प्रदीप सिंह/जिरह

पैसे की सत्ता सबसे ताकतवर होती है। इसे अगर फिर से साबित करने की जरूरत थी तो विजय माल्या ने कर दिया है। हमारे देश में व्यवस्था कैसे काम करती है माल्या का मामला इसकी जीती जागती मिसाल है। सरकारी विभाग, बैंक, विभिन्न जांच एजेंसियां, सरकार और न्यायपालिका सब शरीके जुर्म हैं या निष्प्रभावी। माल्या ने बताया है कि व्यवस्था पैसे की बांदी है। इस देश में सब कुछ खरीदा जा सकता है। दाम लगाने वाला चाहिए। वह नियम तोड़ता रहा और व्यवस्था उसकी मदद करती रही। जन दबाव और मीडिया की आलोचना जब तक व्यवस्था को जगाती तब तक माल्या सात समंदर पार जा चुका था। वह देश छोड़कर जा रहा था इसकी जानकारी देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को थी। लेकिन सीबीआई ने उसे रोकने का प्रयास करने की भी जरूरत नहीं समझी। व्यवस्था किस तरह से माल्या के इशारे पर काम कर रही थी, इसका एक नमूना उसके गोवा के बंगले का है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को बॉम्बे हाई कोर्ट से माल्या के गोवा स्थित विला को कब्जे में लेकर नीलाम करने की इजाजत मिल गई थी। बैंक के अधिकारियों और गोवा के कलेक्टर के बीच आठ बैठकें हुईं और उसके बाद कलेक्टर अचानक छुट्टी पर चला गया। बैंक को विला का कब्जा नहीं मिला।

बैंकों ने जिस तरह से माल्या और उसकी किंगफिशर एयरलाइंस को कर्ज दिया है उससे ऐसा लगता है कि जितना वह कर्ज लेने के लिए इच्छुक था उससे ज्यादा बैंक के अधिकारी कर्ज देने के लिए उत्सुक थे। सर्विस टैक्स विभाग को बॉम्बे हाई कोर्ट की फटकार सुननी पड़ी, जब वह इस मामले की सुनवाई तेज करने की अपील करने गया। किंगफिशर एयरलाइंस ने 2011-12 व 2012-13 में यात्रियों से जो सर्विस टैक्स लिया उसे सरकारी खजाने में जमा नहीं किया। ऐसा करना गैर जमानती अपराध है। इसके बावजूद विभाग ने माल्या को नोटिस भेजने की भी जरूरत नहीं समझी। अदालत ने विभाग से पूछा कि जब उस समय नोटिस तक नहीं भेजा तो अब जल्दी का क्या अर्थ है। माल्या ने अपने कर्मचारियों का आयकर भी जमा नहीं किया। वह यह सब करता रहा और बैंक उसे नए नए कर्ज देते रहे। पिछले पांच साल से सरकार सोती रही। माल्या सबको ठेंगा दिखाकर चला गया। एक समय था जब माल्या के सांसद बनने के बाद सांसदों, मंत्रियों, नेताओं में माल्या के निजी विमान से यात्रा का अवसर पाने की होड़ लगी रहती थी। शायद ही कोई पार्टी (वामपंथी दलों को छोड़कर) थी जिसके नेता माल्या की कृपा के लिए लालायित नहीं थे। उसके भागने के बाद नई होड़ लगी है। यह दिखाने की कि कौन उसके भागने से कितना चिंतित है।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने राज्ययसभा में कहा कि सरकार के पास माल्या जैसे बाइस उद्योगपतियों की सूची है। ये सभी सरकारी बैंकों का पैसा डकार कर चैन की नींद क्यों सो रहे हैं इसका जवाब सरकार को देना चाहिए। सरकार और रिजर्व बैंक के गवर्नर कहते हैं कि बैंकिंग नियमों के तहत इन बाइस लोगों की सूची सार्वजनिक नहीं की जा सकती। सवाल है कि यह नियम बदला क्यों नहीं जा सकता। देश को जानने का हक है कि आम लोगों की गाढ़ी कमाई को लूटने वाले कौन हैं। यह भी कि क्या अब भी उन्हें सरकारी मदद हासिल है। सही है कि माल्या को सरकारी बैंकों से कर्ज डॉ. मनोहन सिंह की सरकार के दौर में मिला। लेकिन मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते ही पूरी दुनिया को पता चल गया था कि माल्या ने कितने बड़े पैमाने पर लूट की है। सवाल है पिछले पौने दो साल में नरेन्द्र मोदी की सरकार ने क्या किया। सीबीआई जिसकी जांच कर रही है वह देश से भाग कैसे गया। फिर यह क्यों न मान लिया जाए कि इस सरकार में भी माल्या के खैरख्वाह हैं।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद से भारत के सरकारी बैंकों को राजनीतिक दलों, खासतौर से सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने अपनी चारागाह बना लिया है। यहां रसूख वालों को कर्ज देते समय नियमों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है और आम आदमी के मामले में नियम को माइक्रोस्कोप से पढ़ा जाता है। क्या कारण है कि देश में कंपनियों को दिवालिया होते हुए तो देखा गया है पर किसी कंपनी के मालिक को नहीं। जिनकी कंपनी दिवालिया होती है वे मौज करते हुए नजर आते हैं और किसान आत्महत्या करते हुए। एक कंपनी दिवालिया हो जाए या बैंक का कर्ज लेकर भाग जाए तो भी उसी मालिक की दूसरी कंपनी को आसानी से कर्ज मिल जाता है। उद्योगपतियों, बैंक के अधिकारियों, नौकरशाहों, निगरानी एजेंसियों और नेताओं का गठजोड़ दशकों से जनता का पैसा लूट रहा है क्योंकि किसी की कोई जवाबदेही नहीं है। जिन्हें जवाबदेही तय करनी है वे खुद ही इसमें शामिल हैं। इसलिए सब एक दूसरे के बचाव में खड़े रहते हैं। एक भी एजेंसी ने ईमानदारी से काम किया होता तो माल्या आज विदेश में नहीं जेल में होता। विजय माल्या को आज सरकार की कृपा पर निर्भर होना चाहिए था। पर विडंबना देखिए कि सरकार अब माल्या की कृपा पर निर्भर है कि वह लौटकर आए और अपने को कानून के हवाले करे। एक लुटेरे से ऐसी सदाशयता की उम्मीद कोई सरकार ही कर सकती है।