अरुण पांडेय।

कुछ दिन पहले पेंटागन की एक रिपोर्ट ने अमेरिकी शीर्ष अधिकारियों को गहरी चिंता में डाल दिया। रिपोर्ट थी ही ऐसी, जिसके मुताबिक अमेरिकी टेक्नोलॉजी हासिल करने के लिए चीन बैक डोर से चालें चल रहा है। रिपोर्ट में बताया गया कि सोची समझी रणनीति के तहत चीनी कंपनियां अमेरिकी स्टार्ट अप में भारी निवेश कर रही हैं। इस तरह वो चुपके चुपके अमेरिकी टेक्नोलॉजी पर कब्जा करना चाहता है ताकि दुनिया की नंबर वन अर्थव्यवस्था का ताज अमेरिका से चीन के पास आ सके। अब अंदाज लगाइए जब अमेरिका को चीन के इरादों से फिक्र हो रही है, तो भारत की चिंता स्वाभाविक है। असल में चीन को लगता है कि उसके रुतबे और रसूख के लिए भारत बड़ी चुनौती बन सकता है। सिक्किम में डोकलाम विवाद तो बहाना है, मकसद तो भारत के बढ़ते प्रभाव को कम दिखाना है।

कारोबार में अटकी चीन की जान
ये सच है कि चीनी अर्थव्यवस्था की जान भारत के बाजारों पर अटकी है। इसलिए वो भारत से सीधे टकराने के बजाए आर्थिक तौर पर निर्भर बनाने की रणनीति पर काम कर रहा है। चीन जानता है कि भारत से विवाद बढ़ा तो नुकसान में वो भी रहेगा क्योंकि उसके कारोबार पर बुरा असर पड़ेगा।

दुनिया की नंबर वन इकोनॉमी बनने के लिए चीन हर तरीके अपना रहा है। जैसे चीन ने टेक्नोलॉजी का पावर हाउस बनने के लिए अगले 15 साल में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (टेक्नोलॉजी) कारोबार को 150 अरब डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य बनाया है। अभी इस फील्ड में अमेरिका का दबदबा है। इसमें इजराइल, जापान और कई मामलों में भारत भी अमेरिका के पार्टनर हैं। चीन को अमेरिका, इजराइल जैसे देशों के साथ नई टेक्नोलॉजी और अंतरिक्ष प्रोग्राम में भारत का बढ़ता रुतबा पसंद नहीं आ रहा है। इसलिए अब चीन ने सेना और सैनिक साजोसामान से लेकर स्मार्ट सिटी तक हर क्षेत्र में अगले 15 सालों में लीडर बनने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य बनाया है।

भारत से कारोबार में चीनी दबदबा
भारत के साथ कारोबार में पलड़ा पूरी तरह चीन की तरफ झुका है। यह इतना एकतरफा है कि भारत को चीन से व्यापार घाटा 51 अरब डॉलर से ज्यादा है। चीन को होने वाला भारतीय एक्सपोर्ट मामूली है, जबकि इंपोर्ट में कुछ बाकी नहीं है।
ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत-चीन कारोबार अभी 72 अरब डॉलर के आसपास है। इसमें चीन से भारत में 61 अरब डॉलर का सामान आता है। जबकि भारत उसे बमुश्किल 12 अरब डॉलर का ही एक्सपोर्ट कर पाता है।

भारत की जैसे को तैसा की नीति
भारत ने भी स्ट्रैटेजी बदली है और अब चीन के तौर तरीकों से निपटने के लिए आर्थिक तरीकों का सहारा लिया है। जैसे भारत ने मांग की है कि चीन अपने बाजार भारतीय चावल, अनार, भिंडी समेत सब्जियों, फलों, अनाज और मीट के लिए खोले। लेकिन चीन कहता है कि बदले में चीनी सेव, नासपाती, दूध और दुग्ध प्रोडक्ट के इंपोर्ट पर लगी पाबंदी हटाई जाए।

चीनी प्रोडक्ट पर बैठाया पहरा
चीन की झुंझलाहट की एक और वजह है कि भारत ने चीन में बने प्रोडक्ट पर सख्ती शुरू कर दी है। चीन के मीडिया का तो दावा है कि भारत ने घरेलू मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री की मदद के लिए चीन के इंपोर्ट पर कड़ाई शुरू कर दी है और इस साल भारत में चीनी प्रोडक्ट पर 12 से ज्यादा जांचें चल रही हैं। अमेरिका के बाद इतनी ज्यादा जांच करने वाला भारत दूसरा देश है।

भारत में भारी निवेश की चीनी रणनीति
एफडीआई मामले में चीन डबल रोल में है। एक तो वो दुनिया भर में उभरते बिजनेस में निवेश कर रहा है। दूसरा अपने देश में विदेशी पूंजी को आकर्षित करने पर पूरा जोर लगाए हुए है। भारत में चीन नई उभरती हुई कंपनियों और स्टार्ट अप में निवेश कर रहा है। जैसे कैशलेस ट्रांजेक्शन के बाद तेजी से बढ़ी पेटीएम में चीनी कंपनी अलीबाबा की 40 फीसदी हिस्सेदारी है। इसके अलावा ई कॉमर्स कंपनी फ्लिपकार्ट में 70 करोड़ डॉलर का निवेश किया है। हालांकि विदेश पूंजी आकर्षित करने में भारत और चीन के बीच कड़ा मुकाबला है। इस मामले में भारत की रैंकिंग पिछले साल के 55 से सुधरकर 39 वें नंबर पर आ गई है। हालांकि चीन अभी भी 28 वीं रैंकिंग के साथ आगे है। लेकिन चीन की आर्थिक नीतियां भारत के छोटे और मझोले उद्योगों के लिए बड़ा खतरा हैं। इससे निपटने के लिए भारत ने चीन के साथ व्यापार असंतुलन को ठीक करने के तमाम तरीके अपनाने शुरू कर दिए हैं और यही बात चीन को बैचेन कर रही है। जानकारों के मुताबिक हालांकि चीन के इंपोर्ट को अचानक ब्रेक लगाना अब भारत के लिए मुमकिन नहीं है, साथ ही घरेलू कंपनियों को कंपिटीशन से बचने का कवच देना भी बहुत मुश्किल है। लेकिन चीनी इंपोर्ट पर क्वालिटी के कड़े नियम बनाकर इसे कम किया जा सकता है।

भारतीय उद्योग पर भारी चीनी इंपोर्ट
सस्ता चीनी इंपोर्ट किस कदर भारतीय मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री के लिए मुश्किल बनता जा रहा है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है सोलर इंडस्ट्री। जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोलर नीति बनाई गई भारतीय कंपनियों के लिए लेकिन पूरा फायदा चीनी कंपनियां उठा रही हैं। भारत में सोलर एनर्जी के जरूरी उपकरणों के 80 फीसदी बाजार में चीनी कंपनियों का कब्जा है। इसकी वजह है कि चीन का सामान सस्ता होता है और वहां की सरकार सब्सिडी और आसान कर्ज के जरिए लागत कम कर देती है। कोलकाता की सोलर कंपनी विक्रम सोलर के ज्ञानेश चौधरी के मुताबिक, ‘इससे चीनी इंपोर्टेड उपकरण के मुकाबले भारतीय प्रोडक्ट दस फीसदी महंगे हो जाते हैं।’ खतरा ये है कि अगले पांच साल में भारत में सोलर उपकरणों का 40 अरब डॉलर का बाजार होगा, लेकिन इसपर भी चीनी कंपनियों के कब्जे की आशंका है। चीन की कंपनियों की स्मार्टनेस का अंदाज लगाना रॉकेट साइंस नहीं है। भारत में सरकारी नीतियों के बनने के बाद जब तक घरेलू इंडस्ट्री तमाम मंजूरी लेकर फैक्ट्री लगाती है, तब तक चीनी कंपनियां प्रोडक्शन और सप्लाई शुरू कर देती हैं।
मामला बड़ी प्रोडक्ट तक ही सीमित नहीं है, चीनी कंपनियां हर जगह घुस रही हैं। जैसे दिल्ली के होलसेल ट्रेडर्स एसोसिएशन के अनुसार, ‘खिलौने, प्लास्टिक का सामान, देवी देवताओं की मूर्तियां- दस साल पहले तक इस क्षेत्र में घरेलू इंडस्ट्री का कब्जा था, अब चीनी प्रोडक्ट का दबदबा है। कई मैन्युफैक्चरर तो अपनी फैक्ट्रियां बंद करके सिर्फ चीनी माल के इंपोर्ट कर रहे हैं।

चीन की कंपनियों को भरपूर संरक्षण
आर्थिक तौर पर दबदबा बनाने के लिए चीन सभी तरीके अपना रहा है। चीन अपनी सभी कंपनियों को तमाम सरकारी मदद कर रहा है। जैसे अलीबाबा को अमेरिकी कंपनी अमेजान से मुकाबले के लिए खड़ा किया गया। बैडु को चीन का गूगल कहा जाता है। फेकबुक को चीन में एंट्री देने के बजाए देसी कंपनी वीचैट का वर्चस्व है। इसी तरह एप्पल से टक्कर लेने के लिए जियोमी, वीवो, ओप्पो को पूरी मदद की गई है।
इन तमाम चीनी कंपनियों ने भारतीय बाजारों में कब्जा जमा लिया है। चीनी कंपनियां सीधे सीधे कंपिटीटर की नकल कर लेती हैं और फिर कम कीमत पर बेचती हैं। जरा इन बातों पर गौर कीजिए।

उभरते सेक्टर पर चीनी उपकरणों का कब्जा

  1. स्मार्टफोन के 8 अरब डॉलर के बाजार के 51 फीसदी हिस्से में चीनी हैंडसेट ही छाए।
  2. टेलीकॉम इक्विपमेंट में ही सस्ते चीनी प्रोडक्ट का दबदबा। भारत में सालाना करीब 70 हजार के टेलीकॉम उपकरण इंपोर्ट होते हैं, इसमें ज्यादातर में चीनी कंपनी हुवाई और जेटीई करती हैं।
  3.  पावर उपकरण में भी चीनी कंपनियां आगे। सोलर पावर में तो अप्रैल 2016 से जनवरी 2017 के बीच नौ माह में चीन के इंपोर्ट की हिस्सेदारी 87 फीसदी थी।
  4. चीनी इंपोर्ट आक्रमण से परेशान घरेलू स्टील, पावर, टेलीकॉम कंपनियों की सरकार से एंटी डंपिंग और सेफगार्ड ड्यूटी लगाने की लगातार मांग।
  5. यही नहीं आॅटो सेक्टर में तो चीन का एफडीआई सबसे बड़ा है। चीनी कंपनी एसएआईसी ने गुजरात के हलोल में जनरल मोटर्स का प्लांट खरीदा।
  6. इसी तरह फॉसुन फार्मा ने हैदराबाद की ग्लैंड फार्मा को खरीदा।
  7. भारतीय आॅनलाइन और फाइनेंस कंपनियों में भी चीनी कंपनियों ने भारी निवेश किया है। पेटीएम में 40 फीसदी हिस्सेदारी अलीबाबा की है। जबकि ई-कॉमर्स कंपनी फ्लिपकार्ट में चीन की टेनसेंट होल्डिंग ने 70 करोड़ डॉलर का निवेश किया है। सीट्रिप ने मेक माई ट्रिप में निवेश किया है।
  8. चीन की रियल एस्टेट कंपनी चाइन फॉर्चून लैंड डेवलपमेंट और डलियान वांडा भी भारत में स्मार्ट सिटी, इंडस्ट्रियल टाउनशिप और दूसरे प्रोजेक्ट के लिए भारी निवेश कर रहे हैं।

चीनी सामान का बॉयकॉट कितना व्यावहारिक

चीन ने खुद विदेश नीति में बॉयकॉट को मुख्य हथियार बना रखा है। चीन को जिस कंपनी या देश की किसी नीति से ऐतराज होता है वो उनके बॉयकॉट का ऐलान करता रहा है। पहली बार ऐसा हुआ है जब चीन को बॉयकॉट का सामना करना पड़ेगा। भारत में बड़े पैमाने पर चीनी सामान के बॉयकॉट की मांग उठी है। व्यावहारिक तौर पर हालांकि ये काफी मुश्किल है क्योंकि चीन ने भारतीय इकोनॉमी में अपनी जड़ें फैला ली हैं। ऐसे में भारत को भी आर्थिक नुकसान हो सकता है।

बॉयकॉट का मास्टर चीन
चीन को जब अंतरराष्ट्रीय अदालत से दक्षिण चाइना सी में झटका लगा था तो चीन में अमेरिकी कंपनियों मैकडोनाल्ड, केएफसी, पिज्जा हट को बॉयकॉट का सामना करना पड़ा था। इसी तरह जब जब चीन के किसी देश के साथ राजनीतिक मतभेद हुए हैं, चीन ने बॉयकॉट को हथियार बनाकर इस्तेमाल किया है। नॉर्वे, जापान और दक्षिण कोरियाई कंपनियों को समय समय पर चीनी विरोध का सामना करना पड़ा है, क्योंकि इन देशों से किसी ना किसी मामले में उसका विवाद होता रहता है। हालांकि एक्सपर्ट कहते हैं कि ‘भारत अगर ताइवान से इलेक्ट्रॉनिक आइटम इंपोर्ट करने को तरजीह दे तो चीन को बैकफुट में लाया जा सकता है।’

फिर भी चीनी इंपोर्ट पर निर्भरता कम करने की भारत की कोशिशों का कुछ असर तो हो रहा है। 2016 अप्रैल से इस साल फरवरी के बीच चीन को भारतीय एक्सपोर्ट करीब नौ फीसदी बढ़ा है जबकि इंपोर्ट सवा दो फीसदी कम हुआ है।

आर्थिक मामलों के जानकार राजीव कुमार कहते हैं, ‘चीन जिस तरह से भारत के करीब करीब हर सेक्टर में पैर जमा चुका है उसे देखते हुए चीन से आने वाले एफडीआई निवेश को मंजूरी देने से पहले मामले में भारत को बहुत सावधान रहना होगा। चीन के आर्थिक दबदबे को कम करने के लिए ठोस रणनीति बनानी होगी।’ चीन का खतरा कितना बड़ा है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका जैसी आर्थिक महाशक्ति को भी चीन की फिक्र होने लगी है। अमेरिकी प्रशासन में शीर्ष स्तर पर अब मंथन चल रहा है कि चीनी निवेश पर चेक और बैलेंस लगाना जरूरी है। यही बात भारत पर भी लागू होती है। इसमें वक्त लगेगा लेकिन देश की खातिर कड़े फैसले जरूरी हैं।