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लोकसभा चुनाव 2019 राजनीति के नजरिये से काफी अहम है. इसके नतीजों से सिर्फ यह तय नहीं होगा कि अगले पांच सालों तक किस पार्टी की सरकार रहेगी. दरअसल, यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र की चाल, चरित्र और चेहरे को तय करने वाला है. यह फैसला होगा कि देश अगले कई दशकों तक किस रास्ते पर चलने वाला है? इस चुनाव में यह तय होगा कि धार्मिक उन्माद के बलबूते चुनाव जीते जाएंगे या फिर आम लोगों से जुड़े वास्तविक मुद्दों पर राजनीति होगी. भाजपा की सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के समय भी बनी थी, लेकिन उस दौरान भारतीय लोकतंत्र में कोई संरचनात्मक बदलाव नहीं हुए. सत्ताधारी पार्टी बदली थी, लेकिन शासन-प्रशासन का तरीका और राजनीतिक संवाद नहीं बदला था. नरेंद्र मोदी सरकार के पांच सालों में कई ऐसे बदलाव हुए हैं, जिनके दूरगामी परिणाम होने वाले हैं. सरकारी तंत्र में बदलाव के साथ-साथ राजनीतिक संस्कृति में काफी अंतर आ चुका है. भारत की राजनीति ‘आईडेंटिटी पॉलिटिक्स’ की चपेट में आ चुकी है. यही वजह है कि कोई खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण बता रहा है, तो कोई उसका गोत्र पूछ रहा है. कोई वोट के लिए मंदिरों के चक्कर लगा रहा है, तो कोई गंगा का पानी पीकर खुद को जमीनी नेता साबित करने में जुटा है. और, कुछ लोग हिंदुओं के स्वघोषित प्रतिनिधि बनकर राजनीति को विषाक्त करने में जुट गए हैं. कोई अपने राजनीतिक विरोधियों को देशद्रोही होने का सर्टिफिकेट जारी कर रहा है. कुछ तो ऐसे भी हैं,जिन्हें मंदिर-मस्जिद के अलावा कुछ नजर ही नहीं आता. वहीं कुछ ऐसे हैं, जिनका मकसद ही समाज में धार्मिक उन्माद फैलाना मालूम पड़ता है. इन सबके बीच हैरान करने वाली बात यह है कि इस चुनाव में सेकुलरिज्म का मुद्दा ही गायब हो चुका है. अब कोई नेता खुद को सेकुलर बताकर लोगों से वोट नहीं मांग रहा है. यानी राजनीतिक दल अब ‘सेकुलर पार्टियों’ की जमात में शामिल होने से परहेज कर रहे हैं. मतलब यह कि 2014 के चुनाव तक जो सबसे बड़ा वैचारिक मुद्दा था, वह आज निरर्थक हो गया है. इस चुनाव में राजनीतिक दलों ने सेकुलरिज्म को दफना दिया है.

2014 तक अल्पसंख्यकों का मुद्दा आम चुनाव का एक अहम पहलू होता था. सेकुलर पार्टियां मुसलमानों को लुभाने के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं करती थीं, उन्हें ‘कम्युनलिज्म’ के खतरे से आगाह किया जाता था. कभी-कभी हिंदुत्व के एजेंडे सामने रखकर डराया भी जाता था. मनमोहन सिंह ने तो 2009 के चुनाव से पहले यह बयान भी दिया था कि सरकारी संसाधनों पर सबसे पहला हक मुसलमानों का है. यह बात और है कि यूपीए सरकार ऐसे बयान देकर सिर्फ ढिंढोरा पीटती रही, चुनाव में वोट पाने के लिए. हकीकत यह है कि मुसलमान जज्बाती लोग होते हैं, वे धर्म की राह पर जीवन बिताने वाले लोग हैं, ईमान पर चलने वाले लोग हैं. इसलिए राजनीतिक दलों को लगता है कि उन्हें बरगलाया जा सकता है. कुछ राजनीतिक दलों ने चुनाव के दौरान जमकर उनका फायदा भी उठाया. हैरानी की बात यह है कि इन राजनीतिक दलों को मुस्लिम समुदाय के अंदर ही कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो अपने स्वार्थ की खातिर पूरे समुदाय के भविष्य का सौदा कर लेते हैं. 2019 के चुनाव चल रहे हैं, मतदान हो रहे हैं. लगभग सभी सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी गई है. इस चुनाव में दलितों, जनजातियों, पिछड़ों, मजदूरों एवं किसानों की समस्याओं पर तो चर्चा हो रही है, लेकिन मुसलमानों से जुड़े मुद्दे पूरी तरह से गायब हैं. सवाल यह है कि इस चुनाव में ‘सेकुलरिज्म’ और मुसलमानों के मुद्दे पर इतना सन्नाटा क्यों है?

आम तौर पर चुनाव से कुछ महीने पहले ही मुसलमानों से जुड़े मुद्दों को लेकर हलचल मचने लगती थी. अलीगढ़ विश्वविद्यालय का मामला हो, उर्दू को बचाने का मसला हो या फिर बाबरी मस्जिद विवाद हो, सेकुलर पार्टियों का ‘खेल’ शुरू हो जाता था. लेकिन, इस बार न तो कोई मदरसे में जा रहा है, न मजार पर माथा टेकने जा रहा है और न टोपी पहन कर मीडिया में तस्वीरें छपवा रहा है. 2014 के पहले राजनीति की दिशा और दशा अलग थी. मुसलमानों को लुभाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन किया था, जिसने मुसलमानों की बदहाली का पूरा ब्यौरा सरकार को सौंपा था. अपनी रिपोर्ट में कमेटी ने बताया कि मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी बदतर हो गई है. मनमोहन सरकार ने मुसलमानों की बदहाली दूर करने के लिए एक और कमेटी बैठा दी. इस कमेटी यानी रंगनाथ मिश्र आयोग ने अपनी रिपोर्ट में मुसलमानों को सरकारी नौकरी में आरक्षण देने की सलाह दे डाली. मुसलमानों को गरीबी और बदहाली से बाहर निकलने की दवा तो लिखी गई, लेकिन यूपीए सरकार ने अपनी फितरत के अनुसार इस रिपोर्ट को संसद में पेश ही नहीं किया. दो-तीन सालों तक रिपोर्ट सड़ती रही और जब उसे पेश किया गया, तो भी उस पर कोई ‘एक्शन’ नहीं हुआ. बस चुनाव के दौरान मुसलमानों के लिए आरक्षण की घोषणा करने की प्रतियोगिता जरूर शुरू हो जाती थी. राजनीति में मर्यादा का उल्लंघन कोई अपराध नहीं होता, झूठ बोलने को गुनाह नहीं माना जाता. लेकिन, जिस तरह लगातार मुसलमानों के असल मुद्दों के साथ मजाक होता रहा, वह शर्मनाक है. 2019 के चुनाव में राजनीतिक दलों ने मुसलमानों को झूठी दिलासा देना भी बंद कर दिया. इतना ही नहीं, गुडग़ांव में जुमे की नमाज पढऩे को लेकर काफी हंगामा हुआ. हरियाणा की भाजपा सरकार ने खाली पार्कों में जुमे की नमाज पर पाबंदी लगा दी. जहां सालों से नमाज पढ़ी जाती थी, उन जगहों पर धारा 144 लगा दी गई. लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने इसका खुलकर विरोध नहीं किया. न धरना-प्रदर्शन हुआ और न किसी ने कैंडिल मार्च निकाला.

दरअसल, 2019 में सेकुलरिज्म एक मुद्दा इसलिए नहीं है, क्योंकि 2014 के बाद कांग्रेस ने अपनी हार के विश्लेषण के लिए एंटोनी कमेटी बनाई, जिसने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पार्टी की छवि ‘प्रो-मुस्लिम’ हो गई है, जिसकी वजह से हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस फौरन गलती सुधारने में जुट गई. इस बीच 28 सितंबर, 2015 को दादरी स्थित बिसहेड़ा गांव में कुछ लोगों ने अखलाक नामक शख्स के घर पर हमला कर दिया. किसी ने अफवाह फैलाई थी कि परिवार ने गौमांस खाया है. इस हमले में बुजुर्ग अखलाक की मौत हो गई, जबकि उनका 22 साल का बेटा दानिश गंभीर रूप से घायल हो गया. दादरी कांड से पूरा देश हिल गया. लिंचिग के इस वाकये के बाद देश भर में धरना-प्रदर्शन हुआ, काफी बवाल मचा. उस समय उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. लेकिन, इसके बाद जब चुनाव हुआ, तो भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. सेकुलर पार्टियों, खासकर कांग्रेस को अब यह विश्वास हो चला था कि मुसलमानों के हक की लड़ाई उनकी हार का कारण बन रही है. यही वजह है कि जब गुजरात और कर्नाटक में चुनाव हुए, तो राहुल गांधी ने जनेऊ पहन कर मंदिरों का दौरा शुरू कर दिया, जिसे बाकायदा मीडिया इवेंट बनाया गया. दोनों ही राज्यों में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा. इसलिए यही प्रयोग राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनावों में भी दोहराया गया. कांग्रेस खुद को असली हिंदू पार्टी साबित करने में जुट गई. कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी का यह रुख देखकर कई क्षेत्रीय पार्टियों ने भी सॉफ्ट हिंदुत्व की रणनीति अपना ली.

हकीकत यह है कि मुस्लिम समुदाय विकास की मुख्य धारा से बाहर हो चुका है. इसकी कई वजहें हैं. शिक्षा और शिक्षा का स्तर एक बड़ी वजह है. मुस्लिम युवा वर्तमान की प्रतियोगी दुनिया में पिछड़ रहे हैं. निजी क्षेत्र में भेदभाव के भी मामले सामने आ रहे हैं. साथ ही मीडिया और राजनीति ने ऐसा वातावरण बना दिया है, जिससे मुसलमान खुद विमुख होते जा रहे हैं. सरकार को इन बातों की चिंता नहीं है. मुसलमानों से जुड़े किसी भी आंकड़े पर आप नजर डालें, तो पता चलता है कि उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक हालत दलितों से ज्यादा खराब है. मुस्लिम बस्तियों में स्कूल नहीं हैं, अस्पताल नहीं हैं, उनके लिए रोजगार के अवसर नहीं हैं. समाज के हर क्षेत्र में देश के मुसलमान पिछड़ रहे हैं और उन्हें कोई सहायता नहीं मिल रही है या यूं कहें कि उन्हें सहायता नहीं दी जा रही है. केंद्र सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीति गरीबों को और गरीब बना रही है. वर्तमान आर्थिक नीति का सबसे विपरीत प्रभाव मुसलमानों पर ही पड़ा है. आंकड़े बताते हैं कि छोटे एवं मंझोले कृषक मुसलमानों को जीने के लिए अपनी बची-खुची जमीन बेचनी पड़ रही है. वे धीरे-धीरे किसान से मजदूर बनते जा रहे हैं. देश में 60 प्रतिशत से ज्यादा ग्रामीण मुसलमानों के पास जमीन नहीं है. हैरान करने वाली बात यह है कि हर साल एक प्रतिशत जमीन मुसलमानों के हाथ से खिसक रही है.

मुसलमानों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है. एक ओर गांवों से जमीन जा रही है, तो दूसरी ओर सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का विपरीत असर पड़ रहा है. नोटबंदी और जीएसटी का सबसे विपरीत प्रभाव कामगारों पर पड़ा, अपने हुनर के जरिये पैसा और नाम कमाने वाले व्यापार पर पड़ा. पारंपरिक व्यापार में ताला लग चुका है. ऐसे लोगों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हुई है. सरकार ऐसी है, जो मुसलमानों की बदहाली दूर करने के लिए कोई विशेष योजना निकालने की इच्छुक नहीं है. एक ओर मुस्लिम समुदाय की मूलभूत समस्याएं हैं और दूसरी ओर तेजी से बदलता हुआ सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवेश है. मुसलमानों के सामने खतरनाक चुनौती है. खतरनाक इसलिए, क्योंकि हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहां थोड़ी सी चूक या देरी पूरे मुस्लिम समुदाय को समाज के सबसे निचले स्तर पर ले जाएगी. यह स्थिति विस्फोटक हो सकती है. दलित विकास की राह पर आ चुके हैं. कई अनुसूचित जातियां काफी आगे निकल चुकी हैं. कई पिछड़ी जातियां ऊंची जातियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं. अल्पसंख्यकों में भी जैन, सिख, ईसाई, पारसी वगैरह पहले से काफी आगे हैं. सिर्फ मुसलमान पिछड़ रहे हैं. इन हालात में सेकुलर होने का दंभ भरने वाली पार्टियों को खुलकर सामने आना चाहिए था. मुस्लिम समुदाय की मूलभूत समस्याओं को सबसे अहम चुनावी मुद्दा बनाना चाहिए था. लेकिन राजनीति का खेल निराला होता है. चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों से कोई आशा नहीं बची है. राजनीतिक दलों ने भले ही सेकुलरिज्म को तिलांजलि दे दी हो, लेकिन देश की जनता एकजुट होकर जीना जानती है और वह यह भी जानती है कि विकास का सही मतलब समाज के सबसे निचले वर्ग का उत्थान होता है. वर्तमान समस्याओं से निपटने और भविष्य का नक्शा तैयार करने के लिए नई पीढ़ी यानी युवाओं को आगे आना होगा और मुस्लिम समुदाय को इस दलदल से निकालना होगा.