प्रियदर्शी रंजन

जनता दल यूनाइटेड की 8 जून को दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में पार्टी नेताओं के साथ देशभर की मीडिया के प्रतिनिधि इस उम्मीद में जुटे थे कि बिहार एनडीए में चल रही खींचतान पर पार्टी सुप्रीमो और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुछ स्पष्ट फैसला करेंगे। मगर उम्मीद के उलट नीतीश ने अपने पुराने अंदाज में इस मामले के रहस्य को और गहरा कर दिया। एक ओर राष्ट्रीय कार्यकारणी में वे और उनके सिपहसालार इस बात पर जोर देते रहे कि वे एनडीए के साथ हैं और रहेंगे, वहीं दूसरी ओर जदयू जिस फॉर्मूले के तहत एनडीए में रहने का का दावा कर रही है उससे राजनीतिक जानकारों के साथ-साथ पार्टी कार्यकर्ताओं को भी संदेह है कि एनडीए में जदयू ज्यादा दिन गुजारने वाली है। नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अपने संबोधन में साफ कर दिया कि वे मनमुताबिक मांगी गई सीटों के साथ कोई समझौता नहीं करने वाले। बकौल नीतीश, ‘हमें उनका आॅफर पसंद आया तो ठीक वरना वे अलग चुनाव लडेंÞ हम अलग लड़ लेंगे। हमें कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। हमें जो नजरअंदाज करेगा राजनीति उसे नजरअंदाज कर देगी।’

दरअसल, नीतीश का यह बयान पिछले कुछ समय से जदयू की ओर से भाजपा पर बनाए जा रहे दबाव पर मुहर के समान है। पिछले कुछ समय से ये चर्चा जोर पकड़ चुकी है कि यू टर्न राजनीति के उस्ताद नीतीश कुमार अंतरआत्मा की आवाज पर फिर से पलटी मारने वाले हैं। अब नीतीश कुमार का एनडीए को खुली चेतावनी इस तस्वीर को साफ कर चुकी है कि पिछले कुछ महीनों में नोटबंदी, असम की नागरिकता और जीएसटी जैसे मसलों पर बदले-बदले नजर आने वाले बिहार के निजाम के मन में एनडीए के प्रति खोट है। भले ही जदयू की ओर से यह दावा किया जा रहा है कि वह एनडीए के साथ है मगर एनडीए में रहने के लिए उसकी ओर से रोज एक नई शर्त यह जता रही है कि कोई बड़ी वजह है जिसके तहत जदयू शर्त का दांव आजमा रही है। राजनीतिक जानकारों का बड़ा वर्ग यह मान रहा है कि जदयू की ओर से भाजपा पर शर्त का दांव असल में दिखावा है जबकि भीतरखाने भाजपा ने जदयू पर दबाव बना रखा है। जदयू विधायकों की संख्या बल के आधार पर भले ही बड़ी पार्टी हो मगर लोकसभा में उसकी हैसियत महज दो सांसदों की है। विधानसभा में बड़ी पार्टी होने के आधार पर अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के बराबर प्रदेश में उम्मीदवार खड़ा करने की इच्छा जदयू जाहिर कर चुकी है।

जदयू के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में उम्मीद के मुताबिक सीटें न मिलने पर जदयू ने पहले ही पाला बदलने का मन बना लिया है। नीतीश की इच्छा है कि उनकी शर्तों के बोझ तले भाजपा ही उन्हें एनडीए से बाहर का रास्ता दिखा दे ताकि चुनावी दंगल में वे शहीद की छवि लेकर सहानभूति बटोर सकें और उन्हें पलटू राम भी न कहा जाए। जदयू का कहना है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे सम्मानित संख्या में सीटें चाहिए। सम्मानित सीटों से उसका मतलब बिहार में उसे भाजपा के बराबर सीटें चाहिए। इसके अलावा पार्टी प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बजाय नीतीश कुमार के चेहरे पर चुनाव लड़ना चाहती है। सूत्रों की मानें तो भाजपा ने नीतीश कुमार को यह संदेश भिजवा दिया है कि जम्मू-कश्मीर में जो पीडीपी के साथ हुआ है उसे बिहार में दोहराया जा सकता है। सूत्र बताते हैं कि नीतीश लोकसभा चुनाव में कम से कम 15 सीटें चाहतें है लेकिन उनकी इस मांग को पूरी कर पाना भाजपा के लिए मुश्किल है। बिहार की 40 लोकसभा सीटों में अभी 31 पर एनडीए (भाजपा-22, लोजपा-6, रालोसपा-3) का कब्जा है। ऐसे में नौ सीटें ही जदयू के लिए बचती हैं। कोई भी पार्टी अपनी जीती हुई सीटें जदयू को देने को राजी होगी, इसमें संदेह है। भाजपा के राजनीतिक पर्यवेक्षकों का तर्क है कि यदि राज्य में पार्टी 25 सीटों पर चुनाव लड़ती है तो सरकार विरोधी लहरों के बावजूद 12-15 सीटें फतह कर लेगी। यदि पार्टी 31 सीटों पर लड़ती है तो 14-16 सीटें उसके खाते में आ सकती हैं।

जदयू के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी का कहना है, ‘हम ज्यादा या बराबर सीटों पर चुनाव लड़ेंगे ये शीर्ष स्तर के नेताओं के बीच बातचीत के बाद तय होगा। हम सिर्फ भाजपा को एनडीए में रहते हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व में लडेÞ गए वर्ष 2009 के लोकसभा और वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव की याद दिलाना चाहते हैं। मुझे उम्मीद है कि भाजपा प्रमुख अमित शाह और जदयू प्रमुख नीतीश कुमार जब साथ बैठकर गंभीर मुद्दों पर चर्चा करेंगे तो समाधान जरूर निकलेगा।’ वहीं जदयू के एक नेता ने कहा कि जदयू को सीटों पर बात करने के मसले पर अंतिम क्षणों का इंतजार नहीं करना चाहिए। ज्यादा देर करने पर पार्टी को उसी स्थिति में जाना पड़ेगा जब या तो भाजपा की दी हुई सीटें स्वीकार करनी होंगी या फिर 40 लोकसभा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ना होगा। ये जदयू को उसी राजनीतिक हत्या की ओर धकेल देगा जो उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में झेला था। साल 2014 के चुनाव में जदयू 20 सांसदों से दो पर आ गई थी।

एनडीए में नीतीश की मनमानी मांगों के बीच अहम सवाल है कि भाजपा से अलग होने के बाद जदयू के पास विकल्प क्या है? राजनीतिक जानकार प्रो. प्रभाकर कुमार के मुताबिक, ‘बिहार के मुख्यमंत्री के पास तीन विकल्प हैं। पहला यह कि वह ठीक-ठाक सीटें पाने का दबाव बनाकर एनडीए के साथ 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ें। दूसरा विकल्प एनडीए से अलग होकर यूपीए या महागठबंधन में प्रवेश पाने का प्रयास करें। तीसरा विकल्प यह है कि बिहार के कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर नया गठबंधन बनाएं और जोर आजमाइश करें। लेकिन तीनों ही विकल्पों में आगे कुआं, पीछे खाई जैसी स्थिति है।’ उधर महागठबंधन में नीतीश की वापसी को लेकर रार ठन चुकी है। कांग्रेस का एक खेमा नीतीश की वापसी के लिए तैयार है मगर राजद को इस पर सख्त एतराज है। तेजस्वी यादव ने नीतीश का महागठबंधन में नो एंट्री का बोर्ड लगा दिया है। तेजस्वी के इस रैवेये पर कांग्रेस विधायक शकील अहमद का मानना है, ‘गठबंधन में कौन आएगा, इसका फैसला राहुल गांधी करेंगे। अगर नीतीश कुमार भाजपा को छोड़कर महागठबंधन में वापस आना चाहते हैं तो उनका स्वागत है। भाजपा के खिलाफ हम सबों को एकजुट होना होगा। व्यक्तिगत बातों को छोड़कर व्यावहारिक तरीकों से सोचना होगा।’ कांग्रेस के विधान पार्षद प्रेमचंद मिश्रा का भी कहना है कि तेजस्वी यादव ज्यादा उतावलापन न दिखाएं। वे ऐसा बयान न दें कि महागठबंधन में किसी के लिए जगह नहीं है। वहीं तेजस्वी अब भी अपनी राय पर अड़े हुए हैं।

अंग्रेजी अखबार द हिंदू के स्थानीय संपादक अमरनाथ त्रिपाठी की मानें तो यह पहली बार है जब बिहार की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले और अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर राजनीति करने का दावा करने वाले नीतीश कुमार सियासी तौर पर फंस गए हैं। इस बार हालात नीतीश कुमार के साथ नहीं हैं। इस संकट को खड़ा करके मजबूती देने की चूक भी उन्हीं से हुई है। कांग्रेस अब तक के अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी राजद को बार-बार पाला बदलने वाले नीतीश कुमार के लिए नहीं खोना चाहेगी। ऐसे में उन्हें इन दो गठबंधनों से अलग किसी अन्य रास्ते पर अंतरआत्मा जगाने की जरूरत है।