उमेश सिंह

सांसारिक परेशानियों से तंग आकर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो नदी की धारा में कूदकर उसके भंवर में जान दे देते हैं। संतत्व की संस्कृति में रचे-पगे मुक्तिकामी चेतनाधर्मी लोगों के ‘जल-समाधि’ लेने की परंपरा भी रही है। लेकिन यदि कोई नदी के जीवन के लिए जान दे देता है तो यह आश्चर्यजनक है, स्तब्ध कर देने वाला है। ऐसा ही कुछ हुआ ऋषिकेश में। संभवत: सनातन संस्कृति के संवाहक ही ऐसा कर सकते हैं। वह कर सकता है जिसकी चेतना चिद्ब्रह्मांडीय संवेदनाओं में रमण करती हो। स्वामी सानंद एक सौ बारह दिन भूखे रहे और मां गंगा की अविरलता और पवित्रता के लिए जान दे दी।
स्वामी अपने धर्म का निर्वहन करते हुए चले गए। गंगाव्रती मां गंगा के लिए गंगा की गोद मे हमेशा-हमेशा के लिए सो गया। कैलीफोर्निया के पढ़े-लिखे, आईआईटी के प्रोफेसर और पर्यावरणविद की गंगा के प्रति यह दीवानगी हमें बताती है कि जुनूनी लोग अब भी इस दुनिया में हैं जो सृष्टि की संवहनीयता के लिए अपनी जान की परवाह नहीं करते हैं।
राम के पुरखे भगीरथ कुछ इसी किस्म के रहे होंगे, जिन्होंने अपने तप और साधना से पृथ्वी पर गंगावतरण कराया। यही जज्बा दशरथ मांझी के भीतर भी रहा होगा, जो 22 साल तक पहाड़ तोड़ते रहे और लोगों के लिए रास्ता बना दिया। ऐसे लोग सार्वजनिक जीवन और उसके कल्याण के लिए जीते -मरते हैं। ‘आधुनिक भगीरथ’ स्वामी सानंद को सत्ता ने भले ही नजरअंदाज किया हो, लेकिन ऐसे लोग लोगों के दिलों में जगह बनाते हैं। ऐसे लोग इतिहास में दर्ज होंगे और जब जब गंगा का जिक्र आएगा, वे याद किए जाएंगे। गंगा के नाम पर राजनीति करने वाले लोग भी अच्छी तरह से याद किए जाएंगे। जीडी अग्रवाल यूं ही नहीं गंगा के योगी बने थे। इसके पीछे एक नदी को बचाने का जुनून और जिद्द थी।
उनकी कोशिश सिर्फ गंगा की सफाई करने-कराने तक सीमित नहीं थी, बल्कि गंगा और अलकनंदा जैसी नदियों का दोहन कर बनाई जाने वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ भी थी। मुनाफे की हवस में नदियों को चूसने, लूटने-खसोटने वाले तंत्र के खिलाफ थी। देश-विदेश में रह रहे गंगाप्रेमी मरने के पहले एक बूंद गंगाजल कंठ में पाकर धन्य हो जाते हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि गंगाजी से महज 100 गज की दूरी पर स्थित ऋषिकेश में स्वामी ज्ञानस्वरूपानंद गंगाजल तो क्या, एक बूंद पानी के बिना ही विदा हो गए। हम लोगों को अलविदा कह दिया।
गंगा हिंदुओं की आस्था का प्रतीक है। स्वामी इस नदी को नहर और नाले में बदले जाने के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। वे सामान्य साधु-संत नहीं थे। वे पर्यावरण बचाने के लिए आंदोलन कर रहे थे। वे शिक्षाविद थे। आईआईटी कानपुर के सिविल इंजीनियरिंग और पर्यावरण विभाग में प्राध्यापक, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में प्रथम सचिव और राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के सलाहकार भी रह चुके थे। रिटायरमेंट के बाद गंगा सेवा के लिए संन्यास ले लिया। प्रो. जीडी अग्रवाल से स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद हो गए। साल 2008 से साल 2018 तक विभिन्न कालावधि में गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए अनशन कर शरीर गला डाला था। गंगा पुत्र भूखा प्यासा मर गया। किसी ने भी न सुनी। सत्तासी साल के संत से जब संवाद की जरूरत थी तो उनसे प्रभावशाली ढंग से संवाद आखिर क्यों नहीं किया। अंग्रेज सरकार किसी भारतीय के अनशन को बड़ी गंभीरता से लेती थी और अनशन तुड़वाने के लिए भरसक प्रयास करती थी।
कनखल स्थित मातृ सदन प्रतीक बन चुका है ऐसे साधुओं का, जिन्होंने अपना जीवन गंगा की साधना में समर्पित कर दिया। यहां पढ़े-लिखे, इंजीनियरिंग, मेडिकल में निष्णात साधुओं की दुनिया है, जिनकी जिंदगी का मकसद गंगा की निर्मलता और अविरलता की लड़ाई है। यहां के संन्यासियों की आंखों में पानी नहीं, मां गंगा बहती रहती है। इस आश्रम के प्रमुख स्वामी संत शिवानन्द कभी कोलकाता में रसायन शास्त्र यानी केमिस्ट्री के प्रोफेसर हुआ करते थे। गंगा की खातिर ये भी सब कुछ छोड़कर साधु हो गए। इसी मातृ सदन आश्रम में सात साल पहले 2011 में भी गंगा की साधना में एक मौत हुई थी। उस समय एक लंबे अनशन के बाद स्वामी निगमानंद की मौत हो गई थी। 