प्रदीप सिंह

चार साल से कांग्रेसियों और मीडिया की जबान पर एक ही सवाल कि आखिर राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष कब बनेंगे। कांग्रेस के किसी बड़े नेता के पास इस सवाल का जवाब नहीं था। उसका कारण एक ही था कि नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के अलावा किसी को न तो कोई जानकारी थी और न ही पूछने का साहस। कांग्रेस में वंशवाद तो जवाहर लाल नेहरू के जमाने से ही है। यह कोई ढकी छिपी बात नहीं है। पर इससे पहले लोकलाज के नाते ही सही उसे एक जनतांत्रिक रूप देने का प्रयास होता था। अस्सी के शुरुआती दशक में इंदिरा गांधी ने जब राजीव गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री बनाने का फैसला किया तो इसका ऐलान खुद नहीं किया। उन्होंने इसके लिए पार्टी के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी को पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और उनके दस्तखत से राजीव गांधी को महामंत्री बनाने का आदेश जारी करवाया। यह दीगर बात है कि कांग्रेस के संविधान में कार्यकारी अध्यक्ष का कोई पद नहीं था। शायद यही वजह थी कि काम पूरा होने के कुछ दिन बाद कमलापति त्रिपाठी को पद से हटा दिया गया।

राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाते समय और अब अध्यक्ष बनाते वक्त सोनिया गांधी ने ऐसी किसी औपचारिकता की जरूरत नहीं समझी। यह कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की मोतीलाल नेहरू से राहुल गांधी की ताजपोशी तक का सफर है जिसमें आंतरिक जनतंत्र की अब दिखावे के लिए भी जरूरत नहीं रह गई है। राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना उतना ही स्वाभाविक है जितना दिन-रात का होना। सवाल इतना ही था कि यह कब होगा। यह भी तय था कि जब राहुल गांधी तैयार होंगे तभी होगा। पर जब चौदह अक्टूबर को मीडिया वालों के सवाल के जवाब में सोनिया गांधी ने कहा कि जल्दी ही, तो सबने मान लिया कि राहुल तैयार हो गए हैं। जनवरी 2013 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में उन्हें उपाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई। उससे पहली रात उनकी मां और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी उनके कमरे में गर्इं और कहा कि यह पद जहर के समान है। दूसरे दिन सुबह राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बन गए। यह सही है कि सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि राजीव गांधी राजनीति में आएं। उन्होंने राजीव को प्रधानमंत्री बनने से रोकने का भी प्रयास किया था। पर राहुल गांधी के बारे में उनकी ऐसी कोई राय है, ऐसा सुनाई नहीं दिया। राहुल गांधी के सामने अब अवसर है, जिम्मेदारी है और चुनौतियां भी हैं। राहुल गांधी को एक सुरक्षा कवच हासिल है जो किसी और राजनीतिक दल के नेता के पास नहीं है। वह है कि नाकामी के लिए कभी उन्हें जवाबदेह या जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा।

देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने एक सौ बत्तीस साल के सफर में बहुत से उतार चढ़ाव से गुजरी है। पार्टी संकट से उबरती भी रही है, यह उसका इतिहास बताता है। पर उसका वर्तमान बताता है कि भविष्य में ऐसा होने की संभावना दिन पर दिन घटती जा रही है। 1969 में इंदिरा गांधी ने पूरे सिंडीकेट से मोर्चा लिया। पार्टी के दमदार और बड़े नेताओं से लड़ीं और जीतीं। इमरजेंसी के बाद 1977 में कांग्रेस बुरी तरह हार गई (आज की स्थिति को देखकर तो उसे बुरी हार कहना उचित नहीं लगता) तो उनके नेतृत्व को लेकर सवाल उठने लगे। उन्होंने एक बार फिर पार्टी तोड़ दी। उसके बाद बनी कांग्रेस-आई(इंदिरा)। कहने को तो वह कांग्रेस ही थी। पर आजादी के आंदोलन की विरासत वाली पार्टी नहीं रही। वह कांग्रेस इसलिए बनी रही क्योंकि उसकी कमान जवाहर लाल नेहरू की बेटी के हाथ में थी। उसकी कमान इंदिरा गांधी के हाथ में इसलिए रही कि इंदिरा गांधी के अलावा पार्टी में कोई ऐसा नेता उस समय भी नहीं था जिसके नाम पर पूरे देश में वोट मिल सकें। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रचंड बहुमत से प्रधानमंत्री बने। पर दो साल बीतते बीतते वे राष्ट्रीय नायक से खलनायक बन गए। 1989 में राजीव गांधी कांग्रेस को जिता नहीं पाए। 1991 में चुनाव अभियान के दौरान राजीव गांधी की हत्या भी कांग्रेस को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं दिला सकी। उस समय गांधी परिवार से कोई राजनीति में नहीं था इसलिए सरकार और पार्टी दोनों के मुखिया पीवी नरसिंहराव बने। सोनिया गांधी पार्टी की सदस्य भी नहीं थीं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री कौन बनेगा यह उन्होंने ही तय किया। प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी पहली पसंद डा. शंकर दयाल शर्मा थे। उन्होंने अपने खराब स्वास्थ्य के हवाले असमर्थता जताई तो राव का नाम आया। नरसिंहराव ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि वे सोनिया गांधी की रुखाई और संवादहीनता के कारण बहुत तनाव में रहते थे।

दरअसल इंदिरा गांधी की मौत के बाद से ही कांग्रेस की हालत बिना पतवार की नाव जैसी हो गई। जब हवा अनुकूल रही तो आगे बढ़ गई वरना भटकती रही। राहुल गांधी से उम्मीद जोड़ने वाले कांग्रेसियों का मानना है कि 1998 में सोनिया गांधी भी राजनीति में नई थीं। वह पार्टी को सत्ता में ले आर्इं। इसी तरह राहुल गांधी भी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद बदलाव लाएंगे- ऐसा कहने और मानने वालों की उम्मीद भावनाओं पर ज्यादा और वास्तविकता पर कम टिकी है। सोनिया गांधी जब राजनीति में आर्इं तो गठबंधन की राजनीति परवान चढ़ रही थी। क्षेत्रीय दल अपने अपने राज्यों में राष्ट्रीय दलों को परास्त/पददलित कर चुके थे। सही गठबंधन जीत का मार्ग प्रशस्त कर सकता था। भाजपा और कांग्रेस लगभग बराबरी पर खड़ी थीं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा अपनी लोकप्रियता के शिखर पर तो थी लेकिन उसका सामाजिक आधार भावनात्मक मुद्दों की भुरभुरी जमीन पर टिका था। 1996 में तेरह दिन की सरकार गिरने पर लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि विचारधारा पर आधारित राजनीतिक दल के विस्तार की संभावनाओं की एक सीमा होती है। साफ था कि राजनीतिक जनाधार के मामले में वह अपने स्थिरांक पर पहुंच चुकी थी। इस परिस्थिति में भाजपा ने तय किया कि वह गठबंधन के लिए अपने मूल मुद्दों को छोड़ने के लिए तैयार है। नतीजा यह हुआ कि दो साल बाद भाजपा सत्ता में आ गई।

ऐसे माहौल में सोनिया गांधी का राजनीति में पदार्पण हुआ। राजनीति की तात्कालिक जरूरतों के विपरीत पंचमढ़ी अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में सोनिया ने कहा कि पास प्रस्ताव में कहा गया कि एक पार्टी की सरकार के रास्ते में आने वाली अड़चनें अस्थाई हैं। हमारा संकल्प है कि राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी को फिर से शिखर पर ले जाएंगे। गठबंधन के बारे में अत्यावश्यक होने पर ही सोचा जाएगा। वह भी तय कार्यक्रमों के आधार पर जिससे पार्टी कमजोर न हो। जिन सोनिया गांधी ने गठबंधन को अस्थाई बताया था उन्हें 2004 आते आते समझ में आ गया कि गठबंधन के बिना काम नहीं चलेगा। गठबंधन के साथियों का सही चुनाव 2004 में कांग्रेस को सत्ता में ले आया। दस साल की सत्ता ने कांग्रेस को देश की भ्रष्टतम पार्टी के रूप में स्थापित कर दिया। प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह की बेदाग छवि भी काम नहीं आई। इस दौर में सोनिया गांधी या राहुल गांधी ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया। 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को अपने जीवन की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। 2013 के अंत से राज्य दर राज्य कांग्रेस को हार का ही सामना करना पड़ा रहा है। पंजाब सांत्वना पुरस्कार के रूप में मिला है। बात केवल कांग्रेस के हारने की नहीं है। वह जहां भी हार रही है बहुत बुरी तरह हार रही है। हार का यह सिलसिला सोनिया गांधी की अध्यक्षता में ही चला। फिर भी मणिशंकर अय्यर कह रहे हैं कि ‘राहुल गांधी को वही करना चाहिए जो सोनिया गांधी ने किया था।’ पार्टी की दशा-दिशा सुधारने के राहुल गांधी के सारे प्रयास अभी तक विफल रहे हैं। जिस राज्य से पूरे नेहरू-गांधी परिवार की राजनीति शुरू हुई और परवान चढ़ी वहां वह 1985 के बाद से कोई विधानसभा चुनाव नहीं जीती है। इस समय उत्तर प्रदेश से पार्टी के दो लोकसभा सदस्य और चार सौ तीन में से केवल सात विधानसभा सदस्य हैं। 2012 में राहुल गांधी ने अड़तालीस दिन में दो सौ से ज्यादा चुनावी रैलियां कीं तो विधानसभा में उसके सदस्यों की संख्या बाइस से बढ़कर अट्ठाइस हो गई। 2017 में उन्होंने राज्य इकाई की मर्जी के खिलाफ समाजवादी पार्टी से समझौता किया और विधानसभा में सीटों की संख्या घटकर सात रह गई। युवा नेता की यह उपलब्धि रही।

राहुल गांधी के सामने अवसर है कांग्रेस पार्टी को एक नया कलेवर देने का, नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ विपक्ष की धुरी बनने का और कांग्रेस के लिए एक नया विमर्श गढ़ने का। उनके सामने चुनौतियां सिर्फ बाहर से नहीं हैं। उन्हें पहले अंदर का मोर्चा फतह करना होगा। वे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का क्या करेंगे। कभी राहुल के करीबी रहे जयराम रमेश जब कहते हैं कि सल्तनत चली गई पर अब भी अपने को सुल्तान समझ रहे हैं। तो उनका इशारा पार्टी के अंदर एक गंभीर बीमारी की ओर है। यह बताता है कि 2014 की करारी हार से पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा है। पर यही बात राहुल गांधी के बारे में कहना ठीक नहीं होगा। पिछले तेरह सालों में उन्होंने बोलना तो सीख लिया है। एक मदद भाजपा ने भी की है। नीतीश कुमार को एनडीए में शामिल करके विपक्षी दल के नेता की दौड़ से सबसे ताकतवर नेता को मैदान से हटा लिया है। बाकी बचे नेताओं में मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और शरद पवार सहित सभी अपने ही प्रदेश में फंसे हैं।

विपक्षी दलों का नेतृत्व करने के लिहाज से राहुल के लिए यह अनुकूल समय है। कांग्रेस में उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है। पर उनकी चुनौती जिससे निपटने की है वह राजनीतिक कद में उनसे बहुत बड़ा है। भारतीय जनता पार्टी का सौभाग्य ही राहुल गांधी का राजनीतिक दुर्भाग्य बन कर उनके सामने खड़ा है। सोनिया गांधी का मुकाबला अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से था। जो विरोधी को भी नियम से पराजित करने और उसके प्रति नरम दिल भी रहते थे। राहुल के सामने है नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी। वे दोनों एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि पूरक हैं। वे अपने विरोधी के प्रति किसी तरह का दया भाव दिखाने में यकीन नहीं करते। गुजरात विधानसभा का चुनाव राहुल गांधी के लिए अध्यक्ष पद की औपचारिक जिम्मेदारी संभालने से पहले बड़ा अवसर लेकर आया है। गुजरात में भाजपा बाइस साल की सत्ता का अंसतोष, पाटीदार आंदोलन से उपजी नाराजगी और समाज के दूसरे वर्गों के अंसतोष से जूझ रही है। किसी भी विपक्षी दल के लिए इससे बेहतर अवसर नहीं हो सकता। राहुल गांधी इस परीक्षा में पास हुए तो आगे रास्ता थोड़ा आसान हो सकता है। गुजरात में पराजय राहुल गांधी के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों की पराजय से भी बड़ा धक्का होगा। लोकसभा चुनाव में सारी परिस्थितियां उनके प्रतिकूल थीं।

नेतृत्व की परीक्षा संकट के समय ही होती है। कांग्रेस इस समय अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। कुछ समय पहले इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लिखा था कि ‘गांधी परिवार से मुक्ति पाए बिना कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है।’ उन्होंने तो सोनिया और राहुल को सलाह दी थी कि ‘कांग्रेस को बचाना है तो नीतीश कुमार को पार्टी का अध्यक्ष बना दें।’ इन बातों का समय अब निकल चुका है। पर एक बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि संसदीय लोकतंत्र में वोट दिलाने की क्षमता ही नेता की असली ताकत होती है। राहुल गांधी को अभी साबित करना है कि उनमें यह क्षमता है। परिवार का नाम राहुल गांधी को जहां तक लेकर आ सकता था ले आया है। इसके बाद उन्हें अपने लिए रास्ता खुद बनाना होगा। छात्र संघ के चुनाव में भी जीत का श्रेय राहुल गांधी को और लोकसभा व विधानसभा में हार के लिए पार्टी के दूसरे नेता जिम्मेदार हैं, वाली मानसिकता से राहुल गांधी को निकलना होगा।

राहुल गांधी के सामने पहला काम अपनी टीम का गठन होगा। उनकी कठिनाई यह है कि पार्टी में उनके इर्द गिर्द जितने युवा नेता हैं वे सब अपने पिता की वजह से यहां पहुंचे हैं। रणदीप सुरजेवाला, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, दीपेन्दर हुड्डा, तरुण गोगोई, सुष्मिता देव, आरपीएन सिंह, मिलिंद देवड़ा, प्रिया दत्त और शर्मिष्ठा मुखर्जी इनमें से कोई नीचे से संघर्ष करके नहीं आया है। हिमंत बिश्व सरमा जैसे जनाधार वाले नेता राहुल गांधी के व्यवहार से पार्टी छोड़ गए। कैप्टन अमरिंदर सिंह जाते जाते रह गए। ऐसे नेताओं की लम्बी सूची है जिन्होंने राहुल गांधी के व्यवहार की शिकायत करके पार्टी छोड़ी। हालांकि अमेरिका से लौटने के बाद से राहुल गांधी के व्यवहार और सार्वजनिक छवि में सुधार आया है। पर पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने और विरोधियों से निपटने के लिए जिस गहराई की जरूरत है वह उनमें दिखाई नहीं देती।

लोकसभा चुनाव में डेढ़ साल से कम समय बचा है। राहुल गांधी के पास अवसर तो है लेकिन समय नहीं है। नरेन्द्र मोदी से तमाम विरोध के बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री की कर्मठता से सीखने की जरूरत है। राहुल का अंशकालिक नेता होना कांग्रेस के लिए खतरे की आखिरी घंटी होगी। क्योंकि उसके बाद कोई घंटी नहीं बजने वाली। 2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस का भविष्य और राहुल गांधी का राजनीतिक जीवन तय करेगा। इसके बावजूद कि चुनाव में हार से उनके अध्यक्ष पद को कोई खतरा नहीं होगा। क्योंकि कांग्रेस का कार्यकर्ता पार्टी और नेता के लिए जान तो दे सकता है लेकिन जौहर नहीं करेगा।