अभिषेक रंजन सिंह

इसी महीने की 25 तारीख को पाकिस्तान में संसदीय और प्रांतीय चुनाव के लिए वोट डाले जाएंगे। सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) को पिछले साल तब बड़ा झटका लगा जब भ्रष्टाचार के मामले में नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा और उन्हें चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद नवाज शरीफ लंदन प्रवास में हैं। पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को यकीन था कि चुनाव के समय मियां नवाज शरीफ अपने उम्मीदवारों के लिए प्रचार करेंगे। लेकिन नेशनल अकाउंटेबिलिटी बोर्ड (एनएबी) ने लंदन की एवेनफील्ड अपार्टमेंट मामले में नवाज शरीफ, उनकी बेटी मरियम नवाज और दामाद कैप्टन सफदर अवान को क्रमश: दस वर्ष, सात वर्ष और एक वर्ष की सजा सुनाई। इस फैसले के बाद मरियम नवाज और कैप्टन सफदर भी चुनाव मैदान से बाहर हो चुके हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री और नवाज शरीफ के छोटे भाई शाहबाज शरीफ को छोड़ अब पीएमएल (एन) में ऐसा कोई असरदार नेता नहीं है जो जनता को अपनी तरफ खींच सके। फिलहाल पार्टी की कमान उन्हीं के पास है और वे पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। वह लाहौर के अलावा तीन अन्य सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं।

पांच साल में सियासत और वक्त कितना बदल जाता है यह पाकिस्तान को देखकर कहा जा सकता है। साल 2013 के चुनाव में पीएमएल (एन) को प्रचंड जीत मिली और नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बने। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की सरकार के खिलाफ उन्होंने मुल्क भर में रैलियां की थी। हजारों की भीड़ उनकी जनसभाओं में उमड़ती थी लेकिन आज वे खुद अपनी पार्टी के प्रचार अभियान से दूर हो चुके हैं। इस बार उनकी पार्टी का मुकाबला मुख्य विपक्षी पार्टी पीपीपी और इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) से है। प्रचार के मामले में इमरान खान की पार्टी सबसे आगे दिख रही है। पिछले चुनाव में पीएमएल (एन) की रैलियां पाकिस्तान के हर सूबे में हुई थीं जबकि इस बार मामला पूरी तरह ठंडा है। पंजाब पीएमएल (एन) का मजबूत गढ़ है। वहां भी पार्टी ने अपनी कई रैलियां स्थगित कर दी। वहीं पीपीपी प्रमुख बिलावल भुट्टो ने सिंध से बाहर बेहद कम रैलियां की हैं। लेकिन इमरान खान ने खैबर पख्तूनख्वाह जहां उनकी पार्टी बेहद मजबूत है, के अलावा पंजाब और सिंध में भी बड़ी रैलियां की हैं। इमरान खान को पाकिस्तान के अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन वहां की सियासत में उन्होंने जो ऊंचाई हासिल की है उसे लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। उन्हें फौज का पोस्टर ब्वॉय तक कहा जाता है। कहा जाता है कि बाईस साल पहले वह जब क्रिकेट की दुनिया से राजनीति में आए थे तो इसके पीछे भी सेना की भूमिका थी। जिस तरह नब्बे के दशक में जनरल जिया उल हक ने नवाज शरीफ को सियासत में ऊपर उठाया था, उसी भूमिका में अब इमरान हैं। हालांकि बाद के दिनों में सेना और नवाज शरीफ के संबंधों में तल्खी आ गई जिसे दुनिया ने बखूबी देखा।

यह दूसरा मौका है जब पाकिस्तान की कोई चुनी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। जम्हूरियत में भरोसा रखने वालों का भरोसा इससे और मजबूत होगा। जबकि सेना और आईएसआई के लिए यह मुफीद नहीं है। वैसे भी पाकिस्तानी सेना आजमाए हुए खिलाड़ी पर दांव नहीं लगाती। इसलिए इमरान खान को उसने सामने किया है। वैश्विक आतंकवादी हाफिज सईद भी अपने उम्मीदवारों के साथ चुनाव मैदान में है। पहले उसने मिल्ली मुस्लिम लीग बनाकर सियासत में आने का फैसला किया लेकिन सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग ने मिल्ली मुस्लिम लीग को मान्यता देने से मना कर दिया। इसकी काट में हाफिज सईद अपने उम्मीदवारों को अल्लाह-हू-अकबर संगठन से सामने ले आया। अल्लाह-हू-अकबर ने 230 उम्मीदवार उतारे हैं जिनमें हाफिज का दामाद भी शामिल है। यह पहली बार है जब पाकिस्तान में इतने बड़े पैमाने पर आतंकवादी चुनाव लड़ रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और पाकिस्तान मामलों के जानकार डॉ. कमर आगा ओपिनियन पोस्ट से कहते हैं, ‘बेशक फौज की वजह से पाकिस्तान में लोकतंत्र संगीनों के साये में रहता है लेकिन सात दशकों में वहां कोई धार्मिक-कट्टरपंथियों की सरकार नहीं बनी क्योंकि वहां की जनता का समर्थन उन्हें हासिल नहीं है। लेकिन इस बार पूरी तैयारी के साथ दहशतगर्द चुनाव मैदान में हैं। इसके पीछे पाकिस्तानी सेना है। सेना चाहती है कि ऐसी सरकार बने जो फौज की मुखालफत न कर सके। यही वजह है कि तहरीक-ए-इंसाफ काफी कम समय में पीएमएल (एन) को चुनाव में कड़ी टक्कर दे रही है। ऐसे में सवाल यह भी है कि अगर इमरान खान को सेना की सरपरस्ती हासिल है तो फिर धार्मिक-कट्टरपंथी दल पर सेना दांव क्यों लगा रही है। दरअसल, इसकी वजह है तहरीक-ए-तालिबान जैसा संगठन जो सेना के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। इससे निपटने के लिए सेना कट्टरपंथी दहशतगर्दों को अपने पनाहगार से निकालकर सियासी मैदान में उतार रही है। पाकिस्तान की ज्यादातर संवैधानिक संस्थानों पर फौज का ही सिक्का चलता है। हालिया कुछ समय से न्यायपालिका और चुनाव आयोग के फैसलों पर भी फौज का असर दिखने लगा है। अब तक पाकिस्तान की विधायिका फौज की जद से दूर थी लेकिन इस चुनाव के बाद नेशनल असेंबली में भी परोक्ष रूप से फौज के नुमाइंदे होंगे।’

पाकिस्तान की राजनीति में पंजाब की अहमियत सबसे ज्यादा है। उसके बाद सिंध का स्थान है। पंजाब पीएमएल (एन) का मजबूत गढ़ है। नेशनल असेंबली की कुल सीटों में आधी सीटें पंजाब में हैं। नवाज शरीफ को सजा मिलने और उनकी गैर मौजूदगी से पीएमएल (एन) के कार्यकर्ता हताश हैं। इसका फायदा इमरान खान को मिल सकता है। यही वजह है कि उन्होंने लाहौर से भी पर्चा भरा। लाहौर समेत पंजाब के लगभग सभी जिलों में उन्होंने रैलियां की। उनके मुकाबले पंजाब में दूसरे नंबर की पार्टी पीपीपी ने काफी कम रैलियां की। बिलाबल भुट्टो जरदारी अपनी पार्टी के एकमात्र चेहरा हैं जो अवाम को अपनी तरफ ला सकते हैं। उनकी इस काबिलियत में उनसे ज्यादा उनकी मां और पूर्व प्रधानमंत्री मरहूम बेनजीर भुट्टो का नाम है। साल 2008 के चुनाव में रावलपिंडी में चुनाव प्रचार के दौरान उनकी हत्या कर दी गई थी। बेनजीर की शहादत का फायदा पीपीपी को मिला और पीपीपी 119 सीटें जीतकर सरकार बनाने में सफल रही। 2013 का चुनाव आते-आते पीपीपी अपने नेताओं की वजह से अवाम के बीच अपनी काफी फजीहत करा चुकी थी। इनमें पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और बिलावल भुट्टो भी शामिल हैं। बाप-बेटे के रिश्तों की खटास से उनकी पार्टी भी महफूज नहीं है। लिहाजा इस चुनाव में आपसी समन्वय का अभाव दिख रहा है।

पाकिस्तान की आर्थिक राजधानी के साथ-साथ वहां सियासत में अहम किरदार निभाने वाले सिंध की राजनीति भी काफी रोचक है। भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों ने सिंध में रहना ज्यादा पसंद किया। उन्हें वहां मुहाजिर कहा जाने लगा। अपना मुल्क समझकर पाकिस्तान गए उन्हीं लोगों में एक नाम है अल्ताफ हुसैन का। अल्ताफ हुसैन के पूर्वज उत्तर प्रदेश के आगरा से कराची जाकर बसे थे। पाकिस्तान में अपने लोगों के साथ हो रही इस गैर बराबरी को खत्म करने के मकसद से अल्ताफ हुसैन ने सियासत में कदम रखा। सत्तर-अस्सी के दशक में उन्होंने मुहाजिर स्टूडेंट फेडरेशन बनाया। अस्सी के दशक में अल्ताफ हुसैन सिंध में मुहाजिरों के एकमात्र नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। लिहाजा 1984 में उन्होंने मुहाजिर कौमी मूवमेंट नाम से पार्टी बनाई जो अब मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट के नाम से जानी जाती है। 1985 में एमक्यूएम पहली बार चुनाव मैदान में उतरी और सिंध में शानदार प्रदर्शन किया। अल्ताफ हुसैन पर भारत का एजेंट होने के आरोप भी लगते रहे हैं। वह पिछले दो दशक से पाकिस्तान बदर हैं और लंदन से ही एमक्यूएम का संचालन करते हैं। उन्होंने इस बार चुनाव का बहिष्कार किया है। नतीजतन सिंध में पीपीपी और पीटीआई के बीच सीधा मुकाबला है। बिलावल भुट्टो और इमरान खान दोनों की नजरें मुहाजिर वोट बैंक पर है। यही वजह है कि उन्होंने कराची के उन इलाकों में रोड शो और रैलियां की जहां एमक्यूएम का दबदबा है। इस बार अल्ताफ हुसैन समर्थक पसोपेश में हैं कि वे किधर जाएं।

ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में रक्षा विशेषज्ञ पीके सहगल बताते हैं, ‘सिंध में रहने वाले अल्ताफ समर्थक अपना वोट पीपीपी को देंगे। ऐसा इसलिए कि एमक्यूएम पीपीपी के साथ सिंध की सरकार में पहले भी शामिल रही है।’ अल्ताफ हुसैन का आरोप है कि दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान में चुनाव कराए जा रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस चुनाव के जरिये फौज अपनी तरह की सरकार बनाना चाहती है। पीके सहगल अल्ताफ हुसैन के आरोपों को सही मानते हैं। उनके मुताबिक, ‘सेना तख्तापटल की तोहमत से बचने के लिए सियासत में अपने पसंद के लोगों को आगे कर रही है। यह पहली बार है कि आतंकवादियों को सेना और आईएसआई का खुला संरक्षण प्राप्त है। चुनी हुई सरकार को अपदस्थ करने से फौज की बदनामी होती है। लिहाजा सेना वैसे लोगों के हाथ में पाकिस्तान की कमान देखना चाहती है जो उसके इशारे पर काम कर सकें। इमरान खान सेना के इसी मंसूबे को पूरा करने में जुटे हैं।’

जेएनयू में प्रोफेसर रहे पूर्व राजनयिक प्रो. एसडी मुनि ने ओपनियन पोस्ट को बताया, ‘पाकिस्तानी सेना नहीं चाहती कि पीएमएल (एन) दोबारा सत्ता में आए। इस मंसूबे को पूरा करने में सेना काफी पहले से जुटी है। पीएमएल (एन) में अब मजबूत लीडरशिप का अभाव है। चुनाव में उसे इसका खामियाजा भुगतना होगा। मुमकिन है कि पीटीआई सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे। इसकी वजह है इमरान को फौज का समर्थन। दूसरा, वहां की अवाम भी एक बार इमरान खान को आजमाना चाहती है।’ डॉ. कमर आगा के मुताबिक, ‘पाकिस्तान में खंडित जनादेश आ सकता है। फौज के लिए ऐसे हालात काफी मुफीद होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तानी सेना भारत के साथ अपने मन मुताबिक संबंध रखना चाहती है। इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नई सरकार सेना के मुताबिक होगी। अगर वह चाहेगी तो भारत के साथ शांति वार्ता होगी वरना नहीं। इमरान खान की चुनावी तकरीरों पर गौर करें तो वे पाकिस्तान की बदहाली के लिए पीएमएल (एन) और पीपीपी को जिम्मेदार ठहराते हैं जबकि पाकिस्तान का आधा समय सैन्य शासन में बीता है। रावलपिंडी की एक जनसभा में इमरान खान ने कहा कि पाकिस्तान की मजबूत फौज ने हमेशा मुल्क की हिफाजत की है और यहां की सियासत में अहम किरदार निभाया है। मियांवली और कोहाट में भी उन्होंने सेना की जमकर तारीफ की। पीएमएल (एन) और पीपीपी के मुकाबले पीटीआई सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय है लेकिन सेना के खिलाफ इमरान एक अल्फाज नहीं बोलते।’ बात अगर बलूचिस्तान की करें तो वहां सेना और आईएसआई का जुल्म दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। बलूचिस्तान अपनी आजादी के लिए दशकों से संघर्ष कर रहा है। हमेशा की तरह इस बार भी बलूचिस्तान में चुनाव को लेकर उतना उत्साह नहीं है।

मीडिया पर पाबंदी
पाकिस्तान में इन दिनों बिना अखबार पढ़े लोगों का समय बीत रहा है। अंग्रेजी का सबसे बड़ा अखबार डॉन कुछ महीनों से लोगों की पहुंच से गायब है। इसकी वजह है 25 जुलाई को होने वाला संसदीय चुनाव। इसे लेकर अखबारों और टीवी चैनलों पर सेंसरशिप लागू की जा रही है। कराची और लाहौर में अखबार बेचने वाले हॉकरों को डॉन अखबार न बांटने का फरमान सुनाया गया है। जियो न्यूज और एक्सप्रेस न्यूज जैसे बेबाक चैनल इन्हीं वजहों से लगभग बंद हो चुके हैं क्योंकि पाकिस्तान की बदहाली के लिए उसने सेना और आईएसआई को जिम्मेदार बताया है। पाकिस्तान के किसी भी अखबार में ऐसा कोई संपादकीय नहीं लिखा जा रहा है जिसमें सेना की आलोचना हो। चुनावों से संबंधित खबरों में भी भेदभाव साफ देखा जा सकता है। पीएमएल (एन) और पीपीपी के बरक्स पीटीआई की खबरों को प्रमुखता से प्रकाशित किया जा रहा है। सिंध सूबा जहां पीटीआई का कोई आधार नहीं है वहां भी इमरान खान की रैलियों से जुड़ी खबरें प्रमुखता से प्रकाशित हो रही हैं। जबकि पीपीपी पिछले कई वर्षों से सिंध की प्रांतीय सरकार पर काबिज है, वहां उसकी खास पकड़ भी है फिर भी सिंध के अखबारों से पीपीपी की खबरें गायब हैं।

महिलाओं की उम्मीदवारी बढ़ी
पाकिस्तान की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है। इस बार चुनाव में पहली बार बड़ी संख्या में महिला प्रत्याशी मैदान में हैं। नेशनल असेंबली की 272 सामान्‍य सीटों पर 171 महिलाएं चुनाव लड़ रही हैं। इनमें 105 महिला उम्‍मीदवार विभिन्न पार्टियों से उम्मीदवार बनाई गई हैं जबकि 66 महिला प्रत्याशी बतौर निर्दलीय मैदान में हैं। पीपीपी ने सबसे ज्यादा 19 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है।