प्रदीप सिंह/प्रधान संपादक/ ओपिनयन पोस्ट

हाल ही में हुए पंजाब विधानसभा के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेतली से मिलने दिल्ली आए। अपने राज्य के बारे में बात करने के अलावा उन्होंने चुनाव और चुनाव अभियान के बारे में भी अनौपचारिक चर्चा की। कैप्टन साहब का कहना था कि चुनाव में अब सोशल मीडिया का प्रभाव परम्परागत मीडिया से ज्यादा हो गया है। कैप्टन अमरिंदर सिंह सोशल मीडिया के दीवानों में नहीं हैं। फिर भी उन्हें यह बदलाव साफ नजर आया। अफसोस की बात है कि देश के कई युवा नेताओं को अभी तक यह बात समझ में नहीं आ रही है। सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह नेता और राजनीतिक दल को ज्यादा जवाबदेह बनाने के साथ ही आम लोगों के लिए आसानी से उपलब्ध करा देता है। भारत जैसे गरीब देश के लिए उससे भी बड़ी बात यह है कि इसके लिए राजनीतिक दलों को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। राजनीतिक दल न केवल आसानी से मतदाता तक पहुंच सकते हैं कि बल्कि बिना कुछ खर्च किए अपनी पार्टी का विज्ञापन भी चला सकते हैं।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पहली बार 2008 के राष्ट्रपति चुनाव में सोशल मीडिया का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। सोशल मीडिया पर उनका आस्क मी एनीथिंग (मुझसे कुछ भी पूछिए) अभियान हिट रहा। उन्होंने 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में भी सोशल मीडिया को अपने चुनाव अभियान का मुख्य हिस्सा बनाया। भारत में पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह सोशल मीडिया और खासतौर से ट्विटर का इस्तेमाल किया उससे उस चुनाव को ट्विटर इलेक्शन कहा जाने लगा। नरेन्द्र मोदी ने तकनीक के इस बदलते परिदृश्य को पहले ही भांप लिया। उनसे भी पहले सोशल मीडिया की ताकत समझने वाले अरविंद केजरीवाल चुनाव अभियान जैसे जैसे आगे बढ़ा पिटते गए।

फेसबुक के मुताबिक अप्रैल सात से बारह मई 2014 के बीच मोदी की फॉलोइंग में करीब पंद्रह (14.86) फीसदी बढ़ोतरी हुई। इसी दौरान केजरीवाल की फॉलोइंग करीब आठ (8.16) फीसदी बढ़ी। सोशल मीडिया का असर केवल बड़े शहरों तक सीमित नहीं रहा। दूसरी और तीसरी श्रेणी के शहरों में भी इसका असर दिखा। यहां तक कि उत्तर प्रदेश के पिछड़े माने जाने वाले गोरखपुर शहर में बड़ी संख्या में लोगों ने चुनाव की जानकारी सोशल मीडिया के जरिये प्राप्त की। पर लोकसभा चुनाव और सोशल मीडिया के असर की असली कहानी ट्विटर के आंकड़े कहते हैं। उन्नीस अप्रैल से उन्नीस मई तक एक महीने में मोदी से संबंधित चुनावी चर्चाओं की संख्या पंद्रह लाख रही। इसके बरक्स केजरीवाल से संबंधित चर्चा केवल एक लाख रही तो कांग्रेस की संख्या दयनीय उन्नीस हजार पांच सौ रही। इस संख्या में दिग्विजय सिंह के ऊलजलूल बयानों का योगदान भी शामिल है।

इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों में करीब बहत्तर फीसदी फेसबुक से जुड़े हैं। इनमें से बयासी फीसदी अट्ठारह से उनतीस साल की उम्र के हैं। देश की पैंसठ फीसदी आबादी पैंतीस साल से कम उम्र की है। सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर युवा लोगों पर ही होता है। कनेक्टेड जेनरेशन (इंटरनेट से जुड़े) की संख्या पंद्रह करोड़ है। ये सब आंकड़े वर्ष 2014 के हैं। कल्पना कीजिए 2019 के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा कहां पहुंचेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि केंद्र सरकार 2019 से पहले सभी ग्राम पंचायतों तक ब्रॉडबैंड पहुंचाने के लक्ष्य पर काम कर रही है।

सोशल मीडिया का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह तुरंत आपका संदेश पहुंचाता है और चौबीस घंटे उपलब्ध रहता है। इसके जरिये न केवल आप अपनी बात पहुंचा सकते हैं बल्कि लोगों की प्रतिक्रिया के अनुसार अपने रुख में बदलाव भी कर सकते हैं। अपना विज्ञापन चला सकते हैं और लोगों से चंदा भी मांग सकते हैं। ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया के सब फायदे फायदे हैं। यह गलती का कोई मौका नहीं देता। एक गलत ट्वीट आपका सारा खेल बिगाड़ सकता है। अपने देश में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले नेताओं की दो श्रेणियां हैं। एक जो इसकी ताकत को समझते हैं और खुद इसका इस्तेमाल करते हैं। दूसरे वे जो इसे जरूरी बुराई या कुछ तो बीमारी भी समझते हैं। ऐसे लोगों का सोशल मीडिया अकाउंट अक्सर दूसरों के भरोसे चलता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोशल मीडिया की ताकत को बखूबी समझते हैं और इसके इस्तेमाल का आनंद भी लेते हैं। इसी वजह से वे दूसरों से अलग हैं। बात केवल यह नहीं है कि आपके कितने फॉलोअर हैं या आपने कितने ट्वीट किए। असली बात यह है कि आपके कहे का असर कितना है, उस पर चर्चा कितनी होती है और उसको कितने लोग शेयर करते हैं। सोशल मीडिया पर कामयाब या प्रभावी होने के लिए आपके पास एक कहानी होनी चाहिए सुनाने के लिए। एक सपना होना चाहिए दिखाने के लिए। एक विकल्प होना चाहिए सुझाने के लिए। सौ बात की एक बात कि आपकी कहानी, सपना और विकल्प विश्वसनीय लगना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के लोगों से कहा था कि 2019 का लोकसभा चुनाव मोबाइल पर लड़ा जाएगा। भाजपा उसकी तैयारी में जुटी है। उसके प्रतिद्वंद्वी क्या इस मोबाइल युद्ध के लिए तैयार हैं?