प्रदीप राजपूत।

मथुरा के जवाहर बाग के पूरे घटनाक्रम से कुछ महत्वपूर्ण सवाल उभरते हैं कि आखिर रामवृक्ष यादव कौन था? क्या वह बाबा जयगुरुदेव का शिष्य था या नक्सली? उसकी मांगें क्या थीं? वह आखिर जवाहर बाग में पिछले करीब ढाई साल से क्यों और कैसे जमा हुआ था? क्या अभी भी उसका जय गुरुदेव आश्रम से कोई संबंध था? क्या स्थानीय पुलिस प्रशासन उसकी ताकत का अंदाजा लगाने में विफल रहा? क्या उनकी ओर से कोई चूक या लापरवाही हुई? क्या पुलिस प्रशासन द्वारा वास्तव में आॅपरेशन शुरू किया गया था? क्या शासन स्तर से इस मामले में अनदेखी हुई? क्या रामवृक्ष को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था? उसे धन कहां से मिलता था?

इन सवालों के जवाब के लिए उन परिस्थितियों पर नजर डाली जाए जिनसे ये उपजे हैं तो हो सकता है कि कुछ सवालों के जवाब शायद उसी प्रक्रिया में मिल जाएं। जानकारी के मुताबिक रामवृक्ष यादव प्रसिद्ध सन्त बाबा जयगुरुदेव का काफी समय तक अनुयायी रहा। उनके एक अनुयायी 80 वर्षीय हरी सिंह चौहान 1969 से निरंतर बाबा से जुड़े रहे हैं। कुछ महीने पहले ही वृद्धावस्था के कारण वह बाबा का आश्रम छोड़कर अपने पुत्र के साथ रह रहे हैं। वह बताते हैं कि आपातकाल लगने से कई वर्ष पूर्व ही रामवृक्ष यादव बाबा जयगुरुदेव का अनुयायी बन चुका था और टाट (बोरा) के कपड़े पहनता था। बाबा का अनुयायी होने के कारण उनके तमाम शिष्यों की तरह वह भी आपातकाल में जेल गया था।

बाबा के तत्कालीन शिष्यों में रामवृक्ष की छवि पढ़े-लिखे, तेज-तर्रार व अड़ियल, आक्रामक व निरंकुश व्यक्ति की थी। उसकी संस्था विरोधी गतिविधियों के कारण नब्बे के दशक में बाबा ने टाट के कपड़े उतरवा कर उसे बाहर निकाल दिया। टाट के कपडे उतरवाने का अर्थ है कि वह व्यक्ति अब बाबा जयगुरुदेव का शिष्य नहीं रहा। वह पूरी तरह से बाबा और उनके संगठन का विरोधी हो गया। उस समय के बाद से बाबा व उनके करीबी शिष्यों ने रामवृक्ष से कोई संबंध नहीं रखा।

रामवृक्ष एक आक्रामक वक्ता और अच्छा संगठनकर्ता था। उसने बाबा जयगुरुदेव की संस्था में रहकर संगठन बनाने व संचालित करने का ढंग गहराई से सीख लिया था। इसलिए उसने खुद का संगठन बनाया और हजारों लोगों को अपना अनुयायी बना लिया। यहां यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि उसके अधिकांश अनुयायी बाबा जयगुरुदेव के ही अनुयायी थे, जिन्हें उसने अपने शब्दजाल में फंसाकर साथ कर लिया था। यही वजह है कि बाबा से संबंध विच्छेद होने के बावजूद अनुयायियों के स्तर पर उसका संबंध बना रहा। रामवृक्ष यादव नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर स्वाधीन भारत सुभाष सेना व स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह नामक संगठन खड़े कर अपनी गतिविधियों को संचालित करता रहा। उसके स्वभाव के मुताबिक ही उसके साथी अनुयायी गुस्सैल व अड़ियल थे। 2011 में अपनी उटपटांग मांगों को लेकर करीब पांच सौ अनुयायियों के साथ वह यात्रा पर निकला था। इसी दौरान मथुरा स्थित जयगुरुदेव आश्रम पर उसने हंगामा किया। इसकी एफआईआर भी दर्ज हुई।

18 मई 2012 को बाबा जयगुरुदेव के निधन के बाद उनकी विरासत को लेकर विवाद शुरू हो गया। उनके एक शिष्य उमाकांत तिवारी व उनके निजी ड्राइवर पंकज यादव द्वारा वारिस होने का दावा किया गया। इस लड़ाई में पंकज यादव विजयी रहा। सपा की ‘सुप्रीम फैमिली’ द्वारा पंकज यादव को जबरन आश्रम पर काबिज कराये जाने की चर्चा आज तक होती है। हालांकि विरासत का असली दावेदार कौन है इसे लेकर मामला कोर्ट में चल रहा है। दूसरे दावेदार उमाकांत तिवारी ने सपा सरकार के विरोधी रुख को भांपकर उत्तर प्रदेश से बाहर मध्य प्रदेश के उज्जैन में अपना ठिकाना बना लिया। वह वहां अलग संस्था व ट्रस्ट बनाकर बाबा जयगुरुदेव के करीब एक-डेढ़ लाख अनुयायियों के सहारे अपनी साख मजबूत कर रहे हैं। जबकि मथुरा में पंकज यादव बाबा के अनुयायियों में खास पैठ नहीं बना सका। उनके महज कुछ हजार अनुयायी हैं।

बाबा जयगुरुदेव के ऐसे अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक है जो यह मानते हैं कि वह अभी जीवित हैं और लौटकर आएंगे। उनका मानना है कि दाह संस्कार बाबा के पुतले का किया गया था। सपा सरकार की वजह से बाबा छिपकर रह रहे हैं। इनका आध्यात्मिक नेतृत्व कानपुर देहात निवासी बाबा के एक शिष्य रतन बाबा कर रहे हैं। रतन बाबा के लोगों का दावा है कि वे करीब 8-10 लाख अनुयायियों को एक स्थान पर एकत्रित करने का दमखम रखते हैं और पंकज यादव व उमाकांत तिवारी के विरोधी हैं।

जयगुरुदेव संगत मथुरा के जिला अध्यक्ष बताते हैं कि बाबा की विरासत का मामला कोर्ट में विचाराधीन है। वह और उनके साथी बाबा द्वारा स्थापित जयगुरुदेव धर्म प्रचारक संघ ट्रस्ट व जयगुरुदेव धर्म प्रचारक संस्था (रजिस्टर्ड सोसायटी) के संचालन को व्यवस्थित व पुनर्गठित करने के लिए मुकदमा लड़ रहे हैं। उनका कहना है कि रामवृक्ष यादव ने आज तक कहीं भी और किसी भी स्तर पर बाबा जयगुरुदेव का उत्तराधिकारी होने का दावा नहीं किया। मीडिया में इस तरह की जो खबरें चली हैं वह गलत है।

रामवृक्ष यादव बाबा जयगुरुदेव के मृत्यु प्रमाण पत्र की मांग व अन्य कई ऊटपटांग मांगों को लेकर कुछ सौ समर्थकों के साथ मार्च 14 में मध्य प्रदेश के सागर से दिल्ली की ओर निकला। मथुरा पहुंचने पर वह बाबा जयगुरुदेव के मृत्यु प्रमाण पत्र की मांग को लेकर जवाहर बाग में धरने पर बैठ गया। इस दौरान रामवृक्ष और उसके साथियों ने काफी हंगामा किया। जिला प्रशासन ने जल्द ही उसे मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध करा दिया। मगर अपने साथियों के साथ वह जवाहर बाग में जमा रहा। पूरे घटनाक्रम का टर्निंग प्वाइंट यही है कि मृत्यु प्रमाण पत्र मिलने के बाद भी आखिर क्यों उसने वहीं जमने का फैसला किया और अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाता रहा।

जिला प्रशासन और शासन के बीच हुए पत्राचार पर गौर करें तो 15 अगस्त 2014 को मथुरा के जिलाधिकारी ने राज्य के मुख्य सचिव को भेजे पत्र में सत्याग्रहियों की संख्या 800-900 बताई थी। बाद के पत्राचारों में यह संख्या दो-तीन हजार तक पहुंच गई। जिला प्रशासन की ओर से कई बार शासन को पत्र भेजे गए। इन पत्रों में रामवृक्ष यादव और उसके साथियों के उत्पात का जिक्र करते हुए उन्हें हटाने की अनुमति मांगी गई। लेकिन शासन के आला अधिकारी इस पर चुप्पी साधे रहे और निष्क्रिय बने रहे। इस दौरान रामवृक्ष और उसके साथियों से कई बार वार्ता करने जवाहर बाग पहुंचे पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को बंधक बनाकर पीटा गया लेकिन शासन फिर भी खामोश रहा। सिर्फ स्थानीय पुलिस प्रशासन ही उनसे जूझता रहा।

इसी दौरान मई 2015 में मथुरा बार एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष विजयपाल तोमर ने जवाहर बाग खाली कराए जाने को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की। 20 मई को हाई कोर्ट ने जवाहर बाग को खाली कराने का आदेश पारित कर दिया। इसके बावजूद शासन की ओर से इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। जनवरी 2016 में तोमर ने जब अदालत के आदेश की अवमानना की याचिका दाखिल की तब जाकर जिला प्रशासन व शासन के बीच सरगर्मी बढ़ी। पिछले कुछ महीनों से स्थानीय पुलिस व प्रशासन की ओर से रामवृक्ष और उसके साथियों को बार-बार चेतावती दी जा रही थी। उन पर मानसिक दबाव भी बढ़ाया जा रहा था ताकि रामवृक्ष के जो साथी वहां से निकलना चाहें उन्हें सुरक्षित बाहर निकाला जा सके।

रामवृक्ष ने जगह खाली करने की बजाय अपने अनुयायियों को सूचना भेजकर दूसरी जगहों से बुलाना शुरू कर दिया और अपनी संख्या काफी बढ़ा ली। इस बात की जानकारी स्थानीय खुफिया विभाग को भी थी। दो जून को पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी जवाहर बाग को खाली कराने की तैयारी का जायजा लेने पहुंचे तो रामवृक्ष के लोगों ने लाठी-डंडों व गोलियों से पुलिस पर हमला कर दिया। इस हमले में सिटी एसपी मुकुल द्विवेदी गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें बचाने पहुंचे दारोगा संतोष यावद की गोली लगने से मौके पर ही मौत हो गई। रामवृक्ष के लोग पेड़ों पर चढ़कर पुलिस पर गोलियां चला रहे थे।

मौके पर मौजूद लोगों की बातों पर यकीन करें तो एसपी सिटी पर हमले के बावजूद वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने जवानों को जवाबी कार्रवाई का आदेश नहीं दिया। संतोष यादव की मौत से पुलिस फोर्स में आक्रोश बढ़ने के बाद ही एक्शन शुरू हुआ। इस घटनाक्रम से यह तथ्य स्पष्ट है कि अंत तक पुलिस को आॅपरेशन शुरू करने का आदेश शासन से नहीं मिला था। साथ ही करीब ढाई साल तक जवाहर बाग में जमे रहने के दौरान ही रामवृक्ष यादव की ताकत बढ़ी। लब्बोलुआब यह है कि इन दोनों के लिए जिम्मेवार शासन के आला अधिकारियों की रहस्मय खामोशी रही। यह खामोशी उनकी

लापरवाही की वजह से थी या किसी दबाव की वजह से, यह जांच का विषय है।

जहां तक सवाल उसकी फंडिंग का है तो उसके समर्थक आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं दिखते कि हजारों लोगों के राशन पानी व अन्य खर्चों को उठा सकें। यह तब और मुश्किल हो जाता है जब उसके अधिकांश समर्थक जवाहर बाग में जमे थे और बाहर से मदद नहीं ला सकते थे। नक्सली मदद की बात ध्यान भटकाने के मकसद से फैलाई गई मालूम होती है। इसका मकसद असली मददगार को छुपाना हो सकता है। यदि असली मददगार की पहचान हो जाए तो रामवृक्ष के मंसूबों की जानकारी भी सामने आ जाएगी। वैसे जवाहर बाग में आॅपरेशन के बाद पुलिस को मिली जयगुरुदेव आश्रम मथुरा की चंदे की रसीदें कुछ संकेत देने को काफी हैं। इस मामले में आम लोग जिस त्रिसूत्र की चर्चा कर रहे हैं, वह बाबा के कथित वारिस पंकज यादव, सूबे की सत्ता पर काबिज यादव परिवार और रामवृक्ष यादव खुद हैं। इसका पता तो निष्पक्ष जांच के बाद ही चलेगा।

स्थानीय पुलिस प्रशासन स्तर पर हुई लापरवाही को देखें तो दो जून को भीषण घटनाक्रम के दौरान छोटी-मोटी चूक ही सामने आ रही है जिनका ज्यादा महत्व नहीं है। यदि आॅपरेशन शुरू करने की अनुमति शासन से मिल गई होती तो शायद जनहानि भी कम होती और हो सकता है कि दोनों पुलिस अधिकारी आज जिंदा होते। गोलियों की बौछार के सामने सशस्त्र बलों को हाथ बांधकर खड़े होने को मजबूर करना, उन्हें मौत के मुंह में झोंकना है। आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी जो सूबे के आला अधिकारी कार्रवाई की अनुमति देने में लाचार थे। वह कौन सी ताकत थी जिसके दम पर सिरफिरा रामवृक्ष यादव पुलिस प्रशासन को बौना साबित किए हुए था। इस घटना से उपजे तमाम सवालों के जवाब राजनीति के पास ही हैं। नौकरशाही तो इन सवालों की गवाह मात्र है। ज्यादा संभावना तो यही है कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के शोर में कहीं ये सवाल ही दम न तोड़ दें।

घटना के बाद जवाहर बाग से भारी संख्या में मिले एलपीजी सिलेंडर और जिला प्रशासन की ओर से उन्हें लगातार की जा रही बिजली आपूर्ति से सरकारी संरक्षण के संकेत साफ मिलते हैं। यह संकेत तब और पुख्ता हो गए जब ये तथ्य भी सामने आया कि जवाहर बाग में रह रहे तमाम लोगों के राशन कार्ड भी बन गए थे। ऐसे में सवाल उठता है कि बिजली की आपूर्ति व राशन कार्ड का बनना क्या बिना सरकार के संभव है।