बिष्ट ने कहा, ‘मैं सौ फीसदी आश्वस्त हूं कि सरस्वती नदी कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि इतिहास का सच है। सरस्वती के वजूद को छिपा कर दरअसल वेदों के वजूद को नकारने की चाल चली जा रही है।’ हंसते हुए वह कहते हैं, ‘एक पूरा तबका ही न जाने क्यों हिंदू संस्कृति सभ्यता को नकारने में लगा है। मगर उन्हीं से पूछिए कि गंगा को मानते हैं, सतलुज को भी मानते हैं, रावी को मानते हैं, व्यास को मानते हैं, यमुना को भी मानते हैं फिर सरस्वती से इतनी नाराजगी या यों कहें कि उसके वजूद से इनकार क्यों है?’

ओपिनियन पोस्ट ने उनसे पूछा कि सीताराम येचुरी की अध्यक्षता में कांग्रेस के शासनकाल में बाकायदा एक कमेटी बनी थी यह जानने के लिए कि क्या वाकई में कोई सरस्वती नदी थी? और इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘इट्स मिथ’ यानी यह एक काल्पनिक कथा के सिवा कुछ भी नहीं है। बिष्ट कहते हैं कि कम्युनिस्ट तो शुरू से ही हिंदू सभ्यता को खत्म करने के पक्षधर हैं। फिर सीताराम येचुरी जब इस रिपोर्ट के जरिए हिंदू सभ्यता का एक बड़ा प्रमाण खत्म करने की कोशिश करते हैं तो इसमें चौंकने की कोई बात नहीं। वह बताते हैं कि द्रषदवती नदी सरस्वती की ही एक सहयोगी नदी थी जिसके प्रमाण मिलने की बात कही जाती है।

राखीगढ़ी में खुदाई के तरीके से असहमत

आरएस बिष्ट राखीगढ़ी को हड़प्पा सभ्यता की खोज में अहम मानते हैं। लेकिन इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं कि वह सबसे बड़ी साइट है। राखीगढ़ी में चल रही खुदाई के तरीके से वह पूरी तरह से सहमत नजर नहीं आते। खुदाई का सही तरीका होता है कि उत्खनन स्थल का पूरा हिस्सा खुदाई की जद में आए। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि सबकुछ खोद डाला जाए बल्कि स्ट्रैटजी इस तरह से बने कि हर हिस्सा एक्सपोज हो। राखीगढ़ी में सात माउंट या टीले हैं। मैंने अपने अनुभव के आधार पर एक खाका खींचा था। जिसके अनुसार सबसे बड़ा टीला है आर जी-3 यानी तीन नंबर का टीला जिस पर गांव बसा है। इसके ऊपर बने दो टीले आर जी-1 और आर जी-2 हैं। इसे देखकर लगता है कि इन दोनों टीलों पर राज-काज होता रहा होगा। यानी राजशाही परिवार वहीं रहता होगा। तीन नंबर पर आबादी यानी जनता होगी। चार नंबर टीला व्यापारिक सक्रियता का केंद्र होगा। बिना-3 नंबर टीला खोदे कैसे पूरी जानकारी मिलेगी? मैंने हुड्डा सरकार को प्रपोजल दिया था कि इस गांव को रिलोकेट यानी आबादी को हमें दूसरी जगह पलायन कर बसाने की जरूरत है। इतिहास को जानने के लिए यह कोई बड़ी कीमत तो नहीं। लेकिन उन्होंने कहा कि ‘नहीं-नहीं। ऐसा कैसे कर सकते हैं?’ खुदाई के लिए मौजूद एक बड़े हिस्से को बिना खोदे आप कैसे सटीक नतीजे निकाल सकते हैं?

जब उनसे पूछा गया कि डेक्कन यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के नेतृत्व में यह खुदाई हो रही है। क्या एएसआई के विभाग के लोग नहीं थे जो इसका नेतृत्व करते। आखिर क्या जरूरत थी एएसआई के बाहर के लोगों से राखीगढ़ी के प्रोजेक्ट पर काम कराने की? क्या आर्कियोलॉजिकल सर्वे आॅफ इंडिया के पास अपने लोग नहीं हैं जो इस प्रोजेक्ट पर काम कर पाते? इन सवालों का उन्होंने केवल इतना ही जवाब दिया कि आप विभाग से पूछिए। लेकिन इस बातचीत से एक बात तो साफ नजर आई कि एएसआई में अनुभवी लोगों को लगातार दरकिनार किया जा रहा है।

राखीगढ़ी पर काम करने से पहले आपसे कोई सलाह ली गई, इतना कहना भर था कि आरएस बिष्ट एकदम गुस्से में आ गए। राखीगढ़ी के बारे में तो छोड़िए अब तो धोलावीरा के बारे में भी मुझसे कोई राय नहीं ली जाती। धोलावीरा की खुदाई का पूरा श्रेय बिष्ट को ही जाता है। एएसआई रिटायर्ड लोगों को तो पूरी तरह दरकिनार कर चुका है साथ ही वहां पर काम रहे अधिकारियों को लगातार डीमोरलाइज कर रहा है। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि अभी तो डेक्कन यूनिवर्सिटी के लोगों को लाए हैं, कुछ दिनों बाद विदेशी आकर भारत का इतिहास खोजेंगे। धीरे-धीरे पाकिस्तान की तरह यहां का भी हाल होगा। वहां आज कोई आर्कियोलॉजिस्ट ही नहीं बचा है।