अभिषेक रंजन सिंह, नई दिल्ली।

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सियासी पार्टियां और नेताओं की तरफ से देश भर से अलग-अलग बयान आ रहे हैं। बसपा प्रमुख मायावती और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो ईवीएम पर ही सवाल खड़े कर दिए। उनकी दलील है कि देश में मतपत्रों के जरिए चुनाव हो, क्योंकि ईवीएम के जरिए निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है। हालांकि, ईवीएम के विरोध में मायावती सरीखे नेताओं ने कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया है। खैर, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली एतिहासिक जीत और गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद सियासी दलों की ओर से बयानबाजी का दौर शुरू है।

इस बीच राज्यसभा के पूर्व सांसद व वरिष्ठ नेता मोहम्मद अदीब ने एक सनसनीखेज बयान दिया है। ‘ओपिनियन पोस्ट’ से खास बातचीत में उन्होंने बताया कि कथित धर्म निरपेक्ष दलों ने अपने सियासी फायदे के लिए राजनीति में मुसलमानों का इस्तेमाल किया है। जबकि सच्चाई यह है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी मुसलमानों के हालात में कोई सुधार नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश के हालिया चुनावी नतीजों के बारे में उन्होंने कहा कि, भाजपा को मिली जीत मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति का नतीजा है। बसपा और सपा ने मुसलमानों को इस तरह टिकट बांटे, जिससे बहुसंख्यक हिंदुओं में गलत संदेश गया। उनके मुताबिक, चुनाव में मुसलमानों को टिकट देने से और उनके विधायक-सांसद बनने से मुसलमानों का भला नहीं हो सकता। मुजफ्फरनगर दंगे के समय उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी। सपा के कई विधायक और मुसलमान थे, लेकिन किसी ने भी पार्टी लाइन से हटकर अखिलेश सरकार की मुखालफत नहीं की। जबकि इसमें कोई शक नहीं कि मुजफ्फरनगर का दंगा समाजवादी पार्टी सरकार की एक बड़ी नाकामी थी। आज सूबे में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी है, तो इसके पीछे बसपा, सपा और कांग्रेस की गलत नीतियां बड़ी वजह है। आज हालात यह है कि सभी लोग मुसलमानों को गलत निगाह से देख रहे हैं। पूरी दुनिया में यही आलम है और भारत में भी कमोबेश यही स्थिति है। सेकुलर शब्द ने मुसलमानों को अधिक नुकसान पहुंचाया, इसलिए मुसलमानों को उनके हालात पर छोड़ दिया जाए। मोहम्मद अदीब ने बताया कि वह जल्द ही पूरे देश में घूमेंगे और मुसलामानों से अपील करेंगे कि वे अगले दस वर्षों तक देश की चुनावी राजनीति से दूर रहें। ऐसे में मुसलमानों की हैसियत महज बीस फीसद है। दस वर्षों के बाद हम देखेंगे कि सियासत से दूर रहने के बाद देश की सूरत कितनी बदली। उनके मुताबिक, लोगों को यह समझा पाना मुश्किल तो जरूर है, लेकिन मुसलमानों को इस पर विचार करना चाहिए। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि सिर्फ सियासत में नुमाइंदगी मिलने से मुसलमानों के हालात सुधर नहीं सकते।