विजय माथुर

एससी/एसटी एक्ट में बदलाव से भड़के आक्रोश को भारत बंद की लपटों के बीच खौफजदा लोगों ने कैसे भुगता होगा? इसे बयां करने में पीड़ितों का हर लफ्ज दहशत से लरजता नजर आता है। दिल दहलाने वाली ये कहानियां राजस्थान समेत देश के दस सूबों में दोहराई गर्इं। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि आंदोलनकारी हिंसक हो गए थे और एक के बाद एक आगजनी और हथियारों की चपेट में आने वाले लोगों की चीखें सड़कों पर गूंज रही थीं। तोड़-फोड़ और आगजनी में राजस्थान में सौ से ज्यादा लोग घायल हो गए, एक आदमी गोली खाकर मर गया और करोड़ों की संपत्ति आग में झोंक दी गई। अलवर में कहर बरपाने वाला नजारा था। भारत बंद ऐसा लगा मानो मानवता कहीं खो गई। दुकानें तोड़ी जा रही थीं, बच्चे हों या बड़े सब पर बल प्रयोग हो रहा था। जगह-जगह आगजनी, गोलियों की सनसनाती आवाजें और चीखों ने ऐसा मंजर बना दिया था मानो सड़कें किसी युद्ध का मैदान हों। दिल्ली-अजमेर शताब्दी एक्सपे्रेस को करीब आठ घंटे रोका गया। नतीजतन भूख-प्यास से बेहाल बच्चों और बुजुर्गों का विलाप बर्दाश्त से बाहर था। दंगाइयों को नजर नहीं आ रहा था। अगर कोई अफसर मौके पर तैनात भी था तो राजनीतिक नेतृत्व के आंखों के इशारे पढ़ता रहा। सूबे के 20 से ज्यादा शहर इन्हीं स्थितियों के हवाले थे।
प्रदेश की राजधानी जयपुर ने शहर की ख्याति पर कालिख पोतने वाली लूटपाट का वो तांडव देखा जिसने अगले दिन भी खलबली मचाए रखी। दंगाइयों ने कितनी गाड़ियां फूंकी, कितनी जगह जाम लगाया और पटरियां उखाड़ कर ट्रेन यातायात को जोखिम में डाला, इसकी गिनती भी मुश्किल है। पथराव और आगजनी से तो शायद ही कोई शहर बचा होगा। आश्चर्य यह है कि कई दिन पहले ही भारत बंद के आह्वान को देखते हुए आईबी की ओर से जारी अलर्ट को भी पुलिस और सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। इंटेलीजेंस रिपोर्ट के बावजूद चूक कैसे हो गई? केंद्र सरकार ने भारत बंद की वजह से सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला पहले ही कर लिया था और बंद के दौरान ही अदालत में याचिका दायर कर दी थी तो फिर बंद के हिंसक होने का औचित्य क्या था? फिर लोगों ने सड़कों पर उतर कर बवाल क्यों मचाया? खासकर उस माहौल में जब देश में दलित विरोधी घटनाओं का ग्राफ बढ़ रहा है। अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खिलाफत में देश का सुलग उठना खतरे की घंटी से कम नहीं माना जा सकता।
धरना-प्रदर्शन लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वाभाविक है लेकिन भारत बंद के दौरान हिंसा भड़कने के पीछे क्या कोई हताशा का भाव झनझना रहा था? इस मौके पर दो बातें ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती हैं। पहली, अनुसूचित जाति-जनजातियों पर अत्याचार रोकने के कानून को बदलावों की कड़ी के रूप में क्यों नहीं देखा जा रहा? दूसरी, सुप्रीम कोर्ट को एससी-एसटी कानून में बदलाव की जरूरत क्यों महसूस हुई? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि क्या यह खलिश उन्हें तमतमाए हुए थी कि सरकार के उत्थान के तमाम दावों की वास्तविक अनुभूति उन्हें क्यों नहीं हो पा रही? उनके हालात आज भी जस के तस हैं। इससे दीगर यह है कि सरकारी योजनाओं के लाभ का सुहाना झोंका उन्हें क्यों महसूस नहीं हो रहा? सभी राजनीतिक पार्टियां जिस तरह भारत बंद में कंधे से कंधा मिला कर खड़ी नजर आर्इं, इस बात की तस्दीक करने को काफी है कि देश में 17 फीसदी दलित वोट और डेढ़ सौ से अधिक लोकसभा सीटों पर दबदबे ने उन्हें जज्बाती सियासत में बंधक बना दिया था?
राजस्थान में सत्ता में चाहे कांग्रेस रही हो या भाजपा, सत्ता की राह तो दलित ही तय करते आए हैं। सूबे में आधी सीटों पर अनुसूचित जाति-जनजाति का दबदबा है। यही वजह है कि सामाजिक रूप से बेशक एससी-एसटी के साथ भेदभाव होता हो लेकिन हर पार्टी उन्हें गले लगाना चाहती है। दलित आंदोलन को हवा देने में भाजपा और कांग्रेस से लेकर तमाम राजनीतिक दलों के पीछे वोट बैंक की कहानियां हैं। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रदेश में 17.80 फीसदी आबादी अनुसूचित जाति और 13.50 फीसदी आबादी अनुसूचित जनजाति की है। एससी-एसटी की सुरक्षित सीटों में यदि इस वर्ग की बहुलता वाली सीटों को भी जोड़ें तो विधानसभा की करीब सौ सीटें ऐसी हैं जहां एससी-एसटी वोट सियासी समीकरणों में उलटफेर की क्षमता रखते हैं। मौजूदा विधानसभा में एससी-एसटी की 59 सुरक्षित सीटों में से 50 सीटों पर तो भाजपा का ही कब्जा है।
दलित आंदोलन को लेकर कांग्रेस सत्ता के खिलाफ बोलकर विपक्ष की भूमिका निभा रही थी तो भाजपा के मंत्री और विधायक खुला समर्थन देकर आंदोलन को हवा दे रहे थे। विश्लेषकों का कहना है कि अगर हर नेता सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति जता कर इस पर पुनर्विचार की मांग कर रहा है तो इसकी सीधी वजह है इस वर्ग का बड़ा वोट बैंक। आने वाले चुनावों में हर दल इसे अपनी फसल मान कर चल रहा है। बंद के दौरान अगर करोली जिले के हिंडोन सिटी में प्रदर्शन उग्र हुआ और भीड़ ने अगले दिन भाजपा विधायक राजकुमारी जाटव और पूर्व कांग्रेसी मंत्री भरोसी लाल जाटव के घरों में आग लगाई तो उसकी वजह भी सियासी ही रही। देश में दलित वोट 17 फीसदी है और 150 से अधिक लोकसभा सीटों पर दलितों का दबदबा है। इसलिए सभी पार्टियां आंदोलन के साथ बदस्तूर खड़ी नजर आर्इं। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस आंदोलन में हिंसा का असर आगामी कर्नाटक चुनाव में पड़ सकता है जहां 18 फीसदी दलित हैं जिनका 60 सीटों पर असर है। इसके अलावा सबसे ज्यादा हिंसा होने के कारण राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव भी प्रभावित हो सकते हैंैं। कम से कम राजस्थान तो इस असर से बचा नहीं रह सकता।