यह चुनाव ऐतिहासिक है. इसलिए नहीं कि जीत ऐतिहासिक है. इसलिए कि इस चुनाव ने कई राजनीतिक मिथक तोड़ दिए हैं. इस चुनाव ने मुद्दों को पुनर्परिभाषित कर दिया है. इस चुनाव ने जाति-धर्म के नाम पर बनने वाले गठबंधनों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. सवाल है कि जब एक राज्य में ही कई दलों से बना महागठबंधन मोदी सुनामी का सामना नहीं कर सका, तो आगे वे कौन सी ऐसी अनोखी रणनीति बनाएंगे, जिसका जिक्र राजनीति शास्त्र की किताबों है या नहीं है. मुद्दा तो यह भी है कि गैर भाजपा-गैर एनडीए दल भविष्य में अपने मतदाताओं के समक्ष किस मुद्दे पर वोट मांगने जाएंगे. सेकुलरिज्म बचाने या संविधान बचाने के नाम पर? क्योंकि, इन्हें तो जनता ने मुद्दा माना ही नहीं. सवाल यह भी है कि जेनरेशन एक्स के बाद जेनरेशन वाई और अब जेनरेशन जेड, जो अगले चुनाव तक फस्र्ट टाइम वोटर बन जाएंगे, उन्हें विपक्ष किन मुद्दों पर अपनी तरफ खींचेगा? क्या जातीय समीकरण के नाम पर? और सवाल तो यह भी है कि मोदी के सामने कौन? भाजपा के भीतर मोदी के बाद तो कई मोदी तैयार किए जा रहे हैं. लेकिन, विपक्ष में मोदी के सामने कौन? संसद के भीतर भी और सडक़ पर भी…मोदी से टक्कर लेगा कौन? ये सवाल जनता के  हैं और लोकतंत्र के भी.

 लोकसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत के नायक नरेंद्र मोदी रहे. हर लोकसभा सीट पर भले ही भाजपा ने अलग-अलग उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन सभी सीटों पर नरेंद्र मोदी चुनाव लड़ रहे थे. भाजपा की सहयोगी पार्टियां भी अपने राज्य में नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ रही थीं और उन्हीं को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांग रही थीं. बिहार में नीतीश कुमार हों या फिर महाराष्ट्र में शिवसेना के उद्धव ठाकरे, सभी ने नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगे और उन्हें जनता का भरपूर समर्थन मिला. इस चुनाव में एक साथ कई मिथक टूट गए. जातीय समीकरणों की नाव पर सवार कई क्षेत्रीय पार्टियों का दंभ चकनाचूर हो गया. उत्तर प्रदेश में अखिलेश-मायावती-अजित सिंह ने इसी आधार पर महागठबंधन बनाया. उन्हें लग रहा था कि उनका जातीय आधार इतना मजबूत है कि एक साथ आने के बाद भाजपा को राज्य से उखाड़ा जा सकता है, लेकिन जनता ने उनके इस दंभ को चकनाचूर कर दिया. लोगों ने साबित कर दिया कि नेताओं के बीच सहमति के आधार पर चुनाव परिणाम नहीं आते हैं, बल्कि कार्यकर्ताओं के बीच सहमति होना जरूरी है. उत्तर प्रदेश में विपक्षी महागठबंधन बनने के बावजूद भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की. हालांकि, महागठबंधन का थोड़ा फायदा उन्हें मिला, लेकिन यह फायदा सफल महागठबंधन कहे जाने के लायक नहीं है. यही हालत बिहार में लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल की हुई और उसका खाता तक नहीं खुला. कुछ महीने पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बनाने वाली कांग्रेस को वहां की जनता ने केंद्र की सत्ता देने के मुद्दे पर साफ तौर पर नकार दिया.

 

दरअसल, यह चुनाव पूरी तरह नरेंद्र मोदी पर केंद्रित रहा. इस चुनाव के नायक नरेंद्र मोदी थे और खलनायक भी. भाजपा सहित एनडीए के दूसरे सहयोगी दलों ने भी राजनीति के केंद्र में नरेंद्र मोदी को रखा और सरकार की उपलब्धियों को नरेंद्र मोदी की उपलब्धियां बताकर वे लोगों के सामने गए. दूसरी ओर विपक्षी दलों के केंद्र में भी नरेंद्र मोदी ही दिखाई पड़े. उनके सारे मुद्दे नरेंद्र मोदी से शुरू हुए और उन्हीं पर खत्म हो गए. कांग्रेस ने कुछ मुद्दे उठाए भी, तो उसके केंद्र में मोदी को ही रखा. विपक्ष ने मोदी को खलनायक की तरह पेश किया और देश में घटने वाली हर दुर्घटना के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया. हालांकि, यह देखना भी दिलचस्प रहा कि जिन राज्यों में चुनाव का मुद्दा नरेंद्र मोदी नहीं रहे और उन पर लगातार कठोर हमले नहीं किए गए, बल्कि राज्य सरकार ने अपनी उपलब्धियों को मुद्दा बनाया, वहां भाजपा को बहुत बड़ी सफलता नहीं मिली और क्षेत्रीय दलों ने अच्छा प्रदर्शन किया. ओडिशा में नवीन पटनायक ने कभी मोदी पर कठोर हमले नहीं किए और अपना पत्ता भी नहीं खोला. उन्होंने एनडीए और यूपीए, दोनों के लिए अपने दरवाजे खोले रखे, लेकिन स्पष्ट रूप से किसी के पक्ष में नहीं गए. नवीन पटनायक की यह रणनीति काम आई और वह न केवल अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहे, बल्कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को कड़ी टक्कर देते हुए राज्य की 21 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की. इसी तरह तेलंगाना में टीआरएस प्रमुख केसीआर ने यूपीए में शामिल होने से इंकार कर दिया और लगातार तीसरे मोर्चे की बात करते रहे तथा मोदी पर कठोर हमले करने से बचते रहे. उनकी पार्टी का प्रदर्शन भी अच्छा रहा. आंध्र प्रदेश में टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने मोदी के खिलाफ लगातार प्रचार किया और वह हर मंच पर उनकी आलोचना करते रहे, जबकि वाईएसआरसीपी अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी राज्य के मुद्दे पर चुनाव लड़े. यहां भी जनता ने चंद्रबाबू नायडू को न केवल विधानसभा चुनाव के लिए खारिज कर दिया, बल्कि लोकसभा चुनाव में भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी. इस तरह देखा जाए, तो यह पूरा चुनाव नरेंद्र मोदी के मुद्दे पर लड़ा गया. लेकिन, मोदी को खलनायक साबित करने की विपक्ष की कोशिशों को जनता ने पूरी तरह नकार दिया. और, उसने जिस भारी बहुमत के साथ भाजपा को जीत दिलाई, उससे मोदी न केवल चुनाव के नायक बने, बल्कि देश के नायक के तौर पर स्थापित हो गए.

मोदी केंद्रित इस चुनाव में विपक्ष की सारी अवधारणाओं को जनता ने खारिज कर दिया. जनता ने बता दिया कि चुनाव में आरोप अवधारणाओं के आधार पर नहीं, बल्कि सुबूतों के आधार पर लगाए जाते हैं. कांग्रेस ने सबसे पहले राफेल का मुद्दा उठाया और उसने इसे एक घोटाले के तौर पर पेश करने की कोशिश की. न्यायपालिका से सडक़ तक इस मुद्दे को ले जाने की पूरी कवायद कांग्रेस और उसके कुछ गैर राजनीतिक समर्थकों ने की. सुप्रीम कोर्ट और कैग से क्लीन चिट मिलने के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोगों को भ्रमित करने की अपनी कोशिश जारी रखी और चौकीदार चोर हैनारा देना शुरू किया. भाजपा ने कांग्रेस की इस रणनीति को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया और हर आदमी को चौकीदार बनाने की एक मुहिम चलाई. कांग्रेस का दांव उल्टा पड़ गया और राफेल का मुद्दा पूरी तरह फेल हो गया. राफेल पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को पहले ही क्लीन चिट दे रखी थी, लेकिन उस पर जनता की मुहर लगना अभी बाकी था. चुनाव में जनता ने सुप्रीम कोर्ट और कैग पर भरोसा किया तथा नरेंद्र मोदी की ईमानदारी पर सवाल उठाने वाले राहुल गांधी को पूरी तरह खारिज करके सरकार के फैसले पर मुहर लगा दी. अगर अब भी विपक्ष राफेल का राग अलापता है, तो आगे कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव में उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.

राफेल के अलावा जिस तरीके से नरेंद्र मोदी सरकार को तानाशाह और सांप्रदायिक बताया गया, उसे भी जनता ने सिरे से खारिज कर दिया. विपक्ष ने मोदी सरकार को घोर सांप्रदायिक और उसकी नीतियों को अल्पसंख्यक विरोधी बताने की भरपूर कोशिश की. एक ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया गया, जैसे अगर फिर से मोदी की सरकार बन गई, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा. चारों तरफ अराजकता का माहौल व्याप्त हो जाएगा. अल्पसंख्यकों के लिए इस देश में कोई जगह नहीं बचेगी और उनके अधिकारों को कुचल दिया जाएगा. विपक्ष और कांग्रेस की चादर ओढ़े छद्म धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने ऐसा माहौल तैयार करने का प्रयास किया कि अगर नरेंद्र मोदी दूसरी बार प्रधानमंत्री बन जाएंगे, तो देश का सर्वनाश हो जाएगा. लोकतांत्रिक मूल्य खत्म हो जाएंगे. लेकिन, उनकी पूरी अवधारणा को जनता ने खारिज कर दिया. जनता ने बता दिया कि धर्मनिरपेक्षता केवल कांग्रेस की बपौती नहीं है. साथ ही यह कि तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा गढ़ी गई परिभाषा के आधार पर नहीं तय होगा कि कौन सी पार्टी धर्मनिरपेक्ष है और कौन सांप्रदायिक. जनता ने इस पूरी अवधारणा को खारिज कर दिया और अगर इसके बाद भी विपक्ष एवं उसके समर्थक बुद्धिजीवी ऐसी बातें करते हैं, तो यह लोकतंत्र की हत्या मानी जाएगी. इन छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों को सार्वभौमिक मताधिकार की उस अवधारणा का विरोधी माना जाएगा, जिसमें व्यस्क मताधिकार का प्रावधान किया गया है. जिसमें, जनता को अपनी मर्जी की सरकार चुनने का अधिकार दिया गया है. अगर वे जनता की आवाज नहीं पहचान सकते, उसके मत का सम्मान नहीं कर सकते, तो फिर उन्हें खुद को लोकतांत्रिक और दूसरे को लोकतंत्र विरोधी बताने का कोई अधिकार नहीं है.

इस चुनाव ने सरकार के दो अन्य फैसलों, नोटबंदी और जीएसटी पर मुहर लगा दी. विपक्ष ने दोनों ही फैसलों पर सवाल उठाए और उन्हें जनविरोधी बताने की पूरी कोशिश की. नोटबंदी के कारण बेरोजगारी बढऩे की बात कही गई. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पूरे जोर-शोर से इसका प्रचार किया. उन्होंने हर मंच पर सरकार के नोटबंदी और जीएसटी के फैसले का विरोध किया. लेकिन, जनता ने इस मुद्दे को पूरी तरह खारिज कर दिया. इस चुनाव को परंपरागत राजनीति के लिए एक कड़ी चेतावनी के तौर पर देखा जा सकता है. इसने जातीय राजनीति की कश्ती पर सवार होकर जनता को भ्रमित करने वाले नेताओं को खारिज कर दिया और उन्हें विकास की राजनीति करने का संदेश दिया. जनता ने इस धारणा को भी गलत साबित कर दिया कि अगर किसी झूठ को हजार बार बोला जाए, तो वह सच लगने लगता है. विपक्ष ने बार-बार एक ही झूठ बोला. हजारों बार चौकीदार को चोर कहा. हर मंच पर नोटबंदी और जीएसटी को गलत फैसला बताया. मोदी को तानाशाह और भाजपा की नीतियों को सांप्रदायिक बताया. हजारों बार झूठ पर झूठ बोला. लेकिन, जनता ने उसके किसी भी झूठ को सच नहीं माना.