए जाने के बावजूद पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के अध्यक्ष पद पर नवाज शरीफ के काबिज रहने से उठे सवालों की तरह ही भारत की शीर्ष अदालत में भी एक जनहित याचिका में इस तरह के सवाल उठाए गए हैं। अब सवाल यह उठता है कि आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने और कम से कम दो साल की सजा भुगतने वाला व्यक्ति यदि चुनाव लड़ने के अयोग्य है तो फिर वह राजनीतिक दल का मुखिया कैसे बना रह सकता है? यह सवाल बेहद अहम है क्योंकि जन-प्रतिनिधित्व कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके तहत निर्वाचन आयोग दोषी को राजनीतिक दल का मुखिया बनने से रोक सके।

ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या किसी सजायाफ्ता व्यक्ति को राजनीतिक दल का अध्यक्ष बनने से रोका जा सकता है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि अदालत से सजा मिलने के बाद जेल में बंद कुछ नेता अभी भी अपने राजनीतिक दलों के मुखिया बने हुए हैं और वे अपनी पार्टी और कार्यकर्ताओं को निर्देश देते रहते हैं। सजायाफ्ता नेताओं को राजनीतिक दल गठित करने या फिर उसका पदाधिकारी बनने से प्रतिबंधित करने और उम्र भर के लिए राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने से वंचित करने का निर्देश देने के अनुरोध के साथ दिल्ली प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। इसी जनहित याचिका पर पिछले महीने सुनवाई के दौरान यह सवाल प्रमुखता से उठा।

इस याचिका में दोष साबित होने के आधार पर जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8, 8ए, 9ए, 10 या 10ए के तहत चुनाव लड़ने की अयोग्यता या इस कानून की धारा 11ए के तहत मतदान के अयोग्य अथवा धारा 41 के तहत चुनाव एजेंट बनने के अयोग्य अथवा धारा 62 के तहत मतदान का अधिकार गंवाने की अयोग्यता की अवधि के दौरान ऐसे व्यक्ति को राजनीतिक दल गठित करने या उसका पदाधिकारी बनने से प्रतिबंधित करने का अनुरोध किया गया है। इस मामले की सुनवाई के दौरान एक दिसंबर, 2017 को याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए की व्याख्या की आवश्यकता पर जोर दिया था। उनका तर्क था कि जन-प्रतिनिधित्व कानून के कुछ प्रावधान लोगों को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराते हैं। इसलिए विशेष रूप से आपराधिक कानून के तहत सजा मिलने के कारण अयोग्य व्यक्तियों को धारा 29ए का लाभ प्राप्त करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने आश्चर्य के साथ टिप्पणी की कि सजायाफ्ता नेताओं का राजनीतिक दलों का मुखिया होना चिंता की बात है। इसके साथ ही न्यायालय ने जानना चाहा कि सजायाफ्ता नेता लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए उम्मीदवारों का चुनाव कैसे कर सकते हैं? यही नहीं, पीठ ने यह सवाल भी किया कि यदि एक दोषी जन-प्रतिनिधित्व कानून के तहत चुनाव लड़ने के अयोग्य है तो वह किसी राजनीतिक दल का मुखिया कैसे हो सकता है या फिर नया राजनीतिक दल कैसे बना सकता है और चुनाव लड़ने के लिए अपनी पार्टी के प्रत्याशियों का चयन कैसे कर सकता है? शीर्ष अदालत द्वारा सुनवाई के दौरान उठाए गए ये सवाल और टिप्पणियां कमोबेश पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के आसपास ही लगती है। ऐसी स्थिति में यह देखना अधिक महत्वपूर्ण होगा कि इस याचिका का निपटारा कितनी जल्दी होता है और इसमें सुनाए जाने वाले फैसले के दायरे में किस प्रकार के दल और व्यक्ति आएंगे।

हालांकि इन सवालों पर सरकार और निर्वाचन आयोग ही नहीं बल्कि राजनीतिक दलों को भी अपनी स्थिति से न्यायालय को अवगत कराना पड़ सकता है लेकिन इन दो-तीन बिन्दुओं पर आने वाले समय में दिलचस्प बहस की संभावना है। इस याचिका पर न्यायालय ने निर्वाचन आयोग का पक्ष जानना चाहा तो उसने चुनाव सुधारों के प्रयासों के बारे में हलफनामे में विस्तार से अपना पक्ष रखा है लेकिन दोषी को राजनीतिक दल का मुखिया बनने के अयोग्य ठहराने जैसे मुद्दे पर अपना रुख पूरी तरह साफ नहीं किया है। हालांकि आयोग के वकील ने जोर देकर कहा था कि वह तो 1998 से ही इसके पक्ष में है मगर निर्वाचन आयोग के पास चुनाव लड़ने के अयोग्य व्यक्ति को राजनीतिक दल का मुखिया बनने से रोकने या इस पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार नहीं है। हां, संसद अगर जन-प्रतिनिधित्व कानून में अपेक्षित संशोधन करती है तो आयोग निश्चित ही इस दिशा में प्रभावी कदम उठाएगा।

ऐसी स्थिति में यह बात तो समझ में आ रही है कि चुनाव लड़ने के अयोग्य व्यक्ति के राजनीतिक दल का मुखिया या पदाधिकारी बनने के अयोग्य घोषित करने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने या फिर संसद द्वारा जन-प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के बाद आयोग उस पर अमल करने के लिए प्रभावी कदम उठाएगा। इस मामले में हालांकि निर्वाचन आयोग ने जन-प्रतिनधित्व कानून की धारा 29ए के प्रावधान की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया है। आयोग का कहना है कि उसे राजनीतिक दल को पंजीकृत करने का अधिकार तो प्राप्त है लेकिन किसी भी पंजीकृत दल का पंजीकरण निरस्त करने का उसे अधिकार नहीं है। हां, सुप्रीम कोर्ट की एक व्यवस्था के तहत कुछ परिस्थितियों में मान्यता रद्द करने का आदेश दे सकता है। राजनीतिक दल का पंजीकरण निरस्त करने का अधिकार आयोग को देने के लिए संबंधित कानून में आवश्यक संशोधन करना होगा जो सिर्फ संसद कर सकती है। निर्वाचन आयोग ने न्यायालय को सूचित किया है कि उसके यहां पंजीकृत कई राजनीतिक दल चुनाव में हिस्सा ही नहीं लेते हैं। आयोग ने अपने हलफनामे में कहा है कि इस समय 650 से अधिक राजनीतिक दल पंजीकृत हैं लेकिन 1998 के चुनाव में करीब 150 राजनीतिक दलों ने ही हिस्सा लिया था। इसी तरह की स्थिति 1991 और 1996 में भी थी। यही नहीं, 2016 में तो निर्वाचन आयोग ने उन राजनीतिक दलों की पहचान का अभियान भी चलाया था जिन्होंने 2005 से 2015 के दौरान कोई भी चुनाव नहीं लड़ा था। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए आयोग ने जब इन पंजीकृत राजनीतिक दलों के अस्तित्व में होने और उनके कामकाज के बारे में पता करना शुरू किया तो मालूम हुआ कि कई तो अभी मौजूद ही नहीं हैं। इनके सत्यापन में भी कई का कोई अता पता नहीं था। ऐसी स्थिति में हालांकि आयोग ने फरवरी, 2016 से दिसंबर, 2016 के दौरान 255 पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त दलों को सूची से बाहर कर दिया।

वैसे तो निर्वाचन आयोग चुनाव सुधारों के बारे में 1998 से ही केंद्र सरकार के पास सिफारिशें भेज रहा है लेकिन इन पर विचार की रफ्तार बेहत धीमी है। शायद इसलिए कि कोई भी राजनीतिक दल व्यापक चुनाव का हिमायती नहीं है। चुनाव सुधारों के प्रति सरकार और राजनीतिक दलों की गंभीरता का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि निर्वाचन आयोग ने 30 जुलाई, 2004 को 22 सिफारिशें सरकार के पास भेजी थीं जिन्हें एक साल बाद यूपीए सरकार ने संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया था। संसद की स्थायी समिति ने अगस्त, 2013 में अपनी 61वीं रिपोर्ट में सारे तथ्यों और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सिफारिश की थी कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त करने का प्रावधान जन-प्रतिनिधित्व कानून में शामिल किया जाए। इस संबंध में विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट में भी जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29 में संशोधन कर कुछ नई उपधाराएं शामिल करने की सिफारिश की थी।

इसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडंबना ही कहा जाएगा कि चुनाव सुधारों के लिए निर्वाचन आयोग के सुझावों पर सरकार और राजनीतिक दल चुप्पी साध लेते हैं और हर बार शीर्ष अदालत को ही इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है। हाल ही में न्यायालय ने एक और महत्वपूर्ण व्यवस्था में कहा कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को अपनी पत्नी और आश्रित संतानों की आमदनी के स्रोत की भी जानकारी देनी होगी। यह न्यायिक व्यवस्था का ही परिणाम है कि पिछले करीब दो दशक के दौरान प्रत्याशियों को नामांकन पत्र के साथ अपनी शैक्षणिक योग्यता, अपनी पृष्ठभूमि, अदालत में लंबित आपराधिक मामलों, अपनी और पत्नी की चल-अचल संपत्ति और कर्ज, यदि है, आदि का ब्योरा देना पड़ रहा है। अब तो कोई भी प्रत्याशी नामांकन पत्र में कोई भी स्थान रिक्त नहीं छोड़ सकता है।

फिलहाल इस मामले में निगाहें आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने की वजह से चुनाव लड़ने के अयोग्य नेताओं के राजनीतिक दलों के मुखिया या पदाधिकारी बने रहने पर प्रतिबंध लगाने के सवाल पर 23 मार्च से होने वाली सुनवाई की ओर लगी हैं। अब देखना यह है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाहुबल और धनबल से मुक्त कराने की दिशा में समय समय पर ऐतिहासिक व्यवस्था देकर चुनाव प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने वाली हमारी सर्वोच्च अदालत इस बार चुनाव लड़ने के अयोग्य नेताओं के पार्टी मुखिया बनने पर प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था देती है या फिर मौजूदा खामियों से निपटने के लिए धारा 29ए की सुविचारित व्याख्या करके ऐसे तत्वों की गतिविधियों को सीमित करती है। लेकिन इतना तो निश्चित है कि इस मामले में विस्तृत सुनवाई के बाद आने वाली व्यवस्था देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी व स्वच्छ बनाने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है।