अनूप गैरोला/ राजीव थपलियाल

इस बार फिर उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा जमकर कहर बरपा रही है। पिथौरागढ़ और चमोली में बादल फटने के बाद मची तबाही ने कई लोगों को लील लिया। भूस्खलन और मलबे की चपेट में कई घर जमींदोज हो गए तो कई जानवर इसके ग्रास बन गए। यह इस राज्य का दुर्भाग्य है कि जब तक सरकारी मशीनरी आपदा के जख्मों पर मरहम लगाती है और पुनर्निर्माण की योजनाओं को अमलीजमा पहनाती है तब तक दूसरी आपदा सामने खड़ी हो जाती है। जून 2013 की तबाही ने राज्य की कमर ही तोड़ दी थी। पिछले कुछ महीनों से सरकार के लिए आई राजनीतिक आपदा का हल अभी पूरी तरह नहीं निकल भी नहीं पाया कि दैवीय आपदा ने राज्य को संकट में डाल दिया है।

पिथौरागढ़ और चमोली में आई इस आपदा में दो दर्जन से अधिक लोगों की मौत हो गई और लगभग एक दर्जन लोग लापता हैं। चमोली के घाट और दशोली इलाके में बादल फटने और भारी बारिश के चलते भूस्खलन के मलबे में पांच लोग दफन हो गए। जबकि एक महिला समेत चार लोग मंदाकिनी के उफान में बह गए। वहीं पिथौरागढ़ के डीडीहाट में कई मकान बह गए। अल्मोड़ा-भुवाली हाईवे पर बोल्डर की चपेट में आने से कई लोगों की मौत हो गई। अगले दो महीने उत्तराखंड पर भारी हैं। मौसम विभाग की मानें तो अभी इस संकट से उत्तराखंड को निजात नहीं मिलने वाली। भारी बारिश के चलते सड़कें धंसने, नदियों के उफनाने और पहाड़ों से पत्थर गिरने का सिलसिला जारी है।

संकरी घाटियों में खतरा ज्यादा
उत्तराखंड में दो हजार से लेकर साढ़े तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित संकरी घाटियों में बसे गांवों में बादल फटने की आशंका सबसे ज्यादा रहती है। बादल फटने से चट्टानों के मलबे के साथ बारिश का पानी तेज रफ्तार से पहाड़ से नीचे उतरता है जो अपने साथ सब कुछ बहा ले जाता है। भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. चारु पंत कहते हैं कि ‘पूरे राज्य का भूगर्भीय अध्ययन न होने से लोग संवेदनशील क्षेत्रों से अनजान हैं। यही वजह है कि वह इन क्षेत्रों में बसते जा रहे हैं। प्रदेश में भूगर्भीय अध्ययन की सख्त जरूरत है ताकि संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान हो सके। राज्य का एक बड़ा हिस्सा आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है।’

टूटते ग्लेशियर खतरे की घंटी
हाल ही में गोमुख के विशाल हिमखंड का एक बड़ा हिस्सा टूटकर भागीरथी यानी गंगा नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। हिमालय के हिमखंडों का इस तरह से टूटना शुभ संकेत नहीं है। इन टुकड़ों को गोमुख से 18 किलोमीटर दूर भागीरथी के तेज प्रवाह में बहते देखा गया। ग्लेशियर वैज्ञानिक इस घटना की वजह कम बर्फबारी को बता रहे हैं। हिमखंड का टूटना प्रलय की खतरनाक चेतावनी है। अब तक हिमखंडों के पिघलने की जानकारियां तो आती रही हैं लेकिन इसके टूटने की घटना अपवादस्वरूप ही होती है।

क्यों फटते हैं बादल
मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार पहाड़ी इलाकों में एक छोटे से दायरे में काफी सघन बादल बन जाते हैं। इससे वातावरण में दबाव बेहद न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाता है जिससे बादल काफी ठंडे हो जाते हैं। इससे बादल एक दूसरे से या किसी पहाड़ी से टकराते हैं तो अचानक तेज रफ्तार में बारिश होती है। यह प्रक्रिया अधिक ऊंचाई पर नहीं होती है। ऐसा होने पर सौ मिलीमीटर प्रतिघंटा या उससे भी तेज रफ्तार से बारिश होती है। इससे बाढ़ जैसा मंजर पैदा होता है। सीधे तौर पर कहें तो भारी नमी से लदी हवा अपने रास्ते में जब पहाड़ी से टकराती है तो बादल फटने की घटना होती है। हिमालय की भौगोलिक स्थितियां बादल फटने के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा करने में सहायक होती है। जहां बादल फटता है वहां दो सेंटीमीटर से भी ज्यादा बारिश चंद मिनटों में हो जाती है। इससे भारी तबाही मचती है।

51 गांव मौत के मुहाने पर
मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार पश्चिमी विक्षोभ सक्रिय होने से पहाड़ी क्षेत्रों में अतिवृष्टि की आशंका रहती है। प्रो. वीएस कोटलिया के मुताबिक ‘गर्मियों में सूखे के संकट के बाद जबरदस्त बारिश की आशंका बनी रहती है। कुमाऊं की स्थिति यह है कि नैनीताल के कई क्षेत्र, अल्मोड़ा के कोसी और रामगंगा के क्षेत्र, पिथौरागढ़ के कुछ क्षेत्र, बागेश्वर के बसोली क्षेत्र व चंपावत के देवपुरा क्षेत्र अतिसंवेदनशील हैं। उत्तराखंड के लगभग 51 गांव ऐसे हैं जो अब भी मौत के मुहाने पर हैं। इनमें उत्तरकाशी के 11, टिहरी के नौ, रुद्रप्रयाग के सात, चमोली के 17, नैनीताल के तीन, बागेश्वर के तीन व पिथौरागढ़ के 21 गांव शामिल हैं।’

मृतकों के परिजनों को मुआवजा
राज्य सरकार ने आपदा में मृत लोगों के परिजनों को दो-दो लाख रुपये की राहत राशि देने की घोषणा की है। जिलाधिकारियों को घायलों को तुरंत उपचार उपलब्ध कराने और उन्हें राहत राशि जल्द उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए। प्रभावित क्षेत्रों में जिला प्रशासन के सहयोग के लिए राज्य आपदा मोचन बल (एसडीआरएफ) को तत्काल रवाना किया गया। प्रभावितों की सहायता के लिए हेलीकॉप्टर भी उपलब्ध कराए गए। इसके साथ ही हरीश रावत सरकार ने घोषणा की है कि आपदा में अगर किसी परिवार के मुखिया या कमाने वाले सदस्य की मृत्यु हो जाती है तो आश्रित को सरकारी नौकरी देने पर अगली कैबिनेट बैठक में प्रस्ताव लाया जाएगा। आपदा में पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त मकानों के लिए मुआवजा राशि को एक लाख रुपये से बढ़ाकर दो लाख किया जाएगा। वहीं पूर्व में आपदा मद से दी जा रही एक लाख रुपये के अलावा एक लाख रुपये मुख्यमंत्री राहत कोष से दिया जाएगा। इसके अलावा आपदा कोष स्थापित किया जाएगा।
राहत शिविरों में ठहराए गए बेघरों को किराये के मकानों में ठहराने की व्यवस्था की गई है। सरकार ने घोषणा की है कि आपदा प्रभावित गांवों में पालतू पशुओं के आश्रय स्थल बनाए जाएंगे। पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों को परंपरागत छावनियां बनाने के लिए प्रोत्साहन राशि दी जाएगी ताकि बारिश में वैकल्पिक सुरक्षित आवास की व्यवस्था हो। साथ ही एसडीआरएफ की दो अतिरिक्त कंपनियां गठित करेगी।

प्राधिकरण भी आपदा का शिकार
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण सफेद हाथी साबित हो रहा है। यह उस राज्य का हाल है जहां आपदा बिन बुलाए मेहमान की तरह आती रहती है। सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही नहीं बल्कि सड़क हादसों और पहाड़ी इलाकों में चट्टानें खिसकने जैसी घटनाओं में हर महीने दर्जनों लोगों को जान गंवानी पड़ रही है। सच तो यह है कि आपातकाल में एक अदद रस्सा तक खोजना प्राधिकरण के लिए मुश्किल हो जाता है। आपदाओं से निपटने के लिए बना यह महत्वपूर्ण प्राधिकरण स्वयं आपदा से जूझ रहा है। आपदा प्रबंधन तंत्र में यदि किसी की सराहना की जा सकती है तो वह है राज्य आपदा मोचन बल (एसडीआरएफ)। आपदा की स्थिति में सबसे पहले इसी को सहायता और बचाव कार्यों के लिए भेजा जाता है।

चेतावनियों और संकेतों की अनदेखी
उत्तराखंड में जो प्राकृतिक तबाही मच रही है उसे काफी हद तक कम किया जा सकता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की एक रिपोर्ट के मुताबिक जून 2008 में भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने आपदा प्रभावित 233 गांवों में से 101 को संवेदनशील बताया था। चार साल पहले भी कैग ने उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी की समीक्षा की थी। इस समीक्षा का हिस्सा रही एक रिपोर्ट ने काफी पहले ही केंद्र और राज्य सरकारों को आने वाले खतरे के प्रति आगाह कर दिया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि भागीरथी और अलकनंदा पर परियोजनाओं की बाढ़ से पहाड़ों को नुकसान तो हो ही रहा है, अचानक आने वाली बाढ़ का खतरा भी बढ़ रहा है। इससे जान-माल का भारी नुकसान हो सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक इन नदियों पर 42 परियोजनाएं काम कर रही हैं और 203 का निर्माण कार्य अलग-अलग स्तरों पर है। यानी औसतन देखा जाए तो हर पांच-छह किलोमीटर पर एक परियोजना है। रिपोर्ट में चेताया गया है कि परियोजनाओं की वजह से खत्म होते जंगलों से भारी नुकसान हो रहा है जिसकी भरपाई नहीं हो रही। इतनी सारी चेतावनियों और संकेतों के बाद भी आपदा प्रबंधन विभाग की नींद नहीं खुली।

केंद्र से मांगी सहायता
इस वक्त उत्तराखंड आपदा और राजनीतिक अस्थिरता की दोहरी मार झेल रहा है। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने प्रधानमंत्री से 13 हजार करोड़ रुपये का पैकेज मांगा है। उन्होंने पीएम से मुलाकात में कहा है कि आपदा की दृष्टि से संवेदनशील 352 गांवों का पुनर्वास किया जाना है। उन्होंने अन्य योजनाओं के लिए 22,500 करोड़ रुपये की सहायता मांगी है। आपदा पुनर्निर्माण पैकेज के लिए 381 करोड़ व पर्यावरण संरक्षण के लिए हर वर्ष 4000 करोड़ रुपये की मांग मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री से की है। पीएम ने इस पर विचार करने का आश्वासन दिया है। 