डॉ. अनिल कुमार सिंह

विश्व प्रसिद्ध उपन्यास सिद्धार्थ के रचयिता जर्मन साहित्यकार हरमन हेस (1877-1962) हैं, जिनका जन्म भारत में हुआ था। इनके पिता एक ईसाई पादरी थे। प्रारम्भिक जीवन भारत में व्यतीत होने के कारण इनके उपन्यासों, कविताओं और कहानियों पर उनके भारतीय अनुभवों का गहरा प्रभाव पड़ा। 1946 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए गए हेस ने 1951 में ‘सिद्धार्थ’ की रचना की और उसे रोम्या रोल़ा को समर्पित किया। इलाहाबाद के चर्चित कवि एवं विचारक नीलाभ द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद वर्ष 1974 में राजपाल एंड सन्स ने प्रकाशित किया। यह स्वयं को जानने की अन्त:यात्रा की अप्रतिम कृति है।
गौतमबुद्ध कालीन भारत की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह कथा किशोरावस्था की दहलीज पार करते युवक सिद्धार्थ की कहानी है जो आत्मन् से साक्षात्कार की अतीव उत्कंठा लिए अपना घर-बार सब कुछ छोड़ अपने मित्र गोविन्द के साथ इस दुरूह यात्रा पर निकल पड़ता है। यात्रा के दौरान सिद्धार्थ कैसे-कैसे अलग-अलग अनुभवों से होकर गुजरता है, यह उपन्यास उन्हीं का वर्णन और सूक्ष्म विश्लेषण करता है। किशोर सिद्धार्थ ने शब्दों के शब्द- ओम् को साध लिया। संसार के साथ सामंजस्य बैठाते हुए अपने अस्तित्व की गहराई में अनश्वर आत्मा को पहचानना वह जान चुका था। फिर भी वह सुखी नहीं था, व्यग्र था, संतप्त था, क्योंकि पिता और अन्य ज्ञानियों से प्राप्त समस्त ज्ञान भी उसे आत्मन् से- स्व से- एकाकार नहीं करा सकते थे। यह सब महज तलाश थी- एक भटकाव, भूल। कोई भी अंतिम प्यास बुझाने में समर्थ नहीं था। एक बार सिद्धार्थ ने कुछ श्रमणों को अपने नगर से होकर गुजरते देखा। उनके इर्द-गिर्द उसने आत्म-निग्रह का आवेग पाया। दोनों श्रमणों के साथ हो लिए और वरिष्ठ श्रमण के निर्देशन में आत्म-निग्रह का अभ्यास करने लगे। आत्म-पीड़न की पराकाष्ठा पर पहुंच उसने इंद्रियों के आवेगों को, अपनी स्मृतियों को कुचल दिया। लेकिन हर प्रयास के अंत में उसने नई प्यास महसूस की, स्व में ही लौट आया। अब वह व्यग्र होने लगा था। एक दिन उसने गोविन्द से कहा- ‘अब तक श्रमणों से मैंने जो कुछ सीखा है वह मैं कहीं अधिक जल्दी और आसानी से वेश्याओं के मुहल्ले में, हर सराय में, कहारों और जुआरियों के बीच सीख जाता।’ (पृ.-17) उसे लगने लगा था कि यह सब तो अपनी निजता से भागना है, अस्थाई उपचार है; तृष्णा तो कहीं कम हुई नहीं। उसने कहा-
‘हमें निर्वाण नहीं प्राप्त होगा। हम सान्त्वनाएं खोजते हैं, हम अपने को छलने के लिए चालें सीखते हैं, लेकिन असली चीज- वह पथ- हमें नहीं मिलता। केवल एक ज्ञान है जो हर जगह है, जो आत्मन् है, जो मुझमें और तुममें और हर जीव में है, और मुझे अब विश्वास होने लगा है कि इस ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु ज्ञानी पुरुष के सिवा, शिक्षा के सिवा और कोई नहीं है। (पृ.-19)
इसी बीच उन्होंने शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के विषय में चर्चा सुनी। उपदेशों के प्रति सिद्धार्थ सशंकित था, फिर भी उत्कंठा जाग्रत हो रही थी। वे श्रमणों को छोड़ गौतम के दर्शनार्थ श्रावस्ती नगर पहुंचे। नगर के पास ही गौतम का आवास जेतवन था। वहीं संध्या समय दोनों ने बुद्ध का उपदेश सुना- दु:ख, दु:ख के कारण, दु:ख के निवारण के उपाय पर। उन्होंने चार आर्ष सत्य सिखाए, अष्टांगिक मार्ग सिखाया।
सिद्धार्थ निश्चय करता है कि अपने विषय में निर्णय उसे स्वयं करना होगा, चुनना और ठुकराना होगा; अन्यथा उसका स्व तो जीवित ही रह जाएगा, जिसे उसे तिरोहित कर देना है। उसे लगा कि बुद्ध ने उसे लूट लिया है, लेकिन बहुत कुछ दे भी दिया है- ‘उन्होंने मुझे सिद्धार्थ दे दिया है, मुझे मेरा अपना आप दे दिया है।’ अब उसे कोई और गुरु नहीं खोजना था।
अब वह आत्ममंथन में लीन अनजान पथ का पथिक है। वह स्वयं को आत्म से रहित नहीं कर सका क्योंकि वह उसी से भागता रहा जिसे वास्तव में पाना चाहता था। वह सोचता है- ‘आत्मा को खोजने में मैंने स्वयं को खो दिया। अब वह खुद का विद्यार्थी बन खुद से ही सीखेगा कि सिद्धार्थ है क्या? अब वह जाग चुका है। वह केवल सिद्धार्थ है- अकेला; न किसी का पुत्र, न मित्र, न ब्राह्मण, न संन्यासी। यही उसकी जागृति का अन्तिम कम्पन था।
अब वह दृश्य जगत को- प्रकृति को, सीधे उसमें ही देखता-सीखता चल पड़ा। उसे तो अब वही अनुभव करना था, जो गौतम ने बोध की एक घड़ी में कभी किया था। उसे विचार और इन्द्रिय दोनों की आवाजों को ध्यान से सुनना है। किसी में अपने को डुबो नहीं देना है। नदी पार की तो कुछ मल्लाह से सीखा, नदी से सीखा। वह एक बड़े नगर के पास पहुंच चुका है, जहां उसने एक कुंज के समीप सेवक-सेविकाओं से घिरी, अलंकृत पालकी में बैठी नगर की सुप्रसिद्ध गणिका सुन्दरी कमला को देखा। उससे मिलने की उत्कट इच्छा लिए सिद्धार्थ अगले दिन सज-संवर कर कुंज पर पहुंच गया। उसने कमला से कहा- ‘तुम पहली औरत हो जिससे सिद्धार्थ ने बिना आंखें नीची किए बात की है। …मैं तुम्हें अपना मित्र और गुरु बनने का अनुरोध करूंगा, क्योंकि मुझे उस कला के बारे में कुछ नहीं मालूम जिसकी तुम स्वामिनी हो (पृ.-42)।’ उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो चुकी थी। उसने सीखा कि सुन्दर स्त्री के प्रेम का आनन्द पाने के लिए उसे प्रिय लगने योग्य कुछ देना आवश्यक है और बिना उस स्त्री की इच्छा के उससे मधुरता की एक बूंद भी नहीं पायी जा सकती, प्रेम कभी चुराया नहीं जा सकता। उसने एक कविता सुनाई जिस पर प्रसन्न होकर कमला ने उसे चुम्बन दिया। उस क्षण सिद्धार्थ एक बच्चे के सरीखा था- अपनी आंखों के सामने खुलते ज्ञान और शिक्षा के भंडार पर विस्मित। वह अब श्रमण नहीं था। अतिशय आत्मविश्वास से परिपूर्ण सिद्धार्थ के पास एक लक्ष्य था, एक उद्देश्य था, उसे ढेर सारा धन अर्जित करना है- कमला का प्रेम हासिल करने के लिए। वह जानता है- ‘हर व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है, अगर वह सोच सकता है, प्रतीक्षा कर सकता है, उपवास रख सकता है (पृ.-48)।’ यही तो उसने श्रमणों से सीखा।
कमला उसे नगर के धनी व्यापारी कामस्वामी के पास इस हिदायत के साथ भेजती है कि उसे कामस्वामी का सेवक नहीं बल्कि बराबरी का बनना है। इस दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्म विश्वास के कारण सिद्धार्थ धीरे-धीरे उसके व्यापार में हिस्सेदार बन गया। लेकिन उसने व्यापार को हमेशा खेल की तरह लिया, कभी अपने पर हावी नहीं होने दिया। उसकी मौजूदा जिन्दगी का मूल्य और अर्थ यहां कमला के साहचर्य में था, कामस्वामी के व्यापार में नहीं। वह रोज तरह-तरह के अच्छे-बुरे लोगों से मिलता, उनकी सुनता, उन्हें सलाह देता, उनसे सहानुभूति व्यक्त करता। लेकिन उसका असली स्व कहीं और भटकता था, कहीं दूर, अदृश्य रूप से आगे और जिसका इस जिन्दगी से कोई सम्बंध नहीं था। वह नियमित रूप से कमला से मिलने जाता, जिसने एक दिन उससे कहा- ‘तुम सबसे अच्छे प्रेमी हो जो मेरे हिस्से में आए हो। …और इस पर भी, प्यारे, तुम एक श्रमण ही बने रहे हो। तुम सच में मुझसे प्रेम नहीं करते। तुम किसी से भी प्रेम नहीं करते। क्या सच नहीं है? (पृ.-56)’
सिद्धार्थ ने उत्तर दिया- ‘मैं तुम्हारी तरह हूं। तुम भी प्रेम नहीं कर सकतीं, वरना तुम कला की तरह प्रेम का अभ्यास कैसे करतीं? शायद हमारे जैसे लोग प्रेम नहीं कर सकते। आम लोग कर सकते हैं- यही उनका रहस्य है (पृ.-56)।’
वर्ष गुजरते चले गए। वह धनी बन गया था। उसकी सुन्न इन्द्रियां जाग रही थीं। जाग्रत हुई इन्द्रियों ने संसार को बहुत कुछ जाना, बहुत कुछ अनुभव किया। उसने आम लोगों की कुछ विशेषताएं अपना लीं। फिर भी- ‘वह उस एक चीज को लेकर उनसे ईर्ष्या करता जिसका उसके पास अभाव था और जो उनके पास थी- महत्व की वह भावना जिससे उन्होंने जीवन जिया था; उनके सुखों और दु:खों की गहराई, प्यार करने की उनकी निरन्तर शक्ति का मधुर आह्लाद (पृ.-58)।’ धीरे-धीरे अमीर लोगों की आत्मिक रुग्णता उस पर हावी होती चली गई। संसार ने उसे जकड़ लिया था। अब वह बड़े-बड़े दांव लगाकर पासों का खेल खेलने लगा था; तो कभी वह मदिरा के आवेग की तरफ भागता। उधर कमला भी अब थक चुकी थी। एक दिन वह बार-बार सिद्धार्थ से तथागत बुद्ध के विषय में पूछती रही और फिर तीव्र भावावेश में उसे जकड़ लिया मानो वह इस अस्थिर, क्षणभंगुर आनन्द की आखिरी मधुर बूंद निचोड़ लेना चाहती हो। अवसाद और उदासी की भावना से भरा व्यग्र सिद्धार्थ अगली सुबह आनन्द वाटिका में एक आम के पेड़ के नीचे जा बैठा। क्या इसी आनन्द को प्राप्त करना उसका लक्ष्य था। उसने तो सोचा था: ‘आगे बढ़ो, बढ़ते रहो, यही तुम्हारा पथ है (पृ.-63)।’ कितने ही वर्ष उसने बिता दिए छोटे—छोटे सुखों से संतुष्ट तिस पर भी कभी सचमुच तृप्त हुए बिना। और तभी सिद्धार्थ को यह बोध हुआ कि खेल अब खत्म हो चुका था। वह उठा और कभी न वापस आने के लिए चल दिया। कमला अब गर्भ से थी।
अपने इस अतीत के प्रति वितृष्णा से संतप्त सिद्धार्थ भटकता हुआ उसी नदी के तट पर जा पहुंचा जो कभी उसे मल्लाह ने पार कराई थी। अपने इस घृणित शरीर को नदी में डुबो कर समाप्त कर देने के उद्देश्य से वह झुका ही था कि भीतर से उसे एक ध्वनि-पूर्णता का महामंत्र ‘ओम्’ सुनाई दी जिसने उसकी आत्मा को झकझोर कर जगा दिया। मन ही मन ओम् का उच्चारण करता हुआ वह गहरी नींद में सो गया। इस अद्भुत निद्रा से जब वह जागा तो पूर्णतया प्रफुल्लित, नई जीवन-दृष्टि के साथ ओम् से परिव्याप्त आनन्दमय प्रेम से भरा हुआ। उसने समझा और महसूस किया कि अन्तरात्मा की वह आवाज सही थी कि कोई गुरु उसे मोक्ष नहीं दिला सकता था जब तक कि उसके अन्दर का पुजारी और श्रमण मर नहीं जाते जहां उसका स्व अहंकार बनकर पैठ चुका था। इसके लिए तो संसार में जाना ही था, उसका संताप झेलना ही था। उसने अब नदी के पास ही रहने का निश्चय किया। उसे उस मांझी का स्मरण हो आया जिसने उसे यह बोध कराया था कि नदी भी कुछ कहती है, कुछ सिखाती है। उसने नदी की तरफ देखा जहां एक रहस्य दिखा- ‘उसने देखा कि पानी तो लगातार बहता था, बहता ही जाता था, तिसपर भी वह हमेशा वहीं रहता था; वह हमेशा वैसे का वैसा रहता था ; तिसपर भी हर पल वह नया पानी था (पृ.-76)।’ घाट पर केवट वासुदेव ने उसे पहचान लिया और अपनी कुटिया पर आमंत्रित किया। संध्या समय सिद्धार्थ ने बड़ी देर तक उसे अपने पिछले जीवन की पूरी दास्तान सुनाई, जिसे उसने बड़े ध्यान से सुना। सिद्धार्थ ने केवट की एक बड़ी विशेषता को महसूस किया कि उसे मालूम था कैसे सुना जाए। ऐसा सुनने वाला पाना कितना अद्भुत था जिसे अपनी जिन्दगी, अपने उद्यमों, अपने दु:खों में समाहित किया जा सके। वासुदेव ने उससे अपने साथ ही रहने का आग्रह किया और बताया कि ऐसा बहुत कुछ है जो उसे नदी से सीखना है।
वर्ष बीतते गए। एक दिन अचानक खबर फैली कि तथागत गंभीर रूप से बीमार थे। एक युग का उद्धारक अनन्तता में समाहित होने जा रहा था। भिक्षुओं के दल के दल उनके अंतिम दर्शन हेतु नदीपार करने को जुट रहे थे। सिद्धार्थ भी उनके विषय में सोच रहा था। उसे लगा कि वह गौतम से कभी अलग नहीं हुआ था, हालांकि वह उनके सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं कर सका। एक सच्चा अन्वेषक किसी प्रकार के सिद्धान्त स्वीकार नहीं कर सकता था, अगर उसमें सचमुच निष्ठा के साथ कुछ खोजने की आकांक्षा थी।
कमला भी बुद्ध के अंतिम दर्शन हेतु अपने बेटे के साथ पैदल ही निकल पड़ी। नन्हा सिद्धार्थ थक गया था अत: वे दोनों विश्राम करने हेतु एक पेड़ के नीच बैठ गए। तभी एक सांप ने कमला को डस लिया। दोनों चीखते हुए नदी की तरफ भागे। वासुदेव ने उनकी चीख सुन ली थी। वह दौड़ता हुआ आया और लड़खड़ाती कमला को उठाकर अपनी कुटिया पर ले गया, जहां सिद्धार्थ मौजूद था। वह कमला को पहचान गया और उसे यह बोध हुआ कि यह उसी का बेटा था। थोड़े उपचार के बाद कमला की चेतना लौटी तो उसने सिद्धार्थ को अपने निकट पाया। उसने बेटे की तरफ इशारा कर बताया कि यह उसी का बेटा था। वह गौतम के दर्शन हेतु जाना चाहती थी पर पहुंच गई सिद्धार्थ के पास। उसे अच्छा लगा मानो दूसरे तथागत को देख रही हो। मृत्यु की अंतिम पीड़ा आंखों में उभर कर शांत हो गई। सिद्धार्थ की उंगलियों ने उसकी पलकें मूंद दीं। वह काफी देर तक वहां बैठा उसके मृत चेहरे को देखता रहा। इस समय उसे और भी तीव्रता से हर जीवन की अनश्वरता का, हर पल की अनन्ता का, एहसास हुआ। वह बाहर चला गया और अपने जीवन के सभी चरणों से एक ही साथ प्रभावित और आच्छादित, अतीत में डूबा हुआ, नदी को सुनता, कुटिया के सामने सारी रात बैठा रहा। इस दु:ख के बावजूद उसे एक खुशी मिली थी, उसे उसका बेटा मिल गया था। उन्होंने भारी मन से कमला का अंतिम संस्कार संपन्न किया।
सिद्धार्थ को उसका पुत्र तो मिला लेकिन वह उसका अपना नहीं हो पा रहा था। बड़े धैर्य से वह उसे जीतने का प्रयास करता रहा। जैसे-जैसे समय बीता लड़का और अधिक प्रतिकूल और खिन्न बना रहा, अवज्ञा और उद्दंडता से भरा व्यवहार करने लगा। लेकिन इस प्रेम के दु:ख और परेशानी की अपेक्षा उसे पुत्र अधिक प्रिय था। उसकी इस वेदना को वासुदेव समझता था। एक दिन वासुदेव ने उसे अलग ले जाकर समझाया- ‘…यह युवा पखेरू एक अलग जिन्दगी, एक अलग घोंसले का आदी है। वह धन-सम्पदा से और नगर से उकताहट और घृणा की भावना से नहीं भागा, जैसा कि तुमने किया था, उसे ये सारी चीजें अपनी इच्छा के खिलाफ छोड़नी पड़ी हैं। …लेकिन क्या उसके प्रति कठोरता से काम न लेना, उसे दंड न देना, तुम्हारी भूल नहीं है? क्या तुम अपने प्रेम से बांधते नहीं हो? तुम रोज अपनी भलाई और धैर्य से उसे लज्जित नहीं करते और उसके लिए और भी कठिनाई नहीं पैदा करते (पृ.-88-89)?’ उसने समझाया कि जिस संसार का वह है, उसमें उसे जाने दे। कोई भी पिता या गुरु नियति को रत्ती भर भी नहीं बदल सकता। लेकिन सिद्धार्थ के ज्ञान से अधिक शक्तिशाली था उसका पुत्र प्रेम, उसे खो देने का भय। यह मानवीय आवेग निरर्थक नहीं था, आवश्यक था- यही संसार था। यह भावना, यह पीड़ा, ये मूर्खताएं भी अनुभव की जानी थीं।
एक दिन सुबह लड़का गायब था। मर्माहत सिद्धार्थ उसे दर-दर ढूंढता नगर के समीप उस वाटिका तक जा पहुंचा जो कभी कमला की थी। अतीत ने उसे आ घेरा और वह उदास भाव से वहीं बैठ गया। उसने खुद को ‘ओम्’ से भर लिया और घंटों वहीं बैठा रहा। उसे खोजता वासुदेव वहां जा पहुंचा और उसे समाधि से जगाया। दोनों नि:शब्द कुटिया पर लौटे और फिर सिद्धार्थ गहरी नींद में सो गया। अब सिद्धार्थ जिनको भी अपने बच्चों के साथ देखता, उनसे उसे ईर्ष्या होती और मन कचोटता। लोगों में संतान के प्रति अंधे प्रेम और गर्व की दृढ़, जीवंत और आवेग भरी प्रेरणाओं को वह सम्मान की दृष्टि से देखने लगा था। इन समस्त सुरों के इस महान गीत में एक ही शब्द गूंजता -ओम्- पूर्णता। उसका घाव भर रहा था, उसकी पीड़ा छंट रही थी; उसका आत्म अद्वैत में समा गया था। वासुदेव को इसी घड़ी की प्रतीक्षा थी। वह उठा, सिद्धार्थ से विदा ली और दूर वन की तरफ चला गया।
उधर गोविन्द का हृदय अब भी अशान्त था। उसकी खोज निरन्तर जारी थी। नगर में उसने बूढ़े मांझी की चर्चा सुनी और उससे मिलने को नदी तट पर जा पहुंचा। उसने सिद्धार्थ को नहीं पहचाना और जानना चाहा कि उसने क्या खोजा। सिद्धार्थ ने कहा- ‘…खोजने का मतलब है मुक्त होना, ग्रहण करने योग्य होना, किसी लक्ष्य को सामने न रखना। तुम, भन्ते, शायद सचमुच एक अन्वेषक हो, क्योंकि अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के प्रयास में तुम बहुत सी चींजे नहीं देखते जो तुम्हारी नाक के नीचे हैं (पृ.-103)। ’ उसने अपना परिचय दिया और गोविन्द को रात बिताने के लिए अपनी कुटिया पर ले गया। उसके प्रश्नों के उत्तर में उसने कहा- ‘…प्रज्ञा या बुद्धि सम्प्रेषित नहीं की जा सकती। जो बुद्धि एक बुद्धिमान व्यक्ति सम्प्रेषित करने की कोशिश करता है, वह हमेशा सुनने में मूर्खता जान पड़ती है। …ज्ञान बांटा जा सकता है लेकिन बुद्धि नहीं (पृ.-104)। ’ उसने कहा कि इसीलिए उसने गुरुओं से सदा दूरी रखी; क्योंकि उनके पास शब्दों के अतिरिक्त शिक्षा देने का और कोई तरीका नहीं है। हर बात जो शब्दों में सोची और व्यक्त की जाती है, वह एकपक्षी है, केवल अर्ध-सत्य है। लेकिन खुद दुनिया, जो हमारे भीतर और चारों ओर है, कभी एकतरफा नहीं होती। उसे तो संसार को जीना ही था, उसकी हताशा की गहराइयों का अनुभव करना ही था, ताकि वह उनका प्रतिरोध न करना सीख सके, ताकि वह दुनिया को प्यार करना सीख सके और उसके होने में खुशी महसूस करे। दुनिया में प्रत्यक्ष दिखाई देती चीजें विचारों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। दुनिया के प्रति, खुद अपने प्रति और सभी जीवों के प्रति प्रेम करना ही महत्वपूर्ण है, उनका तिरस्कार करना नहीं।
गोविन्द का भ्रम दूर नहीं हो रहा था। तब सिद्धार्थ ने कहा- ‘मेरे निकट आओ। मेरे ललाट को चूमो गोविन्द।’ जैसे ही उसने यह किया उसके साथ कुछ अद्भुत घटित हुआ। संसार में निरन्तर घटित होती घटनाएं उसकी दृष्टि के सामने प्रवाहमान थीं। सभी एक-दूसरे से मिल जातीं और सबके ऊपर था एक मुखौटा- सिद्धार्थ का मुस्कराता चेहरा। सिद्धार्थ की यह मुस्कान- हूबहू वैसी ही थी जैसी तथागत की शान्त, सुकुमार, अभेद्य प्रज्ञावान मुस्कान। गहरे प्रेम की, अत्यन्त विनम्र श्रद्धा की भावना से अभिभूत गोविन्द ने सिर नीचे झुकाया- वहां निश्चल बैठे उस आदमी के सामने, जिसकी मुस्कान उसे उस सबकी याद दिला रही थी जिससे उसने जिन्दगी में कभी प्यार किया था, उस सबकी जो जिन्दगी में कभी मूल्यवान और पवित्र रहा था। (पृ.-111)
इस तरह हरमन हेस यह कहना चाहते हैं कि जीवन की वास्तविक मुक्ति संसार को छोड़ने में नहीं, बल्कि इसे स्वीकार कर इसकी सेवा करने में है। जीवन का लक्ष्य जीवन से पलायन नहीं, जीवन की स्वीकृति है।
अपने इस उपन्यास सिद्धार्थ में, हरमन हेस यह दर्शाते हैं कि जीवन के लक्ष्य को स्वीकार कर इसकी सीमाओं को अतिक्रमित करना और इसकी सेवा करना ही मोक्ष है; आत्म-निग्रह और आत्म-पीड़न, अपनी इन्द्रियों के आवेगों और स्मृतियों को कुचलने में नहीं। ऐसे हर प्रयास के अन्त में कोई नई प्यास महसूस होती है। इसीलिए अपनी निजता से भागना कोई समाधान नहीं है।
इसी तरह गौतम की शिक्षा केवल दुखों से मुक्ति का मार्ग दिखाती है। व्यक्ति को गौतम के वे अनुभव सम्प्रेषित नहीं किए जा सकते जिन्हें उन्होंने अपनी साधना के दौरान प्राप्त किया था। अन्तत: सिद्धार्थ कमला से, व्यवसाय से, जुए से, नदी से, केवट से और अपने पुत्र से यह अनुभव प्राप्त करता है कि संसार सत्य है, जीवन में निरन्तर घटती घटनाएं ही महत्वपूर्ण हैं। इस तरह यह ईसाई लेखक हरमन हेस हिन्दू दर्शन, बौद्ध दर्शन, नास्तिक दर्शन आदि से कुछ महत्वपूर्ण तो लेते हैं लेकिन बहुत कुछ छोड़ने के लिए विवश भी हैं। अन्तत: वह इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जीवन ही सत्य है और तमाम कठिनाइयों के बावजूद इसकी सेवा ही सर्वोपरि है। यह किसी बौद्ध को खटक सकता है, किसी नास्तिक या सनातनी को भी, लेकिन लगता तो यह सत्य ही है। यदि इसमें निहित ईसाइयत को भुला दिया जाय, जिसके प्रभाव से लेखक उबर नहीं पाते। सम्भवत: इसी कारण हरमन हेस, ईसाइयत को संदर्भ में लिए बगैर, जीवन की अर्थवत्ता का यह निष्कर्ष देते हैं जिससे असहमत होना किसी विवेकी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। 