आशुतोष पाठक (कार्यकारी संपादक/ ओपिनियन पोस्ट)। बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा के करीबी कविराज रामलखन सिंह के इंजीनियर बेटे को इंजीनियरिंग कभी रास नहीं आई। घरवाले जिसे मुन्ना कहकर पुकारते थे आगे चलकर नीतीश बने और फिर नीतीश कुमार। एनडीए से रिश्ता तोड़ने और लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद 17 मई 2014 को नीतीश कुमार ने जब मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया तो राजनीतिक हलकों में उनके भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगानेवालों की होड़ लग गई।

अवसर साधने के अचूक खिलाड़ी

नीतीश देश के कुछ ऐसे सफल राजनीतिक खिलाड़ियों  में शामिल हैं जो अपनी अवसरवादिता को भी सैद्धांतिक जामा पहनाकर अपनी छवि को सौम्य व शालीन बनाए हुए हैं। प्रथम दृष्टया उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह सर्वथा विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों भाजपा, कांग्रेस और आरजेडी के साथ अपनी सुविधानुसार समय समय पर मेलजोल कर सकते हैं। लेकिन वह ऐसा करते रहे हैं। बावजूद इसके मौसम विज्ञानी का तमगा किसी और नेता को मिल जाता है। इसे नीतीश की जोखिम लेने की शक्ति या हवा के विपरीत खड़े होने का साहस  ही कहेंगे कि सारे आंकड़े विरुद्ध होने के बाबजूद उनकी नजर अब 7 रेसकोर्स पर टिक गई है।

अब क्या है रणनीति

नीतीश को  मालूम है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए राष्ट्रीय कद होना जरूरी है। फिर उनकी पार्टी एक क्षेत्रीय पार्टी है। देशभर में संगठन बनाना असंभव सा काम है। तो आखिर वह ऐसा क्या करें जिससे उनकी राष्ट्रीय फैन फॉलोइंग हो जाए और फिर अपनी पार्टी का संगठन हो न हो उनकी विचारधारा से मेल खाती पार्टियां उनके पीछे खड़ी हो जाएं। इसके लिए वह दो मोर्चों पर एक साथ काम करने की योजना बना रहे हैं। एक- अपने को बतौर समाज सुधारक पेश करना और दूसरा- चुनावी विजय के लिए राजनीतिक एजेंडा तय करना। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में कहते हैं- नीतीशजी गांधीजी के रास्ते पर चलकर समाज में शोषण और गैर बराबरी के खिलाफ बिगुल फूंक चुके हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बिहार में पूर्ण शराबबंदी है। नीतीशजी शराबबंदी को देशभर में जनांदोलन बनाना चाहते हैं। बिहार में इस मुद्दे पर नीतीशजी को भारी जनसमर्थन मिल रहा है। त्यागी कहते हैं- 2019 से पहले  हमारी नजर 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव पर है। बिहार और उत्तर प्रदेश से 120 एमपी चुनकर जाते हैं जिसमें से भाजपा के पास अभी 104 एमपी हैं। हमारी चुनौती 2017 में भाजपा को आगे बढ़ने से रोकना है। अब नीतीशजी हमारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। हम शराबबंदी के सहारे समाज के सबसे वंचित और शोषित तबके खासकर महिलाओं को गोलबंद करने की कोशिश करेंगे जिनकी आबादी पचास प्रतिशत है। हमें पूरा यकीन है कि इस मुद्दे पर बिहार की तरह यूपी में भी समर्थन मिलेगा। मतलब साफ है नशा के खिलाफ नीतीश जनअभियान चलाकर  देश भर में अपनी पहचान एक समाज सुधारक राजनेता की बनाना चाहते हैं। त्यागी कहते हैं कि इस जनअभियान से जो राजनीतिक धारा  निकलेगी उसमें बड़े बड़े सूरमा चित्त हो जाएंगे। इसके लिए हमारे समाजसेवी उत्तर प्रदेश और देश के अन्य राज्यों में मोर्चा संभाल रहे हैं। उन्हें जहां भी नीतीशजी की आवश्यकता पड़ेगी वह मौजूद होंगे।

शराबबंदी पर समर्थन भी विरोध भी

नीतीश के नशा विरोधी अभियान पर बड़े ही दिलचस्प बयान आ रहे हैं। कहीं तो विरोधी भी समर्थन कर रहे हैं और कहीं सहयोगी भी विरोध। विरोधी पार्टी भाजपा के नेता संजय पासवान कहते हैं, ‘पिछले दिनों बिहार के चार जिलों दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर और वैशाली का दौरा करके लौटा हूं। गांवों में शराबबंदी का बेहद अच्छा  प्रभाव पड़ रहा है। अब एक्सीडेंट की घटनाएं कम हो गई  हैं। लोग आपस में प्यार से मिल रहे हैं। गाली गलौज कम हो गया है। झाल मजीरा के साथ लोगों ने अब कीर्तन शुरू कर दिए हैं। मैं पार्टी लाइन से ऊपर उठकर नीतीशजी की इस मामले में तारीफ करना चाहूंगा।’

लेकिन इन्हीं की पार्टी के और नीतीश की पिछली सरकार में मंत्री रहे प्रेम कुमार कहते हैं कि शराबबंदी तो भाजपा का प्रस्ताव था। हम लोग तो इस पर लगातार दबाव बना रहे थे। इसे पूरे सदन का समर्थन मिला। इसका श्रेय अब नीतीशजी अकेले लेना चाहते हैं। नीतीशजी इस पर अब राजनीति करना चाहते हैं।

सहयोगी के बदले सुर

नीतीश सरकार में शिक्षा मंत्री और कांग्रेस नेता अशोक चौधरी कहते हैं कि शराबबंदी का निर्णय महागठबंधन की सरकार का है। इसलिए सारा श्रेय महागठबंधन की सरकार को जाता है। इसमें किसी एक व्यक्ति की भूमिका नहीं है। चुनाव के पहले से हमारा गठबंधन है। शराबबंदी  एक चनावी मुद्दा था जिसे हमारी सरकार ने पूरा किया। जाहिर है नीतीशजी हमारे मुख्यमंत्री हैं इसलिए घोषणा वही करेंगे लेकिन यह मंत्रालय तो कांग्रेस के पास है। इसलिए बिना कांग्रेस की सहमति के यह फैसला नामुमकिन था। कांग्रेस इसका श्रेय नहीं लेना चाहती। यह किसी एक पार्टी का नहीं बल्कि गठबंधन की सभी  पार्टियों का निर्णय है। ओपिनियन पोस्ट ने जब उनसे पूछा कि नीतीश इस मुद्दे को देशभर में जनांदोलन बनाना चाहते हैं  और इसके सहारे उनकी नजर प्रधानमंत्री पद पर है तो उनका कहना था- नहीं उनके इस अभियान से कांग्रेस को अतिरिक्त लाभ होगा क्योकि कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी है। नीतीशजी की पार्टी तो सिर्फ बिहार की पार्टी है। देशभर में जिस पार्टी को अधिक सीटें मिलेंगी उसका प्रधानमंत्री होगा और अगर नीतीशजी की पार्टी को कांग्रेस से ज्यादा  सीटें आती हैं तो हम नीतीशजी का समर्थन करेंगे और अगर हमें ज्यादा सीटें मिलीं तो नीतीशजी हमें समर्थन करेंगे। इसका सिम्पल कैलकुलेशन है।

कांग्रेस के सहयोगी संगठन इंटक बिहार के अध्यक्ष चन्द्र प्रकाश सिंह कहते हैं कि जदयू के साथ कांग्रेस का सिर्फ बिहार में गठबंधन है। आगे क्या परिस्थिति बनती है इसका अभी से कयास लगाना मुश्किल है। मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि कांग्रेस हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठी है। शराबबंदी से ज्यादा बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार है। रही बात प्रधानमंत्री की तो हमारे नेता राहुल गांधी हैं। हम किसी और के पीछे क्यों जाएं। हां नीतीशजी अगर प्रयास करते हैं तो उन्हें जरूर करना चाहिए, राजनीति में सबको स्वतंत्रता है शिखर पर पहुंचने की।

दूसरी ओर सरकार में सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी इसका श्रेय खुद लेना चाहती है। आरजेडी नेता और पूर्व शिक्षा मंत्री रामचंद्र पूर्वे शराब बंदी पर किसी और पार्टी का नाम लेने से भी बचते हैं। बातचीत में वह कहने लगे- आरजेडी का चुनाव में नारा था शराब नहीं किताब चाहिए, मधुशाला नहीं पाठशाला चाहिए। ये काम तो हमारे नेता लालूजी ने किया है। इसका श्रेय तो सिर्फ आरजेडी को है। जब उनसे पूछा कि आपकी सरकार तो पंद्रह साल तक बिहार में रही आपने क्यों शराब परोसा तो उनके पास कोई ठोस जवाब नहीं था। जब हमने पूछा की दस साल नीतीश भी शराब परोसते रहे तो आपने क्यों नहीं विरोध किया तो गलती मानने की बजाय उन्होंने कहा, हम लोगों को सपना दिखाया गया कि शराब से राजकोष में पैसा आता है लेकिन यह गलत साबित हुआ। अपने अंदाज में कहने लगे- ‘हो भैया जेतना शराब से पैसा ना आई ओतना तो समाज बिगड़ गेलो हकडा रोक हो भैय्या।’ बिहार के बाहर महगठबंधन के मुद्दे पर सवाल पूछने पर वह बातचीत करने से बचते रहे। उनकी बातचीत से साफ लग रहा था कि राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर आरजेडी और जेडीयू के बीच तनातनी का दौर जारी है।

राह आसान नहीं इसलिए नई  सोच नई रणनीति

शराबबंदी जैसे मुद्दे पर अकेले नीतीश को श्रेय देने की हालत में कोई पार्टी नहीं है। अध्यक्ष बनने के एक दिन पहले ही नीतीश ने प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की मांग करके इस मुद्दे को भी हाईजैक करने की कोशिश की लेकिन आरक्षण के दावेदार एक नहीं लगभग सभी पार्टियां हैं। अब सवाल उठता है कि मुन्ना जो नीतीश कुमार बना, जो अभी तक हारी हुई बाजी को जीत में बदलने में कामयाब रहे हैं, क्या वह इन दो मुद्दों के सहारे पूरी राजनीति को अपने इर्द गिर्द घुमाने में सफल रहेंगे।

नीतीश सरकार के कुछ विश्वस्त अधिकारी और रणनीतिकार मानते हैं कि अगर नीतीश को केंद्र की राजनीति करनी है तो उन्हें बिहार से बाहर निकलना ही होगा। नीतीश तीसरी बार लगातार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। भाजपा, कांग्रेस के बाहर के  नेताओं में खासतौर से हिंदी पट्टी में समाज के लगभग हर वर्ग में उनकी एक अच्छी पहचान है। समय का चक्र तेजी से बदल रहा है। अब मुद्दे और पर्सनैलिटी ज्यादा महत्वपूर्ण हो रहे हैं। संगठन तो अब हायर किए जा सकते हैं। चुनाव प्रबंधन के लिए पार्टियां अब अपने संगठनों पर भरोसा नहीं करतीं। पार्टी के अंदर हितों को लेकर भारी अंतर्विरोध होते हैं जिनसे अंतत: पार्टी को ही नुकसान  होता है इसलिए अब प्रशांत किशोर जैसों की चांदी है।

ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में नाम नहीं छापने की शर्त पर नीतीश के एक करीबी आला अधिकारी कहते हैं कि शराबबंदी एक बड़ा मुद्दा बन सकता है क्योकि  महिलाएं इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। बिहार में जिस तरह से महिलाओं ने इस मुद्दे पर समर्थन किया है उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि देश भर में महिलाएं इस मुद्दे पर एक जुट हो सकती हैं। लेकिन वे सभी वोट बैंक के रूप में परिवर्तित होती हैं या नहीं इसका आकलन बेहद जरूरी है। केरल में शराबबंदी को लेकर राजनीति गर्म है। यह एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन चुका है केरल में।

वह कहते हैं कि भ्रष्टाचार और आरक्षण जैसे मुद्दे अब पुराने पड़ चुके हैं। हमें कुछ ऐसे मुद्दे उठाने पड़ेंगे जो नए हों। शराब बंदी भी वैसे पुराना मुद्दा है लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से बिलकुल अलग है। इसमें आज भी एक नयापन है। मुझे मालूम है कि देशभर में इसका भी विरोध किया जाएगा लेकिन जितना इसका विरोध होगा नीतीशजी को उतना ही अधिक इसका लाभ मिलेगा।

गठबंधन के नए साथी

नीतीश के रणनीतिकार मानते हैं कि अगर मुद्दों के सहारे नीतीश देश में आकर्षण पैदा कर सके तो बिहार के बाहर जेडीयू अपना गठबंधन का आधार बढ़ा सकती है। उत्तर प्रदेश इसकी पहली प्रयोगशाला बनेगा। वैसे यह कहलाएगा तो महागठबंधन ही लेकिन नीतीश इसके सूत्रधार बन सकते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में भाजपा को छोड़ कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी की हालत ठीक नहीं है। अगर महागठबंधन बिना गलती किए अपना रंग दिखाने लगा तो ओबीसी और दलित पॉलिटिक्स की एक संयुक्त धारा बह सकती है क्योकि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के झंडाबरदार मुख्य रूप से महागठबंधन के ही लोग हैं। उधर राजनीतिक पंडित मानते हैं कि उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीतिक जमीन की उर्वरता बिल्कुल अलग है।

सबसे बड़ा सवाल

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और महासचिव दिग्विजय सिंह ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में कहते हैं कि यह सही है कि परंपरागत राजनीति से अब काम नहीं चलेगा। राजनीतिक जमीन काफी बदल रही है। मुद्दे और व्यक्तित्व निश्चित रूप से अहम हो गए हैं। लेकिन भारत के संघीय चरित्र  में राज्यों  के अंदर होने वाले चुनाव में अलग चेहरे तलाशने पड़ते हैं। देश का प्रधानमंत्री तो मुख्यमंत्री नहीं बन सकता। और ऐसा लगभग नामुमकिन है  कि 29 राज्यों में आपका कोई मुख्यमंत्री न हो और केंद्र में आप प्रधानमंत्री बन जाएं। अतीत के एक दो उदाहरण नियम नहीं हो सकते। इसलिए नीतीशजी अगर उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन चाहते हैं तो मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा यह भी तय करना पड़ेगा। जाहिर है वहां कांग्रेस का बड़ा संगठन है। हम आरएसएस और भाजपा को रोकने के लिए साथ लड़ना भी चाहेंगे। नीतीशजी हमारी विचारधारा से सहमत होकर ही हमारे साथ हैं। हम एक राष्ट्रीय पार्टी हैं इसलिए गठबंधन में इन सब बातों का ध्यान रखना पड़ेगा। रही बात नशा के खिलाफ अभियान चलाने की तो इस मुद्दे पर मैं समझता हूं कि सभी पार्टियों की लगभग एक राय होगी अगर वह इसे जनांदोलन बनाना चाहते हैं तो हमारी भी शुभकामना उनके साथ है। राजनीति में जनांदोलन चलाने का नशा तो होना ही चाहिए। बिना किसी जनसमर्थन के शिखर पर पहुंचना मुश्किल है।