एन.के.सिंह

गाँव की कोई बुजुर्ग महिला को अचानक शहर आ कर किसी व्यस्त सड़क को पार करते देखें। सड़क पार करते हुए वह अपना मुंह अपने आँचल से ढक लेती है शायद यह मानते हुए कि चूंकि उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा है तो सड़क खाली है मुदहूँ आँख कतहूँ कछु नहीं के भाव में। नतीजा आप समझ सकते हैं। फांसी की सजा पाए भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान सरकार ने बकौल अपने विदेश मंत्रालय मानवता के मानदंडों के अनुरूप उसके परिवार वालों से मिलाया। पाकिस्तानी अफसरों को उस गाँव की बुढ़िया की तरह लगा कि सड़क साफ है और कोई नहीं देख रहा है। लेकिन पूरे विश्व ने देखा कि इस देश को और पाया कि अभी भी आदिम सभ्यता की गर्त से निकलने में युगों लग जाएंगे।

पाकिस्तान हमारे उस पड़ोसी की तरह है जो रोज शराब पी कर अपने बच्चों को और पत्नी को पीटता है, गाली-गलौच करता है, उन्हें खाना नहीं देता, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति आपराधिक उदासीनता दीखता है लेकिन न तो उसकी पत्नी कुछ बोलती है न ही बच्चे क्योंकि वे कहाँ जाएँ ? कोई कानून इस समस्या को हल नहीं कर सकता जब तक परिवार के सदस्य इसके खिलाफ खुद न खड़े हों। सिद्धांत हैं किसी के व्यक्तिगत मामले में बाहरी दखल न देने की। इस देश में विकास अंतिम सांस ले रहा है, मोबाइल के लिए कत्ल हो जाता है। बेटियां पढ़ती नहीं हैं। लाहौर तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान के प्रभाव से दूर है तो क्या हुआ? दो साल पहले इस खूंखार संगठन ने ऐलान किया कि उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान की तरह यहाँ भी लड़कियां अगर स्कूल गर्इं तो स्कूल बम से उड़ा दिया जाएगा। न मानने पर एक स्कूल बम से उड़ा दिया गया। सरकार मूकदर्शक बनी रही। लिहाजा लोगों ने अपनी बेटियों को स्कूल भेजना बंद कर दिया। पूरे देश में मानव विकास के पैरामीटर उठ ही नहीं पा रहे हैं और बस एक ही भाव है कट्टर इस्लाम के वर्चस्व का। चूंकि आधुनिक शिक्षा के अभाव में सामूहिक चेतना बेहद अतार्किक है लिहाजा युवा जिहाद को अपने वजूद की अंतिम परिणति मानता है क्योंकि उसे काफिर को मारना ही अल्लाह के काम आने जैसा बताया गया है जिसके बाद उसे जन्नत में 72 हूरें मिलेंगी और फिर ऐश ही ऐश। इस जड़वत समाज में हम आधुनिक मानवीय मूल्यों की अपेक्षा करें तो झटका लगेगा ही।

लिहाजा पाकिस्तानी हुक्मरान ने जिस तथाकथित ‘मानवता के मानदंडों को मानते हुए’ यह मुलाकात करवाई उसमें बंदी कुलभूषण जाधव कांच की दीवार के इस पार था और परिवार (मां और पत्नी) उस पार। उनसे कहा गया कि वे अपनी भाषा (मराठी) में नहीं बल्कि अंग्रेजी या हिंदी में बात करें। जाहिर है अगर कुरआन शरीफ के किसी पाकिस्तानी विद्वान को भी कहा जाए कि अल्लाह के बारे में जर्मन भाषा में बताओ तो वह नहीं बता सकता। लिहाजा कोई संवाद हो ही नहीं पाया। उतने भावनात्मक क्षण में जिसमें पत्थर भी पसीज जाए, पाकिस्तानी अधिकारियों का रवैया पशुवत था। उस मानसिकता को देखें कि शीशे की दीवार के उस पार से टेलीफोन के जरिये अंग्रेजी की बाध्यता के साथ आतंक के माहौल में न तो मां-बेटे में कोई बात हुई न पति-पत्नी में। मुलाकात के पहले दोनों की चूड़ियाँ, माथे की बिंदी व मंगलसूत्र निकाल लिए गए, कपड़े बदल दिए गए और जूते वापस ही नहीं किए गए। जाहिर है पूरा भारत इस रवैये से स्तब्ध है। देश के विदेश मंत्रालय ने न केवल तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है बल्कि उसे यह भी शक है कि पाकिस्तानी सरकार जूते में कुछ रख कर यह आरोप लगा सकती है कि भारत की खुफिया एजेंसी ने ट्रांसमीटर या कैमरा फिट किया था इसलिए जूते वापस नहीं किए गए। बहरहाल, अगले दिन भारत के आक्रोश का जवाब देते हुए पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘हमने यह सब इसलिए किया क्योंकि हमें शक था कि भारतीय एजेंसियां कुछ मशीनें शरीर के वस्त्र या जूते में रखवा सकती हैं।’ स्पष्ट है यह तर्क कितना लचर था विश्व समुदाय के लिए। मशीन केवल आवाज रिकॉर्ड कर सकती थी और कुलभूषण की असली शक्ल का फोटो खींचा जा सकता था। पाकिस्तान को क्या इसका डर था? क्या कुलभूषण की शक्ल को बिगाड़ा गया है? क्या उसे इतना मारा-पीटा गया है जिससे पाकिस्तान सरकार उजागर नहीं होने देना चाहती? भारतीय विदेश मंत्रालय का मानना है कि कुलभूषण का निचला हिस्सा इसलिए मुलाकात के दौरान नहीं दिखाया गया क्योंकि नीचे का अंग मार के कारण लकवाग्रस्त हो गया होगा।

कुल मिलकर पाकिस्तान को इससे मिला क्या? क्या विश्व यह मान लेगा कि पाकिस्तान का व्यवहार मानवीय है तब जब कि मां-बेटे को शीशे की दीवार के उस पार से मिलवाया गया। गाँव की बुढ़िया जो कभी शहर की सड़कों का नियम नहीं जानती और आँचल से मुंह ढक कर सड़क पार करती है वही तो पाकिस्तान ने किया। किस बात का डर था अगर मां-बाप गले मिलते तो? क्या यह कि वह रो-रो कर बताता कि पाकिस्तानियों ने उसके हर अंग को तोड़ दिया है और मानसिक प्रताड़ना की सभी हदें पार करते हुए उसे अवचेतना की स्थिति में पहुंचा दिया है। जाहिर है कुलदीप का मुंह सूजा था, वह सामान्य मानसिक अवस्था में नहीं लग रहा था। परिवार से मिलने का हर्ष व उत्साह कहीं भी उसके चेहरे पर नहीं झलक रहा था। वह जड़वत दीख रहा था। उसने यंत्रवत वही बोला जो उसे पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा सिखाया गया था, शायद इस डर के साथ कि जाने के बाद फिर उसे वही यंत्रणा झेलनी पड़ेगी।

क्या पूरी दुनिया यह सब कुछ समझ नहीं सकेगी? फिर पाकिस्तान को हासिल क्या हुआ? अगर दुनिया को रंग-पुता कर अपना मानवीय चेहरा (जो भयावह है) दिखाना चाहता था तो वह खूंखार रूप से प्रगट हुआ। अगर भारत से अच्छे संबंध बनाने के लिए यह किया था तो वह उल्टा पड़ा और अगर अंतरराष्ट्रीय नियमों व तज्जनित दबावों के चलते किया था तो कुलभूषण के साथ की उसकी अमानवीय यातना का खाका दुनिया से छिपा नहीं रह गया। अगर भारत को चिढ़ाने के लिए यह सब कुछ किया तो इसका प्रतिकार हमें वहां के अधिक से अधिक बीमारों का इलाज करके देना होगा। पिछले 3 जुलाई को पाकिस्तान मेडिकल एसोसिएशन ने भारत के इस रवैये की तारीफ की। भारत का इस्लामाबाद स्थित उच्चायोग अपने वीजा नियमों को लचीला बनाते हुए बीमारों को वीजा दे रहा है। एसोसिएशन ने प्रेस नोट जारी करके बताया कि भारत में इलाज बेहतर और अन्य देशों के मुकाबले सस्ता है और पिछले साल पाकिस्तान के 500 बच्चों सहित कुल दो हजार लोगों का भारत में इलाज हुआ।

उधर, चेतना के स्तर पर आज भी सदियों पीछे रहे इस देश की स्थिति यह है कि इस देश के लोगों में इस जड़ता से निकलने की चाह भी खत्म हो गई है बल्कि आधुनिक सभ्यता के मानदंडों से इसे भय लगता है। कुछ बानगी देखें। इस देश के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र को फाटा के नाम से जाना जाता है जो कहने को तो पाकिस्तान में है परंतु सारा प्रशासन अप्रत्यक्ष रूप से इस्लामिक आतंकवादियों के संगठन तहरीक-ए-तालिबान द्वारा चलाया जाता है। इसने एक फरमान जारी किया कि क्षेत्र की लड़कियां केवल घर में ही रह कर पढ़ेंगी और वह भी मात्र कुरआन। दूसरा फरमान था कोई मर्द डॉक्टर किसी भी बीमार औरत को हाथ नहीं लगाएगा और दूर से ही इलाज करेगा। जाहिर है पढ़ेंगी नहीं तो औरतें डॉक्टर नहीं बनेगीं और पुरुष उन्हें छू भी नहीं पाएगा। हजारों औरतें सर्जरी के अभाव में या बच्चा पैदा होने के दौरान मर रही हैं। इन सबके बावजूद पाकिस्तान सरकार ने इस जून माह में वहां प्रचलन में रहे ‘रिवायती कानून’ यानी आतंकी मुल्लाओं के फैसले की प्रक्रिया को मान्यता दे दी और देश का सुप्रीम कोर्ट भी कट्टरपंथी मुल्लाओं की संस्था ‘जिरगा’ के फैसले को नहीं बदल सकता।
कुलभूषण दहशत में था लिहाजा परिवार से उतनी ही बात की जितनी उसे सिखाई गई थी। उसके अंदर यह खौफ पैदा किया गया था कि अगर कुछ और बोले तो फिर वही हश्र होगा जो अब तक होता आया है।

फिर उपाय क्या है?
हमारे पास इस ‘बर्बाद और बर्बर पड़ोसी को लगाम लगाने के उपाय’ हैं। एक ढह रहे समाज को हम या पूरी दुनिया सभ्य तो नहीं बना सकती जब तक यह इच्छा उनके भीतर से न उपजे। इसके लिए हुक्मरान और कट्टरपंथी संगठनों के गठजोड़ को तोड़ना होगा। भारत में वह कूवत है कि इस भ्रष्ट समाज को अंदर से तोड़ सके पैसे दे कर। हथियार देकर ताकि ये आपस में ही लड़ कर एक बार पूरी तरह खत्म हो जाएँ। बलूचिस्तान, फाटा क्षेत्र और सिंध में अलगाववादी तत्वों को मजबूत किया जा सकता है और दूसरी ओर आतंकी संगठनों को भी अपास में लड़ाया जा सकता है क्योंकि उन्हें पैसा चाहिए। उनका दरअसल मजहब ही पैसा है। विश्व के तमाम देश यह मान गए हैं कि पाकिस्तान चूंकि परमाणु शस्त्र से लैस हो चुका है इसलिए पूरे विश्व के लिए बने इस खतरे को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए अगर कुछ अनैतिक तरीके भी अपनाने पड़ें तो वह जायज माना जाएगा। लिहाजा आज भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की शांति के लिए यह जरूरी हो गया है कि इस आदिम सभ्यता वाले मुल्क को प्रथम चरण में भीतर से तोड़ कर कई टुकड़ों में बांटा जाए और फिर वहां आतंक की दहशत में जी रहे लोगों को असली प्रजातंत्र की ओर उन्मुख किया जाए। भारत अगर यह पहल अघोषित रूप से करता है तो विश्व समुदाय भी उसके साथ खड़ा दिखाई देगा। फिर न तो किसी कुलभूषण को यातना झेलनी होगी न ही कोई कश्मीरी आतंकी गुट पड़ोसी की सरपरस्ती से सर उठा पाएगा।