संध्या दि्वेदी

पूजा की मौत आहत करने से ज्यादा खौफ पैदा करती है। खौफ इसलिए क्योंकि कहीं न कहीं यह चेतावनी है पूजा जैसी तमाम पत्रकारों के लिए कि अपनी हद में रहो। रुटीन जॉब और खबरें करो। नहीं तो पूजा की तरह मारे जाओगे। जी हां, मारे जाओगे। पूजा की आत्महत्या को मैं आत्महत्या नहीं मानती। पूजा को मजबूर किया गया खुद को मारने के लिए। बेशक हाथ पूजा के थे लेकिन हाथों को जबरन आत्महत्या के लिए उकसाने वाले कई हाथ उन हाथों को जोर से जकड़े हुए थे। पुलिस का गैंग, डाक्टरों का गिरोह। एक और बात जो साफ कर दूं पूजा कायर नहीं थी। संस्थान का खुलकर उसके सपोर्ट में न आना पूजा की मौत का सबसे बड़ा कारण बना। हालांकि उसके ब्वाय फ्रेंड के साथ बिगड़े रिस्ते को भी मौत की वजह बताया जा रहा है। यह  वजह उसकी मौत का कारण बने कई दबावों में से एक तो हो सकती है लेकिन वजहें इससे भी बड़ी कई और हैं।

सवाल उठता है कि पूजा ने पत्रकारिता जैसे पेशे में आने के बाद भी लड़ाई की जगह मौत को क्यों चुना? जवाब न तो कठिन है न हीं टेढ़ा। सीधा सा जवाब है। पूजा को कहीं न कहीं यह एहसास था कि संस्थान उसके साथ मजबूती से नहीं खड़ा है। दरअसल पूजा यह भी जानती थी कि उसकी लड़ाई में उसके साथी पत्रकार खुलकर सामने नहीं आएंगे। पत्रकारिता एक ऐसा धंधा है-जिसमें लोग बेहद तेज तर्रार दिखते हैं। लेकिन असल में होते डरपोक किस्म के हैं। रोज नौकरी बचाने की मजबूरी उन्हें सिर उठाकर अपने अगल बगल घट रही घटनाओं को देखने का मौका नहीं देती। सच तो यह है कि बेखौफ दिखने का बहाना करने वाले पत्रकार को सबसे ज्यादा अपने संस्थान में ही धमकाया जाता है। यही वजह है कि पत्रकारों के पास दूसरे साथी पत्रकार या इस पेशे से जुड़े लोगों के साथ क्या हो रहा है उसे जानने का वक्त ही नहीं होता।

संस्थान जिसके लिए पूजा ने जान जोखिम में डालकर खबर की। हालांकि एहसान नहीं किया। संस्थान के लिए बेहतर खबरें जुटाना हर रिपोर्टर का फर्ज है। इसमें संस्थान औऱ रिपोर्टर की साझा तरक्की छिपी होती है। अब सवाल उठता है कि जब रिपोर्टर अपना फर्ज समझते हुए जोखिम भरी खबरों को सामने लाता है तो क्या संस्थान को खुलकर उसका सपोर्ट नहीं करना चाहिए? दूसरे पेशों में आप जाइये तो कर्मचारी कंपनीी का एसेट्स होता है। मैं उन पेशों की बात कर रही हूं जिन्हें समाज में एक खास जगह दी जाती है। मसलन डाक्टर, इंजीनियर, फोर्स वगैरहा वगैरहा। यकीन मानिए डाक्टर, इंजीनियर के साथ पत्रकारिता की तुलना करने में मैं थोड़ा संकोच कर रही हूं, क्योंकि मीडिया मालिकों जिनमे कुछ को छोड़कर ज्यादातर ओहदेदार पत्रकार भी शामिल हैं, पत्रकारों के भीतर कूट कूटकर यह एहसास भरने में लगे हैं कि कितना छोटा काम है, पत्रकारिता। लेकिन यह हिम्मत मैं कर रही हूं और करती रहूंगी। खतरनाक बात होती है तब जब रिपोर्टर अपनी जान खतरे में डालकर समाज केे कुलीीन वर्ग कहे जाने वाले तबके से पंगा लेता है। उसके खिलाफ खबरें लिखता है। पूजा की मौत की वजह बना उसके भीतर पनपने वाला यह एहसास की संस्थान उसके साथ खुलकर खड़ा नहीं होगा। क्योंकि जब इस तरह की खबर कोई पत्रकार करता है तो खतरे का एहसास तो उसे भी होता है। पूजा को एहसास जरूर हो गया होगा कि संस्थान उसे मदद करने से हिचक रहा है। सच्चाई यह है कि संस्थान के लिए पत्रकार महज एक मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं है। संस्थान को मतलब काम से है-लेकिन काम के दौरान आप पर कोई मुसीबत आ जाए तो फिर वह आपकी।

पूजा की मौत पर मीडिया संस्थानों में सन्नाटा पसरा है। न तो सुधीर चौधरी डी.एन.एन परीक्षण कर रहे हैं और न हीं रवीश कुमार के शो ने टीवी स्क्रीन को काला किया। न बहसें हुईं न कारणों की तलाश की गई। पूजा से ज्यादा कीमत उत्तराखंड के घोड़े की थी-जिसकी बीमारी खबर बनी तो मौत पर कई चैनलों ने प्राइम टाइम में चर्चा की। जो लोग यह कह रहे हैं कि तुम कायर थी जो तुमने मौत को गले लगाया, उन्हें चेताना चाहती हूं कि पूजा कायर नहीं थी, जिस खबर ने उसकी जान ली, ऐसी खबरें कायर नहीं किया करते। पूजा ने अपनी जान देकर मीडिया की सच्चाई को सतह में लाने का काम किया है….। पूजा तुमने एक लडा़ई शुरू की है…यह लड़ाई आगे जरूर बढ़ेगी।