निशा शर्मा।

2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं। सभी पार्टियां चुनावों के परिणामों को खुद के हक में करने के लिए भरपूर कोशिश कर रही हैं। कोई भी पार्टी ये नहीं चाहती कि उसका उठाया कोई कदम या कोई शब्द 2019 की चुनावी परीक्षा में उसे फेल कर दे। लेकिन दिल्ली में अपनी सियासत की हरि झंडी फहराने वाली आम आदमी पार्टी की रणनीति इस मामले में फेल होती नजर आ रही है।

एक और जहां पार्टियां चुनावी माहौल में ये कोशिश करती हैं कि जो उम्मीदवार उन्हें वोट दिला सकता है वह किसी भी पार्टी में हो किसी तरह अपनी पार्टी में कर लिया जाए, वहीं आम आदमी पार्टी में उलटी गंगा बह रही है। हालही में पार्टी के प्रवक्ता आशुतोष ने इस्तीफा दिया था। इस्तीफ़ों का सिलसिला यहीं नहीं रूका इसमें नया नाम आशीष खेतान का जुड़ गया। संभव था मीडिया की निगाहें फिर पार्टी पर जा टिकती और ऐसा हुआ भी। वहीं विपक्ष को खुश होने का एक और बहाना मिल गया।  मामले को तूल ना दिया जा सके तो खेतान की ओर से जवाब आया कि उन्होंने राजनीति वकालत की पढ़ाई के लिए छोड़ी है। लेकिन राजनीति के पंडित ये जानते हैं कि ये सिर्फ जुमला है और चुनावी माहौल में बात कुछ और ही है। राजनीतिक गलियारों में पहले से ही सुगबुगाहट थी कि आशुतोष राज्यसभा का टिकट ना मिलने से नाराज़ थे। जिसकी वजह से उन्होंने पार्टी में अपनी सक्रियता कम कर दी थी। आशुतोष को लगा था कि शायद उनके इस रवैये से पार्टी चेतेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वहीं खेतान भी समझ चुके थे कि आने वाले चुनावों में भी उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला है। इसलिए दोनों ने पार्टी पर इस्तीफे का दांव खेला है।

आम आदमी पार्टी में बनी ये परिस्थितियां संकेत देती हैं कि पार्टी के संस्थापक ही पार्टी से खुश नहीं हैं। कहा जा सकता है कि पार्टी बनाने के भाव से बड़ा पार्टी चलाने का भाव हो चुका है और पार्टी सिर्फ सलाह मश्वरे से नहीं चलती उसे पैसे की भी जरूरत होती है। ऐसे में आशुतोष को या किसी अन्य वफादार को पार्टी कैसे टिकट दे सकती है। पार्टी ने अभी तक दोनों का इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं किया है, मंथन जारी है पर सकारात्मकता की उम्मीद कम।  जिस सकारात्मकता के साथ आम आदमी पार्टी राजनीति में आई थी, वह सकारात्मकता पार्टी को दोबारा मिलना कठिन है। पार्टी के आधे से ज्यादा संस्थापक सदस्य बाहर हो चुके हैं जिसमें शांति भूषण, कुमार विश्वास, कपिल मिश्रा, कर्नल देवेंद्र सहरावत जैसे लोग हैं। दूसरी ओर विपक्ष पहले से ही मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तानाशाह की छवि को भुनाने से नहीं चूकता। इन हालातों में अरविंद केजरीवाल के लिए दिल्ली में अपनी सलतनत बचाए रखना और बनाए रखना दोनों कठिन लग रहा है।