आशुतोष मिश्र।

पुणे के फुले विश्वविद्यालय में सीताराम येचुरी ने कहा है कि उन्हें भारतीय सेना का विरोधी कहे जाने पर आपत्ति है। उन्होंने कहा कि उनके मन में भारतीय सेना के लिए कोई द्वेष भाव नहीं है और वे स्वयं ‘भारत के सिपाही’ हैं। ‘भारत के सौ टुकड़े’ करने वाले जेएनयू के इंशाअल्ला ब्रिगेड के इस नेता का यह बयान कुछ अचरज पैदा करता है। इसी तरह अपनी जनसभाओं में कलमा पढ़ने के बाद भाषण शुरू करने वाली ममता बनर्जी को अब अचानक चिंता होने लगी है कि भाजपा रामनवमी और ओम शब्द पर दावा करने लगी है। रामनवमी पर बंगाल में हिंदुत्व के प्रखर प्रदर्शन के बाद ममता का हिंदूद्रोह कुछ कमजोर पड़ गया है। इधर दि हिंदू को चिंता होने लगी है कि कर्नाटक में मुस्लिम छात्राओं-शिक्षिकाआें में हिजाब और बुर्के के बढ़ते प्रचलन की प्रतिक्रिया में छात्रों में भगवा दुपट्टे का प्रचलन बढ़ गया है। कर्नाटक-केरल में आईएसआई और पीएफआई जैसे इस्लामी आतंकी-उग्रवादी संगठन का प्रभाव पहले से ही बढ़ रहा था लेकिन अब वहां गौरक्षा और आतंक-विरोधी हिंदुत्व की शक्ति भी बढ़ रही है। हिंदुत्व के लिहाज से कर्नाटक अब गुजरात और उत्तर प्रदेश के पास पहुंच गया है। केरल के तिरुवनन्तपुरम में भाजपा पूरा नगर बंद करवाने की स्थिति में आ गई है।

संकेत साफ है कि भारत बदल रहा है। हिंदू-विरोध और भारत-विरोध के तेवर ढीले पड़ने लगे हैं। इसी तस्वीर का एक पहलू यह है कि विदेशी फंड से चलने वाले भारत-विरोधी, हिंदू-विरोधी एनजीओ कमजोर होते जा रहे हैं। इसी तरह धर्म-परिवर्तन के संविधान-विरोधी काम में लगे कम्पेशन इंटरनेशनल के लिए अमेरिकी विदेशमंत्री ने भारत सरकार पर खुलेआम दबाव बनाया लेकिन उसे अपना बिस्तर बांधकर भारत से बाहर जाना पड़ा। इसी पखवाड़े अमेरिकी संसद की मानवाधिकार समिति ने तिस्ता सीतलवाड जैसों का नाम लेकर भारत सरकार की निंदा की है। इसके बावजूद तिस्ता सीतलवाड के गले से गैरकानूनी कामों का फंदा हटा नहीं है। विदेशी चंदे की जांच से लगातार बचने वाला फोर्ड फाउंडेशन अब उनको बचाने में समर्थ नहीं हो पाएगा। सबरंग और सिटिजंस फॉर जस्टिस के जरिये शाही जिंदगी जीने का उनका शौक समाप्त हुआ और धर्मनिर्पेक्षता के उनके हथियार में जंग लग गया है। याकुब मेमन के लिए लड़ने वाले लाइयर्स कलेक्टिव की चमक भी धुंधली पड़ गई है। ये एनजीओ मोदी को तो क्या, अब किसी मक्खी-मच्छर को भी परेशान नहीं कर पाएंगे। विदेशी फंड से वंचित होने की व्यथा इन एनजीओ की जुबान पर आ रही है। वे मजबूरी को महात्मा गांधी का नाम दे रहे हैं। सीपीआईएम के एनजीओ, सहमत का बयान है कि वे विदेशी सहायता के बिना भी काम करने में सक्षम हैं। एमनेस्टी के आकार पटेल भी कुछ ऐसा ही कह रहे हैं। इनका दावा है कि श्रीलंकाई तमिलों की सहायता करने के कारण उन्हें भारतीय तमिलों से काम भर का चंदा मिल जाता है। ग्रीनपीस की तो दुकान ही बंद हो गई है। यह साफ दिखता है कि राजनैतिक दलों की तरह इन एनजीओ को भी अपनी राष्ट्रविरोधी और हिंदूविरोधी गतिविधियों पर लगाम लगाना पड़ेगा।

भाजपा ने लगाया भगवा पर दांव
भारतीय राजनीति के इस युगांतरकारी परिवर्तन की नींव लोकसभा चुनाव में मोदी की विजय ने रखी थी। मोदी को रोकने के लिए पश्चिमी महाशक्तियों ने साम-दाम-भेद और दंड, हर हथियार से प्रहार किया। उसकी प्रतिक्रिया भी इतनी प्रबल हुई कि भाजपा को अकेले ही पूर्ण बहुमत मिल गया। इससे भाजपा-विरोधी राजनीतिक दलों और एनजीओ को अधिक परेशानी नहीं हुई क्योंकि वे पूरे सत्तातंत्र, विश्वविद्यालय, मीडिया, सरकारी और स्वायत्त सलाहकार और नियंत्रक संस्थाओं में गहराई से जमे थे। उनको लगा था कि भाजपा का यह शासन धीरे-धीरे पश्चिमी देशों और उनके दबाव में आ जाएगा। यह सही है कि मोदी सरकार ने इन तत्वों को सरकार से बाहर करने में कोई सक्रियता नहीं दिखाई। तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री, स्मृति इरानी ने लोकसभा में विस्तार से बताया कि शिक्षण संस्थानों में उच्च पदों पर आसीन बहुत से लोग सीधे कम्युनिस्ट और कांग्रेस पार्टियों से जुड़े हैं, लेकिन हमने उनमें से किसी को भी नहीं हटाया है। मोदी सरकार ने केवल इतना ही किया कि इन एनजीओ और कथित बुद्धिजीवियों को उपेक्षित किया। केवल इतने भर से दिल्ली के दलाल बाजार में इनका भाव जमीन पर आ गया। हिंदुत्व और भारतीय राष्ट्रवाद को पानी पी-पी कर गाली देने वालों को अपनी गिरती हैसियत से परेशानी होने लगी।

भारतीय राष्ट्रवाद का विरोध करने के लिए अफजल गुरू, अजमल कसाब और याकूब मेमन तक को मानवाधिकार की ढाल से बचाने वाले तत्वों ने मोदी की विजय को तो पचा लिया लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा की ऐतिहासिक विजय ने उनमें भय और भगदड़ का भाव भर दिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा की यह विजय ऐतिहासिक है, अन्यथा किसी प्रादेशिक चुनाव के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की बधाई का कोई औचित्य नहीं होता। यह चुनाव नोटबंदी के माहौल में हुआ। उससे ठीक पहले उड़ीसा और महाराष्ट्र के स्थानीय चुनावों में, विशेष रूप से वंचित वर्गों के क्षेत्रों में भाजपा को भारी बढ़त मिल चुकी थी। इससे यह साफ हो गया कि भाजपा को मध्य वर्ग के स्थायी समर्थन के साथ वंचित वर्गों का भी लगभग उतना ही स्थायी समर्थन मिल रहा है। इस कथित धर्मनिरपेक्ष ब्रिगेड को तीसरा बड़ा झटका तुरंत ही उस समय लगा, जब भाजपा ने दबंग भगवाधारी योगी को मुख्यमंत्री बना दिया। योगी की नियुक्ति मोदी की कार्यशैली के विपरीत है। मोदी ने असम और दिल्ली के अलावा हर प्रादेशिक चुनाव में अपने नाम और काम को ही आगे रखा। जीतने पर उन्होंने मुख्यमंत्रियों के लिए ऐसे नामों का चयन किया, जो किसी भी तरह से उनके लिए चुनौती न बन सकें। उन्होंने इसी नीति के चलते हरियाणा में पंजाबी, झारखंड में गैर-आदिवासी और महाराष्ट्र में ब्राह्मण मुख्यमंत्री का चयन किया। उत्तर प्रदेश में योगी की नियुक्ति ने केवल प्रदेश की ही नहीं, पूरी भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में एक भी मुस्लिम को टिकट न देकर एक दांव खेला था। अब योगी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने साफ कर दिया है कि अगले लोकसभा चुनाव की लड़ाई में कोई लिहाज नहीं होगा। किंतु-परंतु, अगर-मगर और परदेदारी का जमाना गया। या तो भाजपा का भविष्य भगवामय होगा या भाजपा डूब जाएगी।

योगी ने लोकसभा में अवैध बूचड़खाने की बात पर कहा कि आगे देखिएगा, हम क्या-क्या बंद करते हैं। योगी में दो महत्वपूर्ण गुण हैं। एक तो साफगोई और दूसरा स्वतंत्र हिंदू राजनीति। गोरखनाथ मठ की हिंदू राजनीति कम से कम एक शताब्दी पुरानी है। हिंदुत्व पर इस मठ ने कभी समझौता नहीं किया। इसके लिए यह मठ भाजपा पर भी कभी निर्भर नहीं रहा। पूर्वांचल से नेपाल तक इसका प्रबल प्रभाव है। इस मठ पर कभी भ्रष्टाचार या व्यभिचार का धब्बा नहीं लगा। इस मठ के योगियों की सात्विकता भी सराहनीय है। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी की दिनचर्या अब पूरे देश के सामने आ गई है। वह जमीन पर सोते हैं, एसी का प्रयोग नहीं करते, एकदम सादा भोजन करते हैं, विधिवत कन्या पूजन करते हैं और सड़क के किनारे के किसी भी नाई से बाल कटवा लेते हैं। उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री बनने के समय उनके पास सिर्फ एक जोड़ी कपड़े थे। ये कपड़े भी बेहद चलताऊ किस्म के हैं। यह उस मठ के प्रमुख का जीवन है, जिसके शिष्यों और संसाधनों का सामना भारत के एक-दो मठ ही कर पाएंगे। मोदी और योगी पर परिवारवाद का आरोप भी नहीं लग सकता।

भारत की छद्म धर्मनिरपेक्षता को मोदी की जीत, उत्तर प्रदेश में भाजपा की असाधारण जीत और योगी के मुख्यमंत्री बनने के तीन बड़े झटके मिले हैं। इस लॉबी को चौथा झटका विदेश से मिला है। इस लॉबी को विदेशों से केवल वित्तीय ही नहीं बल्कि हर प्रकार की सहायता मिलती है और ऐसा सशक्त संरक्षण मिलता है कि इनके अवैधानिक कामों को रोकने के पहले भारत सरकार को भी सौ बार सोचना पड़ता है। अधिकांश बड़े नेतागण भी इन्हीं अमेरिकी-यूरोपीय सत्तातंत्रों से लाभ लेते हैं। कभी वित्तीय मामले में, कभी अपने बेटे-बेटियों की नौकरियों और नागरिकता के लिए और कभी अपने काले धन के समायोजन के लिए। ब्रेक्सिट और ट्रंप की विजय के बाद अब पश्चिम में राष्ट्रवादी शक्तियां प्रबल हो गई हैं। ये इस्लाम विरोधी हैं और मानवाधिकार, पर्यावरण संरक्षण और संयुक्तराष्ट्र संघ आदि को भी राष्ट्रविरोधी मानती हैं। पश्चिमी राष्ट्रवादी सरकारों और दलों ने अब भारत में काम करने वाले एनजीओ और छद्म धर्मनिरपेक्ष नेताओं को समर्थन और सहायता देने में कटौती करना शुरू कर दिया है। ट्रंप ने पर्यावरण संरक्षण अभिकरण, संयुक्तराष्ट्र और विश्व जनसंख्या कोष आदि के खर्चों में कटौती की है। उन्होंने विदेश विभाग के बजट को भी कम किया है, जिससे भी भारतीय एनजीओ और नेताओं को परेशानी होगी। वैसे भी पश्चिमी देशों की आर्थिक बदहाली गंभीर होती जा रही है। पश्चिमी देशों में राष्ट्रवाद की लहर चल रही है, जो आरएसएस से कहीं अधिक इस्लाम विरोधी है। आस्ट्रिया में राष्ट्रवादी दल एक प्रतिशत से भी कम अंतर से हारा, जबकि नीदरलैंड ने राष्ट्रवादी फ्रीडम पार्टी की सीटों में बढ़त हुई है। अब अगर फ्रांस में राष्ट्रवादी नेशनल फ्रंट की ली पेन जीत जाती है तो यूरोपीय संघ भंग हो जाएगा। सरल शब्दों में कह सकते हैं कि हिंदूविरोधी और भारतीय राष्ट्रवादविरोधी एनजीओ और नेताओं को इस्लामी उग्रवाद का समर्थन करने और सैकड़ों प्रकार के एनजीओ बनाकर भारतीय राष्ट्रवाद को कलंकित करने के लिए अब अमेरिका और यूरोप से कम समर्थन मिलेगा।

तुष्टीकरण पर प्रबल प्रहार
पी चिदम्बरम जैसे नेताओं ने लंबे समय तक योजनाबद्ध तरीके से भेड़िया आया, भेड़िया आया की तर्ज पर भगवा आया, भगवा आया का भूत बनाकर मुसलमानों को डराने और इस तरह अपना वोट बैंक मजबूत करने का षड़यंत्र रचा था। उन्होंने आतंकवाद का मिथक इसलिए भी गढ़ा ताकि इस्लामी आतंकवाद से लोगों की नजर हट जाए और हिंदुत्ववादी शक्तियों को बदनाम किया जा सके। गृहमंत्री रहते हुए उन्होंने इशरत जहां को बचाने के लिए डेविड हेडली की गवाही को दबाने की पुरजोर कोशिश की और असीमानंद, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और इंद्रेश कुमार को फंसाकर भगवा आतंकवाद के झूठ को सच सिद्ध करने की कोशिश की। भगवा आतंकवाद का भूत खड़ा करने के षड़यंत्र के चलते दि हिंदू ने अरुण जेतली के मुंह से यह शब्द बाकायदा इन्वर्टेड कॉमा लगाकर अपनी पहली खबर के तौर पर छापा, जबकि इस शब्द का प्रयोग जेतली ने तो क्या, सवाल पूछने वाले ने भी नहीं किया था। इस षड़यंत्र का पदार्फाश होने पर दि हिंदू को माफी मांगनी पड़ी थी।

भगवा आतंकवाद के झूठ का गुब्बारा तो पिचक गया लेकिन अब इस भगवा के आतंक ने पूरी ‘धर्मनिरपेक्ष’ बिरादरी को भयभीत कर दिया है। सच्चाई यह है कि कोई भी राजनैतिक दल देश के बहुसंख्यक समुदाय को उसी समय तक अपमानित कर सकता है, जिस समय तक बहुसंख्यक समुदाय उस अपमान को सहने के लिए तैयार है। एक बार भाजपा भगवा राजनीति पर उतर आएगी तो भगवा शब्द पर प्रहार करने से पहले हर नेता सौ बार सोचेगा। सोनिया गांधी के ‘मौत के सौदागर’ के ऐसे ही एक जुमले ने गुजरात में कांग्रेस की कब्र खोद दी। गुजरात कांग्रेस का कोई नेता गुजरात दंगों के बारे में बात करने की हिम्मत नहीं रखता। ‘अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं’ वाले जेएनयू के इंशाअल्ला ब्रिगेड के समर्थन में राहुल गांधी के जाने के बाद महाराष्ट्र, गुजरात और हिमाचल के कांगे्रस विधायकों ने विद्रोह कर दिया और सदन में अपनी देशभक्ति दिखाने के लिए भाजपा से भी आगे बढ़कर राष्ट्रगान का समर्थन किया। अगर राष्ट्रवाद अपने उग्र रूप में आ गया तो चुनाव लड़ने वाले अधिकांश राजनीतिक दलों को उसके सामने समर्पण करना पड़ेगा।

यह हो सकता है कि फिलहाल कुछ समय तक भाजपा भगवा राजनीति से परहेज करे लेकिन अगली लोकसभा के चुनावी साल में भाजपा इसी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करेगी। इसकी सफलता के लिए अब भाजपा को मीडिया की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सोशल मीडिया के समानांतर चैनल द्वारा भाजपा ने अपने समर्थकों की ही नहीं, अपने अंधभक्तों की भी एक फौज खड़ी कर दी है। कमरे में बारूद पहले से ही भरा है, भाजपा को सिर्फ एक चिंगारी जलाना है। स्थिति यह है कि दूरदर्शन पर जितने बार पहलू खां या अखलाक का नाम आता है, उतनी ही बार भाजपाभक्त आगरा के अरुण माहौर, कर्नाटक के प्रशांत और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इंस्पेक्टर मनोज मिश्र का नाम लेने लगते हैं। इन सभी को गौ-तस्करों ने मारा। गुजरात पर बात होती है तो ये भाजपा-समर्थक गोधरा और सिक्ख हत्याकांड का नाम लेने लगते हैं। आखिर कश्मीर के हिंदुओं की हत्या, बलात्कार और लाखों हिंदुओं के पलायन, इन सबमें मस्जिदों की भूमिका, कैराना में हिंदुओं के पलायन की मानवाधिकार आयोग द्वारा पुष्टि और इन सबसे मीडिया का बेखबर बने रहना कई गंभीर सवाल खड़े करता है। ऐसा क्यों होता है कि हर कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी-नेता राह चलते हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करता है लेकिन इस्लाम का नाम लेते ही उसको सांप सूंघ जाता है। प्रशांत भूषण श्रीकृष्ण को ‘ईव टीजर’ कहता है, जेएनयू के कथित क्रांतिकारी मां दुर्गा को वेश्या कहते हैं, हुसैन मां दुर्गा का नग्न चित्र बनाता है, केंद्र की कांग्रेस सरकार न्यायालय में बाकायदा शपथपत्र में कहती है कि राम तो काल्पनिक व्यक्ति हैं और उसी सरकार के शिक्षामंत्री, अर्जुन सिंह के अनुदान से सहमत एनजीओ अयोध्या में प्रदर्शनी लगाकर भगवान राम को बहन को गंदी गाली देने से संकोच नहीं करता। इस विकृत धर्मनिरपेक्षता ने भाजपा को बैठे-बिठाए करोड़ों समर्थक दे दिए हैं।

लोकसभा के चुनावी साल या चुनावी छमाही में भाजपा की भगवा राजनीति के दो बड़े मुद्दे होंगे- एक जन्मभूमि का और दूसरा त्वरित तलाक का। गौरक्षा का महामुद्दा बनना अभी निश्चित नहीं है। अयोध्या आंदोलन भाजपा का अक्षयपात्र है। इतना निश्चित है कि राम मंदिर का विरोध उसी समय तक है, जब तक मंदिर बनना शुरू नहीं हो जाता। चाहे सहमति से या सहमति के बिना, एक बार मंदिर बनना शुरू होगा तो भाजपा का दोबारा सत्ता में आना निश्चित है। तीन तलाक का संबंध भी मुस्लिम तुष्टीकरण से है। मुस्लिम कट्टरपंथ के सामने सर्वस्व समर्पण करने वाली राजनीति ने करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को नर्क में धकेल दिया है। लाइटर से सिगरेट जलाने में जितना समय लगता है, उससे भी कम समय में तलाक देकर मुस्लिम महिला को बर्बाद किया जा सकता है। इसका भी कोई अर्थ नहीं है कि पुरुष नशे में या गुस्से में था या मजाक कर रहा था। फोन पर या फेसबुक पर भी तलाक दिया जा सकता है। फिर हलाला की शर्त और बेहिसाब शादियों की स्वतंत्रता! अभी इसी सप्ताह हैदराबाद के मोहम्मद हनीफ ने दिन में शादी की, रात में सहवास किया और सुबह तलाक दे दिया। उसने विवाह को वेश्यावृत्ति का पर्यायवाची बना दिया। तलाक का ऐसा घिनौना दुरुपयोग करने वाले लोगों की संख्या लाखों में है।

शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सामान्य सा सुधार किया लेकिन हमारी संसद ने उसको भी निरस्त कर दिया। एक तरफ तो कानून इतने कठोर हैं कि किसी महिला को छूना भी बलात्कार माना जा सकता है, सहमति से तीन साल शारीरिक संबंध बनाने वाली महिला भी तीन साल तक बलात्कार करने का आरोप लगाकर किसी पुरुष का जीवन नष्ट कर सकती है और दहेज उत्पीड़न के आरोप में दूरदराज के बुजुर्ग रिश्तेदारों तक को सीखचों में डाल दिया जाता है। दूसरी ओर केवल मुस्लिम कट्टरपंथ के भय के कारण करोड़ों मुसलमान महिलाओं के साथ इतना घृणित व्यवहार किया जा रहा है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह के तीन मुद्दों पर गर्मी की छुट्टी में सुनवाई का निश्चय किया है, इसलिए न्याय की आशा बनी है। तीन तलाक समाप्त करने में सफल होने पर भाजपा को असाधारण जन समर्थन मिलेगा।

दिशाहीन विपक्ष से भाजपा को लाभ
भाजपा के जोशीले अभियान के सामने फिलहाल विपक्ष असहाय दिख रहा है। भाजपा ने पनीरसेल्वम के मामले में साफ दिखा दिया कि वह तमिलनाडु में भी आशान्वित है क्योंकि पचास साल के अनवरत द्रविड़वादी शासन से वहां की जनता त्रस्त हो चुकी है और जयललिता की मौत व करुणानिधि की वृद्धावस्था से वहां नई राजनीति की राह बन सकती है। इसी तरह से भाजपा जय पांडा के जरिये बीजू जनता दल में विभाजन करवाने की कोशिश कर रही है। बंगाल और त्रिपुरा में भाजपा की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई है। भाजपा के इस विजय रथ को रोकने के लिए विपक्ष की एकजुटता आसान नहीं है। विपक्ष को सबसे पहले यह समझना होगा कि मुस्लिम तुष्टीकरण उसी समय लाभप्रद हो सकता है, जब उससे हिंदुओं का अपमान न हो रहा हो। इसमें समस्या यह है कि विपक्षियों के मुस्लिम तुष्टीकरण के हर काम को भाजपा तुरंत हिंदूविरोधी नीति सिद्ध करने में सफल हो जाती है।

भाजपा को मालूम है कि बीस दल 15 प्रतिशत मुसलमान वोटों पर दावा करते हैं जबकि भाजपा को अस्सी प्रतिशत हिंदू जनसंख्या पर एकाधिकारवादी दावा करने में सफलता मिल जाती है। हिंदुओं का चालीस प्रतिशत वोट पाकर भी भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार बना सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी गठबंधन बनने में एक बाधा यह भी है कि उस गठबंधन का कोई केंद्र या कोर ही नहीं है, जिसके आस-पास बाकी दल एकत्रित हो सकें। कांग्रेस यह काम कर सकती थी लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व को कई बड़े दल स्वीकार नहीं करेंगे। फिर ऐसे किसी भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन में सपा-बसपा का, तृणमूल-कम्युनिस्टों का, डीएमके-एडीएमके का और कांग्रेस-जनता दल (सेक्युलर) का एक साथ आना कठिन है।

अगले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा का भविष्य उज्जवल दिख रहा है लेकिन यह कोई ब्रह्मा की लकीर नहीं है। सफलता की चकाचौंध में भाजपा की कई कमजोरियां छिप गई हैं लेकिन उनसे भाजपा को बहुत नुकसान हो सकता है। इसी विधानसभा चुनाव में भाजपा को गोआ में भारी हार का सामना करना पड़ा। वहां भाजपा के सिद्धांतहीन इसाईकरण की तीखी प्रतिक्रिया हुई है। मणिपुर में भी भाजपा ने नगा और कूकियों से मिलकर इसाई अलगाववाद को आधार प्रदान किया है। कहने के लिए इन दोनों प्रदेशों में भाजपा सरकारें हैं लेकिन इन दोनों प्रदेशों में भाजपा के मात्र दो-दो मंत्री हैं! पंजाब में भाजपा की पराजय का अनुमान लोकसभा चुनाव के समय से ही हो गया था। भाजपा ने अरुण जेतली की पराजय से भी सबक नहीं सीखा। सबको मालूम था कि अकालियों की उग्रवाद-समर्थक नीति से नाराज होकर पंजाबी हिंदू कांगे्रस की ओर जा रहे हैं। अकालियों का भ्रष्टाचार भी भाजपा को डुबाने जा रहा था। इस सबके बावजूद भाजपा ने चुनाव से पहले ही हार मानकर कांग्रेस को सत्ता थाली में सजाकर भेंट कर दी। इसके अतिरिक्त भाजपा में बहुत जल्दी ही शाइनिंग इंडिया और फील गुड वाला आत्म-मोह आ जाता है। वंचित वर्गों के वोट पर भाजपा की पकड़ अभी भी बहुत टिकाऊ नहीं हुई है। इन कमियों के बाद भी भाजपा को विपक्ष के बिखराव का लाभ तो अवश्य मिलेगा। 2004-14 के दौर में वाजपेयी की अस्वस्थता और आडवाणी की दिशाहीन राजनीति ने कांग्रेस को सत्तासीन किया। आज विपक्ष उसी तरह दिशाहीन है, जिसका लाभ भाजपा को आगे भी अवश्य मिलेगा।

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं।)