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वरिष्ठ नौकरशाह परिमल ब्रह्मा अपनी किताब ‘ऑन द कोरिडोरस ऑफ पावर’ की भूमिका में लिखते हैं, ‘साउथ ब्लाक के गलियारों से गुजरते ही मैं सत्ता की शक्ति महसूस कर सकता हूं, सूंघ सकता हूं और देख भी सकता हूं. बलुआ-पत्थर से बने इस गलियारे से जब शीर्ष सैन्य अधिकारी, राजनयिक और नौकरशाह गुजरते हैं, तो वे इतने प्रभावशाली लगते हैं कि मैं सोचने लगता हूं कि माओ-से-तुंग ने गलत कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है.’

सिविल सेवा के नियमों के अनुसार, यदि कोई नौकरशाह सेवानिवृत्ति के बाद किसी निजी कंपनी में नौकरी करना चाहता है, तो उसे दो साल की निष्क्रिय समयावधि (कूलिंग पीरियड) से अनिवार्य रूप से गुजरना पड़ता है. यह प्रावधान इसलिए किया गया है, ताकि कोई नौकरशाह किसी ‘एहसान’ के बदले किसी निजी संस्थान में तत्काल नौकरी हासिल न कर सके. लेकिन यदि वह राजनीति में शामिल होना चाहे, तो सेवानिवृत्ति के फौरन बाद भी शामिल हो सकता है. जिस आधार पर निजी नौकरी के लिए दो साल की निष्क्रिय समयावधि का प्रावधान किया गया है, वह आधार राजनीति में शामिल होने पर कायम रहना चाहिए. ऐसी अनेक मिसालें हैं कि सेवानिवृत्ति के फौरन बाद नौकरशाह राजनीति में शामिल हुए और किसी राजनीतिक पद पर आसीन हो गए.

वरिष्ठ नौकरशाह परिमल ब्रह्मा अपनी किताब ‘ऑन द कोरिडोरस ऑफ पावर’ की भूमिका में लिखते हैं, ‘साउथ ब्लाक के गलियारों से गुजरते ही मैं सत्ता की शक्ति महसूस कर सकता हूं, सूंघ सकता हूं और देख भी सकता हूं. बलुआ-पत्थर से बने इस गलियारे से जब शीर्ष सैन्य अधिकारी, राजनयिक और नौकरशाह गुजरते हैं, तो वे इतने प्रभावशाली लगते हैं कि मैं सोचने लगता हूं कि माओ-से-तुंग ने गलत कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है.’ जिस सत्ता या पावर की बात परिमल ब्रह्मा कर रहे हैं, वह रिटायरमेंट के बाद जाती रहती है. इस सत्ता को बचाने या पुन: हासिल करने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि सियासत के जरिये यहां फिर से दाखिल हुआ जाए. वैसे तो लोकतंत्र में देश के हर नागरिक को चुनाव लडऩे और राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने का पूरा अधिकार है. नौकरशाहों को भी सियासत में शामिल होने का अधिकार है और उन्हें होना भी चाहिए. लेकिन यदि कोई ऐसा नौकरशाह, जिस पर उसके कार्यकाल में भ्रष्टाचार या पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का आरोप हो या उसके खिलाफ कोई जांच चल रही हो, सियासत में शामिल होता है, तो उस पर सवाल उठने लाजिमी हैं.

चुनाव नजदीक आते ही नौकरशाहों एवं उच्च अधिकारियों का राजनीति में उतरने का सिलसिला शुरू हो जाता है. उसमें कुछ सेवानिवृत्त होते हैं और कुछ राजनीति में शामिल होने के लिए सेवानिवृत्ति लेते हैं. खबर है कि एक ऐसे नौकरशाह, जो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल में उनके करीबी और राजदार माने जाते थे, अब सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में शामिल होने जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि राजद में उनके शामिल होने की औपचारिकता मात्र बाकी है. बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले जानते हैं कि 1990 के दशक में बिहार में कानून व्यवस्था की क्या स्थिति थी और चुनावों को किस तरह अधिकारियों एवं अपराधियों की मिलीभगत से प्रभावित किया जाता था. उक्त अधिकारी पर भी चुनाव में धांधली करके सत्ताधारी दल को मदद पहुंचाने का आरोप था. यही नहीं, जब वह दिल्ली आए, तो तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम के नजदीकी बन गए और एफएमसी (फॉरवर्ड मार्केट कमीशन) में उच्च ओहदे पर विराजमान रहे. उनके कार्यकाल में 5,600 करोड़ रुपये का एनएसईएल भुगतान घोटाला उजागर हुआ था. एनएसईएल की प्रोमोटर कंपनी 63 मून्स का आरोप है कि एफएमसी ने जान बूझकर एनएसईएल को कारोबार करने के लिए अयोग्य करार दे दिया था, जबकि ब्रोकर्स के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. वे पहले की भांति काम करते रहे, जबकि होना यह चाहिए था कि ईओडब्ल्यू की 2015 की रिपोर्ट के आधार पर ब्रोकर्स को भी कारोबार के लिए अयोग्य करार दे दिया जाना चाहिए था.

ब्रोकर्स पर कार्रवाई का सिलसिला बहुत बाद में शुरू हुआ. अभी हाल में सेबी ने एनएसईएल के दो ब्रोकर्स मोती लाल ओसवाल कमोडिटीज ब्रोकर प्राइवेट लिमिटेड (एमओसीबीपी) और इंडिया इंफोलाइन (आईआईएफएल) को अयोग्य करार दिया है. 63 मून्स ने तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम एवं दो आला अधिकारियों के खिलाफ 10 हजार करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति का मुकदमा दायर करने का फैसला लिया है. जाहिर है, राजनीति और नौकरशाही के गठजोड़ से उत्पन्न होने वाला यह कोई पहला मामला नहीं है. ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं. मिसाल के तौर पर 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस पी सथाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया था, तो कांग्रेस ने काफी सवाल उठाए थे. कांग्रेस का कहना था कि कार्यकाल समाप्त होने से ठीक पहले वह सुप्रीम कोर्ट की उस पीठ में शामिल थे, जिसने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में अमित शाह के खिलाफ दूसरी एफआईआर खारिज कर दी थी. हां, यह और बात है कि एक साल पहले दिसंबर में जस्टिस सथाशिवम उस पीठ की अध्यक्षता कर रहे थे, जिसने चारा घोटाला मामले में लालू यादव को जमानत दी थी. पहले भी न्यायाधीशों को राजनीतिक समितियों एवं आयोगों की अध्यक्षता जैसी नियुक्तियां मिलती रही हैं.

बहरहाल, ऐसे नौकरशाह, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों या उनके खिलाफ किसी तरह की जांच चल रही हो और वे किसी राजनीतिक दल में शामिल होते हैं, तो कान खड़े होना लाजिमी है. यह बहस आम है कि उच्च सरकारी पदों पर विराजमान रहे नौकरशाहों और न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद कोई सियासी पद संभालना चाहिए या नहीं. यह बहस इसलिए भी होती है, क्योंकि उच्च सरकारी पदों पर विराजमान अधिकारी निष्पक्ष तरीके से काम करने के लिए वचनबद्ध होते हैं. लेकिन, अब यह आम धारणा बन गई है कि ऐसे अधिकारी, जो अपने पोस्ट-रिटायरमेंट प्लान के अंतर्गत पक्षपात पूर्ण ढंग से काम करते हैं, उन्हें कार्यकाल के दौरान तरक्की मिलती है और रिटायरमेंट के बाद भी वे सत्ता से दूर नहीं रहते तथा ट्रांस-पोस्टिंग राज से भी बचे रहते हैं. जबकि ईमानदारी से काम करने वालों के साथ ऐसा नहीं होता. पोस्ट-रिटायरमेंट प्लान का एक तरीका यह भी होता है कि रिटायरमेंट से चार-पांच साल पहले ऐसा अधिकारी राजनीति में अपने लिए संभावनाएं तलाशने लगता है, जो किसी भी तरह ठीक नहीं है.