बनवारी

अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों को विभाजित रखने और लड़वाते रहने के लिए जिस सेक्युलरिज्म की नींव डाली थी, उसकी विदाई का समय आ गया है। पिछली बार लोकसभा चुनाव ने और इस बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया है कि मुसलमानों को मोहरा बनाकर चुनाव नहीं जीता जा सकता। इस बार के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कोई सवा दो सौ मुस्लिम उम्मीदवार थे। राज्य की अब तक अधिकांश समय सत्ता में रही तीनों पार्टियों ने यह सोचकर सबसे अधिक मुसलमान उम्मीदवारों को खड़ा किया था कि भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध एकजुट होकर मुसलमान उन्हें वोट देंगे और वे चुनाव जीत जाएंगे। मुसलमान कहीं एकजुट हुए, कहीं विभाजित रहे, लेकिन उनके समर्थन से केवल 24 मुस्लिम विधायक विधानसभा में पहुंच पाए। इससे पहले केवल 1991 में 23 विधायक जीत पाए थे। लेकिन वह राम लहर का जमाना था। इस बार भारतीय जनता पार्टी ने किसी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। उनका तर्क था कि उन्होंने मुसलमानों से नहीं, मुसलमानों ने उनसे दूरी बना रखी है। वे किसी मुसलमान को अपने टिकट पर चुनाव नहीं जिता सकते। इसलिए मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा करने का दिखावा उन्हें ठीक नहीं लगता।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का यह परिणाम केवल आज की राजनैतिक परिस्थितियों की झलक नहीं है। वह आने वाले समय की भी झलक है। अब किसी को इस बात में संदेह नहीं रह गया है कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी को विशाल बहुमत मिलने वाला है। इस बीच जहां-जहां चुनाव होने हैं, भारतीय जनता पार्टी की जिन क्षेत्रों में अब तक कोई उपस्थिति नहीं थी, वहां भी वह अपना विस्तार करने में सफल होने वाली है। मणिपुर और अरुणाचल से इसकी झलक पाई जा सकती है। अब तक पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल उसकी शक्ति के विस्तार में बाधा बने रहे हैं। लेकिन इन सभी राज्यों के स्थापित राजनैतिक तंत्र की जीर्णता सामने आने लगी है। ममता बनर्जी लगातार मुश्किल में घिर रही हैं, जयललिता अब हैं नहीं। केरल में मार्क्सवादी और कांग्रेस एक-दूसरे का स्थानापन्न बनते रहे हैं। लेकिन दोनों की राजनीति अब नई चुनौतियों का सामना कर रही है।

भारतीय राजनीति में हो रहे इन परिवर्तनों को केवल दलीय राजनीति के सहारे नहीं समझा जा सकता। यह भारतीय राजनीति की दिशा में हो रहा बहुत बड़ा परिवर्तन है। पिछले 70 वर्ष की राजनीति के मुद्दे और मुहावरे अंग्रेजी शासन के दौरान तय हुए थे। उन्होंने मुस्लिम अलगाववाद को बढ़ावा दिया, जातियों के बीच सद्भाव व समरसता तोड़कर दलित राजनीति को जन्म दिया, सत्ता के सभी ठिकानों पर ऊंची जाति के लोगों को बिठा दिया और आर्थिक लाभ के सभी अवसर उनके हवाले कर दिए। इससे अन्य वर्गों में उनके प्रति विद्वेष जन्मा और भारतीय समाज राजनीति के द्वारा विभाजित और कुंठित किया जाता रहा। भारतीय समाज की एकता का आधार रहे धर्म और जाति को राजनीतिक मुहावरे में निंदित बना दिया गया। आज तक भारत के सभी नेता उन्हीं मुहावरों को रटे जाते रहे हैं। लेकिन अंग्रेजों के द्वारा विकसित भारतीय समाज को बांटने और विभिन्न समुदायों-समूहों को एक-दूसरे से लड़वाते रहने की यह राजनीति अब निरर्थक होती दिख रही है।

यह दुर्भाग्य की बात है कि पिछले सात दशक से भारतीय राजनीति उन मुद्दों के सहारे चलाई जाती रही थी, जो अंग्रेजों ने भारतीय समाज का विभाजन करके अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए गढ़े थे। महात्मा गांधी ने इस राजनीति का प्रतिकार करने की भरसक कोशिश की। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पैदा करने के लिए हिंदू समाज को खिलाफत आंदोलन का सहयोगी बना दिया। लेकिन मुस्लिम अलगाववाद केवल अंग्रेजों की देन नहीं था। इस्लाम की कुछ मान्यताएं भी उसकी जड़ें सींचती थीं। जो अली भाई खिलाफत आंदोलन में महात्मा गांधी का समर्थन पाने के लिए छाया की तरह उनके साथ रहे, उन्हीं ने खिलाफत आंदोलन की असफलता के बाद महात्मा गांधी को मुंह चिढ़ाते हुए कहा कि इस्लाम के अनुसार एक पतित मुसलमान भी एक पवित्र विधर्मी से ऊंचा माना जाता है। इसी मानसिकता का फायदा अंग्रेजों ने उठाया। मुसलमान नेताओं की इन अलगाववादी प्रवृत्तियों को अंग्रेजों का समर्थन-संरक्षण मिलता रहा। उसी की प्रतिक्रिया हिंदू समाज में हुई और हिंदू महासभा से लगाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन अस्तित्व में आए। महात्मा गांधी का हिंदू समाज पर जो प्रभाव था, उसके कारण अंग्रेजों की अन्य विभाजक नीतियां तो सफल नहीं हुर्इं, लेकिन मुस्लिम अलगाववाद के कारण उनकी हिंदू-मुसलमानों को लड़ाने की रणनीति सफल हो गई और भारत को विभाजन का दंश झेलना पड़ा। कांग्रेस के नेताओं ने 1947 में महात्मा गांधी को किनारे करके विभाजित भारत का शासन स्वीकार किया था। जवाहर लाल नेहरू ने न केवल शासन, बल्कि शासन की सारी रीति-नीति वही बनाए रखी, जो अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक शासन के लिए गढ़ी थी। स्वतंत्र भारत के अधिकांश दल और नेता कांग्रेस से ही निकले हैं और उन सबने अपने राजनैतिक उत्तराधिकार को वहीं से ग्रहण किया है। इसलिए भारत के अधिकांश दलों की राजनीति भारतीय समाज के विभाजन की रणनीति पर टिकी रही। अपने आपको मार्क्सवादी या वामपंथी कहने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों ने मुस्लिम समर्थन और हिंदू विरोध को ऊंचा राजनैतिक सिद्धांत बना लिया। सेक्युलरिज्म के नाम पर हिंदू कट्टरता और हिंदू आक्रामकता की एक कल्पित छवि उकेर ली गई। यह सब करते हुए उन्हें यह ध्यान नहीं रहा कि बहुसंख्यक हिंदू समाज में अपने साथ हो रहे इस अन्याय की प्रतिक्रिया हो सकती है। वामपंथी यह भी भूल गए कि जिस यूरोप से उन्होंने सेक्युलरिज्म का विचार लिया है, वहां केवल चर्च ही दमनकारी और अत्याचारी नहीं रही, सेक्युलर राज्य और संस्थाएं भी उतनी ही असहिष्णु और दमनकारी रही हैं। दूसरी तरफ हिंदू समाज की सहिष्णु प्रवृत्ति के कारण ही भारतीय सभ्यता अब तक सबकी आश्रय स्थली बनी रही है।

इस्लाम की अनेक मान्यताएं भारतीय सभ्यता की मूल भावना के विरुद्ध हैं। इसके बाद भी भारत में मुसलमानों के साथ कभी राजनैतिक भेदभाव नहीं बरता गया। जबकि भारत से अलग हुए पाकिस्तान और भारत की सहायता लेकर बने बांग्लादेश ने अपने यहां के हिंदुओं से भेदभाव ही नहीं किया, उनको इस्लाम स्वीकार करने या पलायन करने के लिए विवश किया। भारत के भीतर भी कश्मीर घाटी में हिंदुओं के साथ क्या व्यवहार हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। इस सबकी प्रतिक्रिया साधारण हिंदुओं में होती रही। उन्होंने अमरनाथ यात्रा या वैष्णो देवी की यात्रा पर और बड़ी संख्या में जाकर अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। इसके लिए उन्हें अपनी जान भी जोखिम में डालनी पड़ी। अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे भारत के सनातन धर्म और सभ्यता के पवित्र केंद्रों पर मंदिर तोड़कर बनवाई गई मस्जिदें जिदपूर्वक बनाई रखी गर्इं। जब उसकी प्रतिक्रिया बाबरी आंदोलन में हुई तो उसे हिंदू सांप्रदायिकता कहकर उसकी निंदा की गई। सेक्युलर राजनीति के अलंबरदारों ने गोधरा में कारसेवकों की हत्या को मुद्दा नहीं माना, उसकी प्रतिक्रिया में हुए दंगों को ही मुद्दा माना। इस तरह के एकतरफा अन्याय और भेदभाव की प्रतिक्रिया न होती, यह संभव नहीं था।

भारत के लोगों का स्वभाव शांतिमय परिवर्तन का स्वभाव है। पिछली दो शताब्दियों में चीन में जो आंतरिक संघर्ष और खून-खराबा हुआ है, उस तरह के परिवर्तनों में उन्नत सभ्यता वाले भारतीय रुचि नहीं रखते। पाकिस्तान के लोग भी भारतीय मूल के ही है, लेकिन इस्लाम ने उनके स्वभाव को काफी बदल दिया है। पाकिस्तान ने पिछली तीन शताब्दियों में जिस आतंकवाद को प्रश्रय दिया है, वह सबसे अधिक अब उन्हीं को संकट में डाले हुए है। फिर भी पाकिस्तान अपने यहां की आंतरिक हिंसा से अघाया हुआ नहीं लगता। भारतीयों को इस तरह की हिंसा की आदत नहीं है। इसलिए मुस्लिम अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली राजनीति को देश के साधारण लोगों ने इतनी सहजता से किनारे कर दिया है। राजनीति की यही दिशा अब स्थिर रहने वाली है। नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी राजनीति की इस नई दिशा के माध्यम बने हैं, उसका प्रवर्तक तो भारतीय समाज ही है।

यह महत्वपूर्ण बात है कि सेक्युलर बुद्धिजीवियों की निंदा का केंद्र रहे योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री पद सौंप दिया गया और मुसलमानों में उसकी कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं हुई। गोरखपुर में उनके मुख्यमंत्री बनने पर मुसलमानों में भी उतना ही उत्साह है, जितना हिंदुओं में है। मुसलमानों और हिंदुओं को एक-दूसरे का राजनैतिक विरोधी बनाए रखने का दोष जितना मुस्लिम नेताओं पर है, उतना ही सेक्युलर नेताओं और बुद्धिजीवियों पर भी है। लेकिन उनके विचारों का मूल स्रोत और संरक्षक कांग्रेस अब शक्तिहीन हो चली है। अपने आपको ब्रिटिश औपनिवेशिक राजनीति का उत्तराधिकारी बनाकर तो उसने अपना राजनैतिक भविष्य चौपट कर ही रखा था। रही-सही कसर अपनी कमान एक परिवार को सौंपकर उसने पूरी कर ली। नेहरू-गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी में अब कोई नेतृत्व देने की स्थिति में नहीं है। फिर भी कांग्रेस इस परिवार की जकड़बंदी से बाहर नहीं निकलना चाहती। यह ऐतिहासिक न्याय ही है कि कांग्रेस और उसके सहारे चलती रही विभाजक राजनीति अब एक साथ ही विदा हो रहे हैं।

भारतीय राजनीति के इस दौर में मुसलमानों की जगह रहेगी, मुस्लिम अलगाववाद की नहीं। मुसलमानों के धार्मिक और राजनैतिक नेताओं को तय करना है कि वे सेक्युलर नेताओं और बुद्धिजीवियों के उकसाने पर हिंदू समाज से लड़ाई ठाने रहेंगे या जिस हिंदू-मुस्लिम एकता का रास्ता महात्मा गांधी ने दिखाया था, उस पर चलेंगे। महात्मा गांधी से मुसलमानों के मामले में मतभेद रखते हुए भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के नेता लगभग उन्हीं के बताए रास्ते पर चलते रहे हैं। अगर मुस्लिम नेता हिंदू-मुसलमानों के बीच की दूरी पाटना चाहते हैं तो हिंदू संगठनों से उन्हें सहयोग ही मिलेगा। कोई भी देश अपने बहुसंख्यक समुदाय को छोड़कर और उसके द्वारा विकसित सभ्यता दृष्टि को छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता। भारत के मुसलमानों को अपनी इस्लाम संबंधी निष्ठाएं छोड़ने के लिए कोई नहीं कहेगा। लेकिन उनसे यह आग्रह अवश्य रहेगा कि जहां उनकी धार्मिक मान्यताओं का भारतीय सभ्यता के मूल सिद्धांतों से मेल नहीं है, वहां वे अपने धार्मिक आग्रहों को सुधारने-बदलने के लिए चिंतन-मनन करें। आज स्थिति यह हो गई है कि मुसलमानों के नेता नहीं बदले तो मुस्लिम समाज स्वयं अपनी नई दिशा तय करने लगेगा। जैसा कि तीन तलाक वाले मामले से स्पष्ट है। भारत के मुसलमान बहुत से मामलों में शेष भारतीयों के समान ही जीवन जीना चाहेंगे। वे अरब परिस्थितियों में पैदा हुई इस्लामी रूढ़ियों से नहीं बंधे रहेंगे। सेक्युलरिज्म की विदाई की भारतीय राजनीति की यह नई दिशा भारत के हिंदू और मुसलमान दोनों को निकट लाएगी।

यह ध्यान रखना चाहिए कि हिंदू समाज को अपने प्रति किए गए अन्याय की स्मृति है, फिर भी कभी उन्होंने बदला लेने की भावना नहीं रखी। मुसलमानों की अपने प्रति किए गए अन्याय की कोई वास्तविक स्मृति नहीं है। उनके नेता केवल यह कहकर उनमें असुरक्षा और उससे पैदा होने वाली आक्रामकता बढ़ाते रहे हैं कि हिंदुओं का राज्य आया तो वे मुसलमानों से पिछले अन्यायों का बदला लेंगे। यह काल्पनिक असुरक्षा है और उसे अनंतकाल तक पाला-पोसा नहीं जा सकता। मुस्लिम समाज यह देखता है कि हिंदुओं की बहुसंख्या के बावजूद वे भारत में ही अधिक सुरक्षित हैं, जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमान हर समय कट्टरपंथियों के निशाने पर बने रहते हैं। अब तक निरंतर होती रही यह प्रतीति उन्हें अपने अतिवादी नेताओं से दूर ले जा सकती है। अब तक सेक्युलर नेताओं को वे अपनी ढाल समझते रहे। अब सेक्युलरिज्म की विदाई के बाद उन्हें उकसाना-बरगलाना इतना आसान नहीं रह जाएगा। वहीं हिंदुओं के अतिवादी नेताओं की भाषाई आक्रामकता को नियंत्रण में रखना भी आवश्यक है। यह काम सतर्कतापूर्वक करना पड़ेगा, क्योंकि अब तक की राजनीति में भाषाई अनुशासन को तिलांजलि दी जाती रही है। भारतीय समाज की एकता बनाए रखने की जिम्मेदारी जितनी मुसलमानों पर है, उतनी हिंदुओं पर भी है।