अनूप भटनागर
अयोध्या में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के सितंबर, 2010 के निर्णय के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में दायर अपीलों पर अभी विधिवत सुनवाई शुरू भी नहीं हुई है लेकिन इसे सिर्फ भूमि विवाद के रूप में लेने की शीर्ष अदालत की टिप्पणी के बाद अटकलों का बाजार गर्म हो गया है। इस मामले में धर्म, आस्था और राजनीति पर आधारित दलीलें शायद न्यायालय नहीं सुनेगा और किसी को ऐसा करने का मौका भी नहीं दिया जाएगा।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की तीन सदस्यीय विशेष खंडपीठ ने बहस के दौरान कानूनी पहलुओं पर जोर देते समय आवेश पर रोक लगाने के इरादे से आठ फरवरी को दो टूक शब्दों में कहा, ‘मामला चाहे जो भी हो, कुल मिलाकर यह एक भूमि विवाद है।’

यही नहीं, इस प्रकरण को लेकर किसी भी प्रकार के भ्रम को दूर करते हुए पीठ ने साफ किया कि इसका फैसला विवाद के लंबे इतिहास के आधार पर नहीं बल्कि साक्ष्यों के आधार पर ही किया जाएगा। शीर्ष अदालत इससे पहले भी कह चुकी है कि इस प्रकरण को दीवानी अपील के अलावा कोई अन्य शक्ल देने की इजाजत नहीं दी जाएगी और यहां भी वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जो उच्च न्यायालय ने अपनाई थी।
न्यायालय के इतने स्पष्ट संदेश के बावजूद यही लगता है कि 14 मार्च से शुरू होने वाली सुनवाई के दौरान माहौल गर्म ही रहेगा। इसका संकेत तो आठ फरवरी को सुनवाई के दौरान मिल गया है। हुआ यूं कि रामलला विराजमान की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सीएस वैद्यनाथन ने सुझाव दिया था कि बेहतर होगा यदि नियमित सुनवाई शुरू होने से पहले संबंधित पक्ष अपनी बहस की संभावित दिशा के बारे में संक्षेप में आदान प्रदान कर लें। लेकिन एक याचिकाकर्ता एम सिद्दीक की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने इससे असहमति जताते हुए कहा, ‘यह प्रकरण देश के लिए ही नहीं बल्कि दुनियाभर के लिए महत्वपूर्ण है और वह अपनी बहस की दिशा के बारे में दूसरे पक्ष को कोई जानकारी नहीं देंगे।

न्यायालय का ऐसा कहना सर्वथा उचित भी लगता है क्योंकि यह विवाद मोटे तौर पर 2.77 एकड़ भूमि को लेकर ही है। उच्च न्यायालय 30 सितंबर, 2010 के बहुमत के अपने फैसले में इसे पहले ही हिन्दू, मुस्लिम और राम लला की संयुक्त मालिकाना हक वाली भूमि घोषित कर चुका है। इसी के परिप्रेक्ष्य में उच्च न्यायालय ने भूमि को तीन बराबर हिस्सों में विभक्त करने और इसके एक एक हिस्से का इस्तेमाल पूजा के और इसके प्रबंधन के लिए करने का आदेश दिया है।

उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि विवादित ढांचे में मध्य गुंबद के नीचे, जहां इस समय अस्थाई मंदिर में मूर्ति रखी है, हिंदुओं को अंतिम डिक्री में आवंटित किया जाएगा जबकि निर्मोही अखाड़े को उस नक्शे में दिखाए गए राम चबूतरा और सीता रसोई वाले भाग सहित एक हिस्सा आवंटित किया जाएगा और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिलेगा।

उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार, सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा, अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और भगवान श्रीराम लला विराजमान और मूल याचिकाकर्ताओं और अपीलकर्ताओं के कानूनी उत्तराधिकारियों सहित 13 पक्षकारों ने अपील दायर की है। इस विवाद में सबसे पुराने वादी हाशिम अंसारी का 95 वर्ष की आयु में अयोध्या में निधन हो चुका है। इस मामले में हस्तक्षेप करने वाले भाजपा नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत हिन्दुओं के धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का मुद्दा उठाने का प्रयास किया है। इस बीच, उत्तर प्रदेश सेन्ट्रल शिया वक्फ बोर्ड ने शीर्ष अदालत में एक हलफनामे में बाबरी मस्जिद को शिया वक्फ की संपत्ति होने का दावा करके इस विवाद में एक नया आयाम जोड़ दिया है। हलफनामे में दावा किया गया है कि कथित रूप से कट्टरपंथी तत्वों के नेतृत्व वाले सुन्नी वक्फ बोर्ड ने इस संपत्ति पर अनधिकृत कब्जा कर रखा है। शिया वक्फ बोर्ड भी चाहता है कि इस विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाया जाए और विवादित स्थल से उचित दूरी पर मुस्लिम बहुल इलाके में मस्जिद निर्माण किया जा सकता है। हालांकि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने शिया वक्फ बोर्ड के दावे का प्रतिवाद किया है।

शीर्ष अदालत ने इस फैसले के खिलाफ दायर अपील मई 2011 को विचारार्थ स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय की बहुमत की व्यवस्था पर रोक लगा दी थी। अपील विचारार्थ स्वीकार करने वाली न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा, जो बाद में देश के प्रधान न्यायाधीश बने, की पीठ ने उच्च न्यायालय के निर्णय को बहुत ही विचित्र बताते हुए टिप्पणी की थी कि इसमें ऐसी राहत प्रदान की गई है जिसका अनुरोध किसी भी पक्ष ने नहीं किया था। न्यायालय ने उस दिन एक बार फिर सरकार द्वारा जनवरी, 1993 में अधिगृहीत 67.703 एकड़ भूमि के बारे में संविधान पीठ के अक्टूबर 1994 और 2002 के आदेश के अनुरूप यथास्थिति बनाए रखने का भी निर्देश दिया था। यह भी विडंबना ही है कि एक ओर सारा मामला शीर्ष अदालत में लंबित है लेकिन दूसरी ओर अयोध्या में बैठक कर मुस्लिम पक्षकार विवादित 2.77 एकड़ भूमि में से एक इंच भूमि भी न छोड़ने का राग अलाप रहे हैं। खबरों के अनुसार अयोध्या में हाल ही में इस प्रकरण के एक मुद्दई हाजी महबूब के घर हुई बैठक के बाद इनके चुनिन्दा नेताओं ने कहा कि मस्जिद की जमीन न तो छोड़ी जाएगी और न ही दी जाएगी।

सवाल यह है कि क्या इस तरह की बातें 130 साल से भी अधिक पुराने विवाद को बातचीत से सुलझाने में मददगार होंगी? क्या इस तरह की बयानबाजी तनाव नहीं बढ़ाएगी? न्यायालय की व्यवस्था आने से पहले यदि एक पक्ष इस तरह की बातें करता है तो फिर दूसरे पक्ष को असंयमित भाषा के इस्तेमाल से कैसे रोका जा सकेगा। अयोध्या में विवादित ढांचा 6 दिसंबर, 1992 को गिराए जाने की घटना के बाद राष्टÑपति ने 7 जनवरी, 1993 को अयोध्या प्रकरण में उच्चतम न्यायालय से राय मांगी थी। इसी मामले में संविधान पीठ ने बहुमत की राय में केंद्र द्वारा अयोध्या में अधिग्रहण संबंधी 1993 के कानून को सही ठहराया था। राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद करीब तीन दशकों से किसी न किसी रूप में शीर्ष अदालत आ रहा है। अयोध्या में शिला पूजन कार्यक्रम, कार सेवकों के अयोध्या कूच करने और विवादित ढांचे की पुख्ता सुरक्षा करने और अस्थायी मंदिर में विराजमान राम लला की पूजा-अर्चना और इसके आसपास की व्यवस्था जैसे मुद्दे न्यायालय के समक्ष आते रहे हैं।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 2 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद तत्कालीन पी वी नरसिंह राव सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से जनवरी, 1994 में संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय से इस सवाल पर राय मांगी थी कि क्या इस स्थान पर विवादित ढांचे के निर्माण से पहले कोई हिन्दू धार्मिक ढांचा या मंदिर था?

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 24 अक्टूबर, 1994 को इस सवाल पर राय देने से इनकार करते हुए इसे लौटा दिया था। संविधान पीठ का कहना था कि अयोध्या विवाद एक धार्मिक उन्माद है जो गुजर जाएगा। परंतु इसके लिए उच्चतम न्यायालय की गरिमा और प्रतिष्ठा के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है। लंबे अंतराल के बाद यह प्रकरण धीरे धीरे आगे बढ़ना शुरू हुआ है लेकिन इसमें अभी भी सारे दस्तावेज अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध नहीं हो सके हैं। शीर्ष अदालत भगवद्गीता और रामायण जैसे उन धार्मिक ग्रंथों को भी चाहती है जिनके कुछ अंशों को उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में शामिल किया है। न्यायालय भी चाहता है कि इस अत्यंत संवेदनशील मुद्दे का बातचीत के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान खोजने के प्रयास होने चाहिए। इसी उम्मीद में पिछले साल मई में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहड़ ने तो यहां तक कहा था कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक सदी से भी अधिक पुराने इस विवाद के समाधान के लिए पक्षकार यदि मध्यस्थों का चयन करते हैं तो वह प्रमुख मध्यस्थ के रूप में उनके साथ बैठने के लिए तैयार हैं। लेकिन भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि पहले भी अनेक प्रयास हो चुके हैं और अब इस विवाद को हल करने के लिए न्यायालय के हस्तक्षेप का वक्त है।

वैसे तो इस प्रकरण को लेकर अदालत में पहला मामला जनवरी, 1885 में पहुंचा था, जिस पर 24 दिसंबर, 1885 को फैसला भी आ गया था। इसके खिलाफ दायर अपील पर फैजाबाद की अदालत ने 18 मार्च 1886 को अपना फैसला सुनाया था। हालांकि अदालत ने इस फैसले में संबंधित पक्षों को यथास्थिति रखने का आदेश दिया था लेकिन इसमें यह भी लिखा था, ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दुओं द्वारा विशेषरूप से पवित्र मानी जाने वाली इस भूमि पर मस्जिद का निर्माण किया गया परंतु यह घटना 356 साल पहले हुई थी।’ तनातनी के बावजूद 22 दिसंबर, 1949 तक वहां यथास्थिति बनी रही थी। इसके बाद की घटना के बाद सारा विवाद फिर से शुरू हो गया था।
दिलचस्प बात यह है कि भूमि को इस तरह से विभक्त करने का निष्कर्ष एक अप्रैल, 1950 को दीवानी न्यायाधीश द्वारा पहले वाद में नियुक्त कमिश्नर शिव शंकर लाल द्वारा तैयार नक्शे के आधार पर निकाला गया था। उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार मुस्लिम पक्षकारों ने इन नक्शों में दर्शाए गए परिमाप पर कोई आपत्ति नहीं की थी लेकिन उसकी आपत्ति कमिश्नर द्वारा अपनी रिपोर्ट में विभिन्न हिस्सों को दिए गए नामों पर थी, मसलन-सीता रसोई, भंडार, हनुमान गढ़ी आदि। इन आपत्तियों को पहले वाद में 20 नवंबर, 1950 के आदेश में शामिल भी किया गया।

ऐसा लगता है कि इस मामले को शुद्ध रूप से भूमि विवाद बताकर शीर्ष अदालत ने धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिक सद्भाव, धर्म को राजनीति से अलग रखने और भाई चारे के नाम पर अपनी अपनी राजनीति करने की आस लगाए लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। हो भी क्यों न? आखिर प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले में हस्तक्षेप के लिए 32 प्रबुद्ध नागरिकों के आवेदनों के औचित्य पर सवाल उठाते हुए जानना चाहा है कि आखिर भूमि विवाद में तीसरे पक्ष की क्या भूमिका हो सकती है? इन आवेदनों के बारे में इस तरह की टिप्पणी करके न्यायालय ने संकेत दे दिया है कि इसकी आड़ में किसी को भी सांप्रदायिक तनाव पैदा करने या उन्माद फैलाने का अवसर नहीं मिलेगा। न्यायालय चाहता है कि इस मुद्दे को लेकर तनाव खत्म हो।

न्यायालय पहले ही राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद कराने का सुन्नी वक्फ बोर्ड का अनुरोध ठुकरा चुका है। इस तरह के आग्रह में कुछ पक्षों की असली मंशा की भी झलक मिलती है। एक बात समझ से परे है कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में श्याम बेनेगल, अपर्णा सेन, अनिल धारकड़ और तीस्ता सीतलवाड़ जैसे लोग क्यों हस्तक्षेप करना चाहते हैं? भूमि विवाद से संबंधित इस प्रकरण में तीसरे पक्ष के रूप में उनकी क्या भूमिका हो सकती है? कभी कभी तो ऐसा महसूस होता है कि एक वर्ग इस विवाद के हल होने की बजाय इसे किसी न किसी रूप में हवा देते रहना चाहता है। यदि वास्तव में ऐसा है तो इससे किसका हित सधेगा?
यहां इस बात का जिक्र करना अनुचित नहीं होगा कि नवंबर, 1992 में राम जन्म भूमि-बाबरी मजिस्द विवाद के परिप्रेक्ष्य में अयोध्या में बड़ी संख्या में कार सेवकों के आने की संभावना को देखते हुए विवादित ढांचे की सुरक्षा को लेकर शीर्ष अदालत में हुई सुनवाई के दौरान तरह तरह की दलीलें दी गई थीं। इनमें से एक पक्ष ने यहां तक दावा किया था कि विवादित स्थल के भीतर एक परिंदा भी पर नहीं मार सकता है और इस तरह की भड़काने वाली दलीलें मीडिया में खूब प्रकाशित हुर्इं और इसका नतीजा सबके सामने है।

स प्रकरण की ऐसी उतार चढ़ाव वाली पृष्ठभूमि को देखते हुए यह उम्मीद कम ही है कि 14 मार्च से होने वाली सुनवाई, यदि शुरू हुई, में बहस के दौरान संबंधित पक्ष संयमित भाषा का प्रयोग करेंगे और ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे जिससे नाहक ही देश के किसी भी हिस्से में तनाव पैदा हो। न्यायालय अपने यहां होने वाली कार्यवाही को तो नियंत्रित कर लेगा लेकिन इससे इतर उत्तेजक भाषण देने वाले तत्वों पर काबू पाना भी बहुत बड़ी चुनौती होगी।