आजमगढ़ के सुदूर पश्चिमोत्तर इलाके में स्थित मेरे गांव सम्मौपुर के एक कुलीन परिवार में अपने पिता के तीसरे सुपुत्र के रूप में जन्मे सूर्यभान मौर्य का अर्थवान नाम ही मुख-सुख के चलते ‘सुभान’ और फिर भोजपुरी लहजे में ‘सुभनवां’ होकर निरर्थक नहीं हुआ, आज उसका जीवन भी अर्थहीन होकर रह गया है। जिन दिनों मेरे बड़के बाबू (स्व. कुबेरनाथ त्रिपाठी) और सुभान के दादा बासू (क्या वसुदेव!) मौर्य के बीच चलती चुहलबाजी में यह होड़ लगती रहती थी कि कौन बाद में मरेगा और किसकी तेरहवीं की पूड़ी कौन खा पाएगा… उन्हीं दिनों सुभनवां चलने व दुलकिया दौड़ने जितना बड़ा हो गया था और हमेशा अपने हाथ का अंगूठा मुंह में डालके चूसते हुए दिखता था- गोया उनकी होड़ को अंगूठा दिखा रहा हो। यह चूसना गांव में जितने हिट विनोद का बड़ा विषय हुआ करता था… उतना ही नजर अंदाज रह गया था उसका अंगूठा, जो चूसते-चूसते बेहद पतला हो गया था। कौन जानता था कि वही बचपन उसकी जिन्दगी का प्रतीक बन जाएगा? आज जिन्दगी के हाथों चुस-चुस कर उसकी हालत उस अंगूठे से भी अधिक पतली हो गई है और स्थिति की विकटता यह कि आज के प्रगत समाज में इसकी किसी को रंचमात्र भी पड़ी नहीं है।

यूं कहने को भरा-पूरा परिवार है सुभनवां का, पर लगभग 50 साल की उम्र में वह एकदम अकेला रहता है। उसके पास घर है, कृषि-कार्य के लिए आज के साधन-संपन्न समय में एक परिवार के अच्छे गुजर लायक पर्याप्त खेत हैं- 15 फीट चौड़ा और सैकड़ों फीट लम्बा खेत तो गांव की सड़क के किनारे है, जहां उसके दोनों बड़े भाइयों की दुकानें आदि हैं। लेकिन सुभान एक ठाकुर साहेब के यहां नौकरी करता है। वहीं खाता-सोता है। किसान को लेकर प्रेमचन्द की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि जमींदार, साहूकार व धर्म की चक्की में पिसकर वह मजदूर और बंधुआ मजदूर बनता जा रहा है, तो ऐसे में आज एक गृहस्थ का गुलाम होना उनके लिए कितना त्रासद होता! सुभान वेतन के नाम पर क्या पाता है, किसी को पता नहीं- उसे भी ठीक से मालूम नहीं। जब भी पूछो, संतुष्ट भाव से बता देता है- अभी उन्होंने अपने साधन व खर्च से मेरे खेत बुवा दिए… अभी बीमार था, तो दवा कराई…वगैरह। यानी कभी कोई शिकायत नहीं।

पत्नी व बड़े-बड़े तीन बच्चों का परिवार दिल्ली में है। तब की रीति के मुताबिक बचपन में ही शादी हो गई थी। और संतानें भी शादी के कुछ सालों में ही पैदा हो गईं। पहले तो साथ गया था दिल्ली सुभान भी, पर कुछ दिनों बाद लौट आया। सुनते हैं कि दिल्ली में वे सब सड़क पर नाश्ते-खाने की दुकान चलाते हैं और बड़े ठाट से रहते हैं। कभी किसी त्योहार के मौके व शादी-ब्याह के अवसर पर यहां भी आते हैं, तो वही ठाट-बाट। जिस दिन मैं यह लिख रहा हूं, अपनी पट्टीदारी की एक गमी में वह आई है, पर सुभान वहीं ठाकुर साहेब के यहां ही खा रहा है। सुभान से पूछो- तुम क्यों नहीं जाके दिल्ली रहते, तो कभी जवाब आता है- वो सब बुलाते हैं, लेकिन (मुंह बिदकाते हुए) मुझे वहां अच्छा नहीं लगता। कभी यह कि अभी जाने वाला हूं। कभी जाता भी है, पर महीने-पखवारे में लौट आता है। यानी कुछ तो ऐसा है कि किसी की ताबेदारी करना कुबूल है, पर घर-परिवार के साथ रहना नहीं। फिर भी कुल मिलाकर यह कि उनसे भी शिकायत की कोई बात जुबान पर नहीं।
एक बार बड़ा खुश दिखा सुभान। मेरे पूछने पर बताया कि पत्नी-बच्चे दिल्ली में जमीन खरीदना चाह रहे हैं। सो, बुलावा आया है। मैं उसकी खुशी में बट्टा नहीं लगाना चहता था, पर उसे चेताने से खुद को रोक न सका – देखो सुभान, कहीं झांसे में आके यहां का खेत-वेत बेचके उन्हें पैसे न दे देना, वरना और भी कहीं के नहीं रह जाओगे। तब सुभान ने कहा- वो तो मैं कह चुका हूं कि जरूरत हो, तो मैं खेत बेचके पैसे दे दूं। सुनके मैंने सर पीट लिया, पर सुभान आगे बोला कि उन सबों ने जोर देकर मना कर दिया कि गांव की जायदाद कभी न बेचना। मैं अवाक…। ऐसा है अपना सूर्यभान मौर्य!

और यही उसके निपट अकेले या किसी के ताबेदार होने की वजह भी है। इतना भी क्या सीधा होना आदमी का कि पत्नी से लेकर सगरो गांव-पूर उसे निरा बुद्धू समझ के जो चाहे, करे। खेती-बारी व लेन-देन का हिसाब-किताब करने में बचपन से ही भोहर रहा सुभान। काम करने का कौशल तो नहीं है उसमें, पर उस पर कामचोरी का प्रच्छन्न आरोप भी है। इसी से छुटपन पर ही मां-बाप ने पड़ोस वालों के यहां नौकर रखवा दिया था, तो दूसरे के बताए पर ही करने की आदत पड़ गई। इन्हीं कारणों से पत्नी ने भी इसे दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर किया और अपना रास्ता दिल्ली बना लिया, जबकि बताकर व मिल-मिलाकर काम हो सकता था। इधर सड़क पर होटल चलाने की रीत-भात सुभान को रास नहीं आई, पर मना न कर सका और न पत्नी ने माना। पुरानी आदत के लगे ठाकुर की नौकरी में त्राण पा लिया। अब इसके सिवा उसकी कोई गति नहीं।

सुभान के इस जीवन-तथ्य का पता तो मुझे शुरू से था, पर सेवामुक्ति के बाद गांव में ज्यादा आते-जाते सुभान का जीवन मेरे सोच से टकराने लगा है! ग्रियर्सन ने कहा है कि पूरा उत्तर भारत उस तुलसी का बनाया हुआ है, जिनके कहे ‘अन्ध-बधिर-कोढ़ी अति दीना’ पति का अपमान करने वाली ‘नारि पाव जमपुर दुख नाना’ की आज के विकसित समाज में खूब छीछालेदर हुई है, जो सही भी है। लेकिन काश, वह व्यवस्था आज होती, तो सुभान के जीवन का ऐसा विद्रूप न होता। चलिए, तुलसी की इस ज्यादती को खारिज ही कर दें, तो भी यदि पहले की ही ग्रामीण व्यवस्था होती, तो क्या ऐसा हो पाता- बुजुर्ग व पंच अवश्य लक्ष्य (नोटिस) करते और कुछ हो जाता! फिर वह इतना लिंग-आधारित भी न था। डोली आती है, तो अर्थी ही जाती है, का मर्म नारी की किलेबन्दी का ही न था, जाने कितनी ऐसी स्त्रियों का कुलीन निर्वाह भी इसी के तहत हुआ है, जो होती, तो सुभानों के जीवन भी लावारिस होने से बच पाते। लेकिन आज पाश्चात्य से आई निजता (इंडिविजुअलिटी) का बोलबाला है। लिहाजा लोग किसी के जीवन में दखल न देने के नाम पर अपनी-अपनी में गर्क हैं। ऐसे में सुभान की वही गति है कि ‘कहतो न बने, सहतेई बने, मन ही मन पीर पिरैबो करे’!