संध्या द्विवेदी ।

न जाने कितनी कहानियां दबी पड़ी हैं हमारे बीच। कुछ लोग अपने दिल के राज खोलते हैं तो कुछ डरते हैं कि उनके अहसास का किसी को पता न चल जाए। जेंडर के सख्त बक्से में बंद यह समाज डरता है। इसीलिए डराता है कि कहीं स्थापित मान्यताएं टूट न जाएं, कहीं खांचों में बंद सतरंगी अहसास उनकी ब्लैक एंड व्हाइट दुनिया में घुसपैठ न कर ले। मगर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन बालू में धंसा लेने से सच्चाई तो नहीं बदलती। यह दुनिया सतरंगी है। इसे आज नहीं तो कल मानना ही पड़ेगा।’

2014 में एलजीबीटी के प्रदर्शन में शामिल एक ट्रांसजेंडर ने कुछ इस तरह से चुनौती दी थी हमारी जेंडर जनित मान्यता को जिसमें हमें सिखाया जाता है कि पूर्ण इंसान या तो औरत है या पुरुष। बाकी जो है वह अधूरा।

अप्रैल 2015 में जब ‘द राइट्स आॅफ ट्रांसजेंडर पर्सन्स विधेयक’ राज्यसभा में पारित हुआ था तो जेंडर और यौनिकता के आधार पर अलग-थलग पड़े तबके के बीच उम्मीद जगी थी। इस तबके के बीच खुशी की लहर दौड़ गई थी। इसे डीएमके सांसद तिरुचि शिवा ने निजी विधेयक के तौर पर पेश किया था। इसके बाद केंद्रीय कैबिनेट द्वारा पारित ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन एंड राइट्स) विधेयक, 2016 को 2 अगस्त 2016 को लोकसभा में पेश किया गया। ट्रांसजेंडर्स के हित में काम करने वालों की मानें तो 2015 में राज्यसभा से पास हुआ विधेयक जहां इस समुदाय के बीच उम्मीद बनकर आया था, वहीं नया विधेयक सवालों के घेरे में है। पुराने विधेयक में कई ऐसे बदलाव किए गए हैं जिन्होंने इसकी परिभाषा को ही अस्पष्ट कर दिया है।lgbt-377-movement759

प्रसिद्ध ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट गोपी शंकर का कहना है, ‘यह आधा अधूरा विधेयक है। इसमें विभिन्न जेंडर्स और यौनिकता को एक ही छाते के नीचे लाने की कोशिश की गई है। सरकार ट्रांसजेंडर को अधिकार तो देना चाहती है मगर बिना यह जाने की आखिर ट्रांसजेंडर्स हैं कौन? इस नए विधेयक की परिभाषा में ही भारी कमी है। इसमें कहा गया है कि ट्रांसजेंडर वह होगा जो न तो पूरी तरह पुरुष और न ही पूरी तरह औरत है, औरत और पुरुष का मिश्रण है, न तो औरत न ही पुरुष है। ऐसा व्यक्ति जो अपने जन्मजात जेंडर से मेल नहीं खाता हो, इसमें ट्रांस मैन और ट्रांस वुमेन भी शामिल हैं। इंटर सेक्स और समलैंगिक समुदाय को भी इसमें शामिल कर लिया गया है।’ गोपीशंकर के अनुसार यह विधेयकर जेंडर और यौनिक पहचान में अंतर कर पाने में असमर्थ है। जेंडर और लैंगिक पहचान के अलग-अलग आधार हैं जिनका घालमेल इस विधेयक में कर दिया गया है।

नाज फाउंडेशन की किरण ने इस विधेयक को जहां एक तरफ ट्रांसजेंडर समुदाय को पहचान दिलाने की तरफ बढ़ा सरकार का एक कदम माना तो दूसरी तरफ विधेयक में दी गई इसकी परिभाषा पर सवाल खड़े किए। उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 और मौजूदा विधेयक को विरोधाभाषी बताते हुए कहा कि एक तरफ ट्रांसजेंडर को आप पहचान देने की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ धारा 377 में समलैंगिक संबंध को अपराध बता रहे हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए सवाल पूछा, ‘मान लीजिए जन्म के समय मिले जेंडर के विपरीत कोई पुरुष खुद को औरत महसूस करता है और अगर वह शादी करना चाहेगा तो पुरुष से ही शादी करेगा, तो क्या वह धारा 377 के दायरे में आएगा? और अगर आएगा तो फिर क्या यह इस विधेयक में शामिल प्रावधान के विपरीत नहीं है?’ एक अहम सवाल यह भी उठ रहा है कि अगर कोई व्यक्ति अपना सेक्स बदलवा चुका है, उदाहरण के तौर पर वह जन्मजात मिली पुरुष की पहचान के उलट सर्जरी करवाकर औरत बन चुका है। उसकी शादी हो चुकी है, उसका परिवार है। यानी वह औरत की पहचान के साथ जी रहा है तो क्या उस औरत को विधेयक में दी गई एक सामूहिक पहचान ट्रांसजेंडर में लाया जाना ठीक होगा? ऐसे लोगों को एक पहचान के भीतर यानी ट्रांसजेंडर के खांचे में फिट करने की कोशिश साफ नजर आती है। सरकार जहां इसे अपनी कामयाबी बताकर पीठ थपथपा रही है वहीं ट्रांसजेंडर समुदाय के बीच इसे लेकर संदेह और सवाल हैं।

जन्मजात पहचान से अलग कुछेक किस्से अहसासों के
‘करीब नौ साल की उम्र होगी जब पहली बार मुझे लगा कि मैं लड़की हूं। मेरी गेम टीचर ने हमसे कहा कि लड़कियां एक तरफ और लड़के एक तरफ हो जाएं। मैं लड़कियों की तरफ चला गया। मेरी टीचर ने हंसते हुए कहा, अरे मोहित (बदला हुआ नाम) तुम लड़की हो क्या? उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे लड़कों के पाले में कर दिया। मैंने उनकी बात का जवाब तो नहीं दिया पर मैंने खुद से पूछा कि क्या मैं लड़की हूं? शायद पहली बार मैं सजग हुई थी अपने जेंडर को लेकर। मुझे लड़कियों के कपड़े और खेल पसंद थे। बचपना था, सो किसी ने कभी कुछ कहा नहीं। लेकिन जैसे जैसे बड़ी होती गई पाबंदियां बढ़ती गई। मुझे मेरे जन्मजात जेंडर के भीतर कैद करने की भरसक कोशिश की गई। मेरी पढ़ाई बंद करवाने की धमकी दी गई। मैंने जानबूझ कर अपने अहसासों को दबाकर रखा। मैंने पढ़ाई की और इंजीनियर बनी। 22 साल की उम्र में आॅस्ट्रेलिया आ गई। पांच साल से ज्यादा हो गए मैं घर नहीं लौटी। मैं अब लड़की हूं। मेरे माता-पिता दोनों डॉक्टर हैं। उन्होंने मुझे कभी भारत न आने की चेतावनी दी है। मैं आना चाहती हूं मगर डरती हूं कि वह मुझे स्वीकारेंगे नहीं। मेरे दोस्त मुझसे दूर भागेंगे।’
‘दक्षिण दिल्ली के एक आलीशान फ्लैट में रंजीत (बदला हुआ नाम) रहते हैं। एमबीए की डिग्री हासिल कर नौकरी कर रहे हैं। उनका लाखों का पैकेज है। वह कहते हैं, ‘मैं वह नहीं हूं जो दिखता हूं बल्कि पुरुष के शरीर में बंद एक औरत हूं। मगर डरता हूं कि अगर मैंने अपना अहसास किसी के सामने खोला तो मेरा घर छूट जाएगा। मैं यहां अपने एक पुरुष मित्र के साथ ही रहता हूं। हमने शादी भी कर ली है। मगर घर वालों को कुछ पता नहीं है। घर वालों को लगता है कि वह मेरा अच्छा दोस्त है पर वह मेरा जीवन साथी है। अब मेरे घर वाले मुझ पर शादी का दबाव डाल रहे हैं।’
इसी तरह अजय (बदला हुआ नाम) ने बताया, ‘सबको लगता है कि हर हिजड़ा ताली बजाता है, नाचता है, गालियां देता है। हममें से कई यह करना चाहते हैं मगर कई पढ़कर डॉक्टर-इंजीनियर तो कई आर्टिस्ट बनना चाहते हैं। 14 साल की उम्र में मुझे घर से भागना पड़ा। मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था। पर मैं दूसरे लड़कों से अलग था, मैं ट्रांसजेंडर था। मैं न पूरी तरह लड़का था न ही लड़की। मेरी मां चाहती थी कि मैं बिल्कुल लड़कों जैसा ही रहूं। किसी को शक न होने दूं। मगर कब तक मैं अपने अहसास को दबा सकता था। मुझे दोस्ती करने की इजाजत नहीं थी। रिश्तेदारों से पढ़ाई के नाम पर दूर रखा जाता था। कोई आता तो कमरे में बंद कर उनसे कहा जाता कि सुहेल शर्मिला है, सबसे घुलता मिलता नहीं। मैं एक दिन घर से भाग गया। मेरी पढ़ाई छूट गई। मैं हिजड़ों के साथ शामिल हो गया। मैं नाचता नहीं, ताली नहीं बजाता पर ढोलक बजाता हूं। क्या करूं कुछ तो करना है न। मैं अपने स्कूल का टॉपर था, गणित मेरा प्रिय विषय था।’