कॉरपोरेट जगत की अंधी दौड़ में मेहनती प्रतियोगी के अपने दिनों में मुझे एक कहावत बहुत पसंद थी। जहां भी मैंने काम किया, मेरे क्यूबिकिल दिनों से लेकर उस समय तक जब मैं एक बेहतर केबिन में गया, वह हर जगह प्रमुखता से सामने लगी रहती थी : ‘जिंदगी छोटी है, और राह लंबी। शीघ्र चलें…’

वह कथन मुझे पसंद था। यह कैरियर के प्रति मेरे रवैये को, वास्तव में मेरी जिंदगी को दर्शाता था। कहना न होगा, मैं उम्मीद करता था कि मेरी टीम के सब लोग इस रवैये को शेयर करेंगे… मैं तो इसे अपने बॉस लोगों पर भी लागू करने की कोशिश करता था, गुस्ताखी देखें! मेरी सतत धुन थी : इस एक जिंदगी में हमारे पास बहुत कम वक्त है। हमें उन सब चुनौतियों को स्वीकार करना चाहिए जो हमारे रास्ते में आती हैं; अपने दिन को जितना संभव हो सके, भर लें, उसे सार्थक बनाएं। कार्पे दिएम! दिन को हथिया लें! क्या ग़्ाजब का रवैया है, है न? आप पढ़ते वक्त भी लगभग कल्पना कर सकते हैं जैसे कि कोई अमेरिकी प्रेरणादायी वक्त आप पर ये शब्द चिल्ला रहा है।

पीछे देखता हूं तो हैरानी होती है कि मैं कितना अपरिपक्व और सीधा था। वास्तव में मैंने अपनी जिंदगी को अनर्थक उद्यमों, लक्ष्यों से भर दिया था जो मेरी जिंदगी में कोई सार्थकता नहीं लाते थे और न ही मैं बदले में उनमें कोई सार्थकता ला पाता था। आज मैंने उस ज्ञान को फिर से सीख लिया है जिसे मुझे बचपन में सिखाया गया था। जिसका सिरा मैंने जुझारू कॉरपोरेट योद्धा बनने के अपने प्रयासों के दौरान गुम कर दिया था। हम भारतीय हैं। हमारी सांस्कृतिक विरासत में अनेक जीवनों की अवधारणा है। तो क्या वाकई वक्त की कमी जैसी कोई चीज हो सकती है? जब आपको एहसास होता है कि आपको सब चीजों का अनुभव इस एक जीवन में ही करने की जरूरत नहीं है, तो आप प्राथमिकताएं तय कर सकते हैं। अब मैं उससे कहीं ज्यादा मेहनत कर रहा हूं जितनी अपने कॉरपोरेट अवतार में कर रहा था। लेकिन मैं यकीनन उस तरह से हर वक्त थका हुआ नहीं रहता हूं जितना रहा करता था। क्योंकि मैं प्राथमिकताएं तय करता हूं। मैं केवल वही काम करता हूं जो समय के उस पल मुझे अहम जान पड़ते हैं। मैं उन कामों को नहीं लेता जिन्हें मैं नहीं करना चाहता, सिर्फ इसलिए कि अब मुझे स्वयं को कुछ साबित करने की जरूरत महसूस नहीं होती। उदाहरण के लिए, मैं पहले बेतहाशा पार्टियों में जाया करता था क्योंकि मैं संबंधों के तनाव को महसूस करता था। अब मैं केवल तभी सामाजिक उत्सवों में शरीक होता हूं जब मैं चाहता हूं। अतीत में, अगर मैं काम के बोझ से दबा होता था तो भी अतिरिक्त प्रोजक्ेट ले लेता था- यह हमेशा अनिवार्य सा लगता था। आज, अगर मेरे पास टाइम नहीं है, तो मैं सीधे मना कर देता हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि अवसर दोबारा आएंगे, इसी जिंदगी में या अगली में!
यह विचार कि हम अनेक जीवन जीते हैं, हमें बहुत ज्यादा स्पष्टता प्रदान करता है! यह दबाव दूर कर देता है और हमें केंद्रीकृत और जमीन से जुड़े रहने में मदद करता है। तब हम उन चीजों पर फोकस कर सकते हैं जो वाकई महत्व रखती हैं। तो मेरा फोकस किस पर है? अपनी किताबें लिखने, हमारी संस्कृति/दर्शनशास्त्रों के प्रचार, अपने परिवार के साथ वक्त बिताने, यात्राएं करने, संगीत सुनने और पढ़ने पर। बस। बाकी सभी चीजों पर केवल तभी ध्यान दिया जाता है जब मेरे पास खाली समय होता है। याद रखें, बात जब महत्वहीन प्रोजेक्टों की आती है, तो आप आराम से कह सकते हैं- मैं इसे अपनी अगली जिंदगी के लिए छोड़ रहा हूं!