पद्मा सचदेव

लिखना कब से शुरू किया?
लोक गीतों से शुरू हुआ मेरा लेखन। 1947 में मेरे पिता जी नहीं रहे। एक साल बाद जब पिताजी की बरसी के लिए ताऊ जी हमें गांव ले गए तो वहां डोगरी लोक गीतों से मेरा साबका पड़ा। मैं समझती हूं कि मुझे लोक गीतों से बहुत मिला। उस समय जो डोगरी का लोक गीत चल रहा होता था तो उसमें मैं छंद जोड़ देती थी, बस ऐसे ही शुरू हुआ मेरा लेखन।

क्या चीजें प्रोत्साहित करती थीं आपको लिखने के लिए?
मैं बड़ी हैरान होती थी यह देखकर कि ‘तीय ते बै के सिपाही साडे रोहंदे ते तकिए ते रहूंदे ओहदेदार, सपाईया नामा कटाई कर आ’ यानी कि कच्चे बैरकों में हमारे सिपाही और पक्के क्वार्टरों में ओहदेदार रहते हैं। तो ये असमानता मुझे झकझोर देती थी। लिखने के लिए प्रोत्साहित करती थी। तभी कहा कि ‘तू सिपाही अपना नाम कटवा कर घर चले आओ।’ घर में खाने को बहुत है।

कविता में किसका प्रभाव रहा?
मैंने अपनी कविता को हमेशा सुथरा रखा है। ना लोक गीतों की उस पर झलक पड़ी है, ना किसी और की। मैं बहुत पढ़ती हूं। उर्दू के शायरों को भी बहुत पढ़ती हूं। हिन्दी के कवियों को बहुत पढ़ा है। लेकिन मैंने किसी की छाया अपनी कविता पर नहीं पड़ने दी क्योंकि वो सिर्फ मेरी कविता है।

हिन्दी लेखकों के बहुत पथ-प्रदर्शक रहे हैं। क्या डोगरी में भी आपका कोई पथ-प्रदर्शक रहा है?
जब मैंने डोगरी में पदार्पण किया तब बहुत से कवियों ने अपना स्थान बना लिया था। प्रो. रामनाथ शास्त्री कवि भी थे। यही नहीं पितामह थे सबके और हम सब उनकी छाया तले ही बड़े हुए । शास्त्री जी ने एक संस्था लेखकों संग मिलकर बनाई थी। वो आज भी है। उसमें जब लिखना शुरू हुआ तो उसमें काफी नामी कवि थे। उसमें ऐसे भी लोग थे जिन्होंने उपन्यास लिख लिए थे, कहानियां लिख ली थीं क्योंकि भाषा जब शुरू होती है तो कवियों का ही ज्यादा वर्चस्व होता है। तो रामनाथ शास्त्री खुद कवि थे। दीनू भाई पंत बहुत बड़े कवि थे। शहर पैलों पैल गे, उनकी कविता थी ‘गल तू के सुनाणी, अऊं ता मुंडा आ हरामी, कर कम आ बथेरा, सारे सिर खाण मेरा, कूते गा कूते बा, जिंद फसी गई है फा, कर रोए करा आली, उसे गजरे दा चा।’ इस तरह की कविताएं थी जो लोग सुनते थे और खुश होते थे कि हमारी भाषा में भी साहित्य रचा जा रहा है। दीनू भाई पंत मैं समझती हूं हमारे पहले आधुनिक कवि हैं, जो हमारे डुगर प्रदेश में जाने गए। इसके बाद मधुकर हैं, दीप हैं, यश हैं। यश बहुत अच्छे गीत गाया करते थे। इस तरह बहुत से कवि थे जिन्होंने लिखा। लेकिन मुझे प्रेरणा सिर्फ लोक गीतों से मिली।

कविता लिखना कैसे शुरू किया?
ना सोचा ना समझा, ना देखा ना जाना, हमें आ गया, खुद ब खुद दिल लगाना। मुझे किसी को कहना नहीं पड़ा। खुद ब खुद चीजें होती चली गर्इं। एक शेर कोट करती हूं और कर रही हूं या मानो कि कविता तब आती है- ‘टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में, डूब जाता है कभी मुझ में समंदर मेरा।’ ये वो लम्हा होता है जब इंसान कविता लिखता है और ऐसे ही मैं कवयित्री हो गई।

तीस साल की उम्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार का मिलना कैसा लगा आपको?
सच बताऊं तो समझ ही नहीं थी कि ये है क्या। मुझे नहीं पता था कि जो रास्ता मुझे तय करना है यह उसका पहला द्वार है जो मेरे लिए खुल गया है।

आपकी आत्मकथा ‘चित्त चेते’ के लिए आपको सरस्वती सम्मान दिया जा रहा है। किताब का कोई किस्सा साझा करें।
चित्त मतलब मन और चेत्ते मतलब स्मृतियां। ये किताब मेरे मन की स्मृतियों का आईना है। मैंने हर उस बात पर जो गलत है स्टैंड लिया है और झगड़ा किया है। जैसे एक किस्सा सुनाती हूं। एक इंस्पेक्टर थी मिसेज ठूसु। मेरी मां टीचर थीं बाजार कसाबा स्कूल जम्मू में। माताजी बहुत कम पढ़ी थीं। वो क, ख, ग ही पढ़ा पाती होंगी। पिताजी ने इतना ही उन्हें पढ़ाया था। पिताजी की मृत्यु के बाद ही वो वहां टीचर लगी थीं। एक बार मिसेज ठूसु ने सब टीचरों को डांटा, मेरी मां को भी डांटा। उसके बाद मेरी मां घर पर रोती रोती आई। मैंने मां को कलेजे से लगा लिया बोला- बताओ क्या बात है। उन्होंने कहा कि मुझे मिसेज ठुसु ने डांटा है। अब मैं नौकरी नहीं करूंगी। उन दिनों मेरे पिताजी की पेंशन की बात चल रही थी। उस वक्त पेंशन और नौकरी दोनों साथ नहीं मिलते थे। तो मैंने मां से कहा कि कल से आप स्कूल नहीं जाएंगी बस। और मैं मिसेज ठुसु के घर चली गई जो इंस्पेक्टर थी। वो मुझे स्कूल से जानती थी। वो जानती थी कि मैं पद्मा शर्मा हूं। जब मैं उनके घर गई तो वो घर पर नहीं थीं। मैं उनके घर के बाहर उनका इंतजार कर रही थी। जब वो आर्इं तो पूछा- पद्मा तुम यहां क्या कर रही हो। मैंने कहा कि जिन औरतों को आप ने बाजार कसाबा में डांटा था उनमें एक मेरी मां भी थी जो प्रोफेसर जयदेव शर्मा की पत्नी हैं। मैं सिर्फ आपको यह बताना चाहती हूं कि ये मत भूलिए कि आप भी इसी में से होकर आई हैं। आपके पति की मृत्यु भी 1947 के दंगो में हुई थी। आपने जो भोगा है मेरी मां ने उससे कहीं ज्यादा भोगा है। हम तीन बच्चे हैं और वो बाईस साल की एक औरत है। आपने उसको डांटा, मेरी मां आपके स्कूल में नौकरी नहीं करेगी। उसने कहा बात तो सुन। मैंने कहा मैंने नहीं सुननी और मैं भाग गई। मैं समझती हूं कि जिन्दगी में ये मेरा सबसे बड़ा विद्रोह था जो मैंने किया था। फिर मेरी मां वहां नहीं गई और मेरे पिताजी की पेंशन लग गई। फिर हम लोगों को मां ने ही पाला।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        (जारी है…)