अजय विद्युत

भंसाली की ‘पद्मावती’ में क्या है और उसका क्या हश्र होगा यह एक तरफ! लेकिन इसी बहाने देशी विचारकों व इतिहास के विद्वानों का एक वर्ग तेजी से भंसाली का समर्थन करते हुए अलाउद्दीन खिलजी की शान में कसीदे पढ़ने में जुटा है। वह कितना रहमदिल था… औरतखोर कतई नहीं था… मंगोलों को पराजित कर भारत को उनका गुलाम होने से बचाया। और फिर वे विद्वान यह तो कहते ही हैं कि पद्मावती के होने का और खिलजी के उस पर आसक्त होने का कोई सबूत इतिहास में नहीं है।

पहले इतिहास को लें। साहित्यकार व विचारक डॉ. नरेंद्र कोहली का कहना है कि विवेकानंद जिस समय कलकत्ता से परिव्राजक के रूप में निकले थे तो अलवर में उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी कि ‘इस देश का इतिहास हिंदुओं ने कभी नहीं लिखा क्योंकि हमारी शैली दूसरी है। जो इतिहास लिखा गया वह विदेशियों के माध्यम से लिखा गया चाहे वे ग्रीक हों, मुगल हों, पठान हों, अरब हों या तुर्क। वह विदेशियों ने लिखा और इसलिए नहीं लिखा कि आपका गौरव बढ़े… बल्कि इसलिए लिखा कि आपका गौरव नष्ट हो। इसलिए आपको अपना इतिहास स्वयं लिखना है, रचना है। अपने महापुरुषों के निकट जाओ। अपने महान ग्रंथों के मूलरूप के पास जाओ। उनको पढ़ो और अपना इतिहास लिखो।’

ऐसा हो नहीं पाया इसीलिए हम वही इतिहास जानते हैं जो उपलब्ध है। देश में कथित सेक्युलर विद्वान उसी के हवाले से यह कहते नहीं थकते कि हममें एक भी अच्छा गुण नहीं था, सारे अवगुण ही अवगुण थे। और जो आक्रांता आए, भले उनके जुल्म मौजूदा आतंकी संगठन आईएसआईएस जैसे रहे हों, उन्हें उनमें उदारता और विनम्रता ही दिखती है। ऐसा इसलिए कि जो भी इतिहास में दर्ज है उसे उन आक्रांताओं ने ही लिखवाया है।

दरअसल, इतिहास विजेताओं का होता है। जब हम हार रहे थे तो हमारा इतिहास कैसे कहीं दर्ज हो सकता है। वह तो लोक कथाओं में गीतों के माध्यम से ही लोगों को याद रहता है। और आज विद्वान उसे कल्पना से अधिक कुछ मानने को तैयार नहीं। कहीं इतिहास को भी कल्पना का दर्जा दिया जा रहा है तो कहीं अपने आश्रित विद्वानों से लिखाई अपनी प्रशंसा को इतिहास का नाम दे दिया गया है। अलाउद्दीन खिलजी के बारे में जिस इतिहास स्रोत अमीर खुसरो के हवाले से उसे प्रतापी, दयाभाव वाला स्थापित किया जाता है, वह खुसरो उनके दरबार में नौकरी करता था। खुसरो जीवन भर राज्याश्रित रहा। आठ सुल्तानों का शासन देखा और दिल्ली सल्तनत का आश्रित रहा।
मजा यह कि जलालुद्दीन खिलजी जब आक्रमण कर दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुआ तो उसने दरबार में खुसरो को स्थायी स्थान दिया। और जब सत्तर वर्षीय जलालुद्दीन का कत्ल कर उसके भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने सत्ता हथियाई तो उसने भी खुसरो को दरबार में रखा। जलालुद्दीन अलाउद्दीन का सगा चाचा था और उसे अपनी संतान की तरह प्यार करता था। 22 अक्टूबर 1296 को अलाउद्दीन ने चाचा के साथ गले मिलने का नाटक किया और विश्वासघात कर पीछे से दो सैनिकों मोहम्मद सलीम और इख्तियारुद्दीन हूद से उसकी हत्या करा दी। सूफी परंपरा से जुड़े खुसरो को इसमें कुछ बुरा नहीं लगा। जाहिर है उसका लिखा इतिहास भी अलाउद्दीन की नौकरी का ही एक काम था जो उसने उसकी प्रशस्ति और भारत की छवि बिगाड़ने के लिए किया।

1298 में गुजरात विजय पर निकली अलाउद्दीन की सेना से अहमदाबाद के पास कर्णदेव वाघेला की सेना का युद्ध हुआ। पराजित कर्णदेव ने अपनी पुत्री देवल देवी के साथ भागकर देवगिरि के शासक रामचंद्र देव के यहां शरण ली। तब खिलजी उनकी संपत्ति व पत्नी कमला देवी को लेकर दिल्ली आ गया। कमला देवी के रूप पर आसक्त खिलजी ने उनसे जबरन शादी की। यह वाकया यह बताने के लिए पर्याप्त है कि खिलजी औरतखोर था या नहीं।

डॉ. कोहली कहते हैं, ‘नालंदा विश्वविद्यालय के अतिविशाल पुस्तकालय की पुस्तकों को जलाकर बख्तियार खिलजी के सैनिकों ने खाना इसलिए नहीं पकाया कि उनके पास र्इंधन नहीं था। वह इसलिए था कि हमारा ज्ञान, गौरव जला दिया जाए। आज जो स्थिति है उसका मूल कारण यही है कि जो भी विदेशी शासक आया उसने आपकी भाषा छीनी, वांग्मय छीना और उसके साथ संस्कृति को भी उसने कलुषित किया।’