निशा शर्मा

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला अपनी खूबसूरती की वजह से देसी-विदेशी पर्यटकों के बीच हमेशा ही आकर्षण का केंद्र रही है। यहां का मॉल रोड हो, लक्कड़ बाजार या जाखू का मंदिर लोगों की भीड़ आपको हमेशा मिलेगी। यहां आपको खाने के छोटे-छोटे स्टॉल मिलेंगे। रात को अगर आप इन सड़कों पर निकल जाएं तो लोग सड़क किनारे शराब पीते भी मिल जाएंगे। करीब चार महीने पहले राजधानी से मात्र साठ किलोमीटर ऊपर कोटखाई तहसील में गैंगरेप की ऐसी दिल दहला देने वाली घटना हुई जिससे पूरा प्रदेश सन्न रह गया। शांतिप्रिय इस पहाड़ी राज्य की यह न सिर्फ पहली गैंगरेप की घटना थी बल्कि हैवानों ने जिस दरिंदगी से इसे अंजाम दिया था उससे पूरा पहाड़ उबल गया।
दसवीं क्लास में पढ़ने वाली गुड़िया (बदला हुआ नाम) के साथ घटी इस घटना के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए, जगह-जगह तोड़-फोड़ हुई और कैंडल मार्च भी निकाला गया। समय बीतने के साथ अब लोगों का रोष भले ही कम हो गया है मगर बहु-बेटियों की सुरक्षा को लेकर एक डर जरूर समाया हुआ है। चुनावी दौर होने के चलते विपक्षी पार्टियों की ओर से इस घटना का राजनीतिक लाभ लेने की भी कोशिश हुई। यहां के लोकल रेडियो स्टेशनों पर इससे जुड़ा एक विज्ञापन खूब प्रसारित किया गया जिसने यहां के लोगों के जख्मों को फिर हरा कर दिया। प्रदेश के चुनावी कवरेज के दौरान मैंने पीड़िता के घरवालों से मिलने की ठानी और निकल पड़ी उस दूरदराज पहाड़ी गांव की ओर जहां पहुंचना मेरे लिए काफी मुश्किलों भरा रहा।

मैंने शिमला से एक टैक्सी ली और ड्राइवर को बताया कि मैं पत्रकार हूं, मुझे कोटखाई जाना है। कोटखाई का नाम सुनकर उसने कहा- जहां गुड़िया का शव मिला था या उसके घर जाना है। मैंने कहा- मुझे दोनों जगह जाना है। कोटखाई को पहले कम ही लोग जानते थे मगर अब यह तहसील गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की वजह से सुर्खियों में है। शिमला में मुझे बताया गया था कि कोटखाई करीब ढाई घंटे का रास्ता है। उसी हिसाब से मैं सुबह आठ बजे शिमला से निकली ताकि शाम तक वापसी हो जाए। रास्ते में ठियोग पड़ा। ठियोग मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का चुनावी क्षेत्र है। मुख्यमंत्री का विधानसभा क्षेत्र होने के लिहाज से यहां वैसी कोई बड़ी तरक्की नहीं दिखी जिसके लिए इसे जाना जा सके। हम रास्ता पूछते हुए आगे की ओर बढ़ रहे थे। चील के पेड़ों के अलावा यहां दूर-दूर तक कोई घर रास्ते में आसानी से नहीं दिखता है। वैसे भी हिमाचल में गांव सड़क से दूर ही हैं। ठियोग से कुछ किलोमीटर आगे चलने पर सीधी सड़क से दो मोड़ मुड़ते थे। हमने वहां एक दुकानदार से पूछा कि कोटखाई जाना है तो मानो वो हमसे ही पूछ रहा हो, कोटखाई- गुड़िया के यहां। मैंने हां कहा तो उसने तुरंत रास्ता बताया। वहां से करीब एक घंटा चलने के बाद हमें फिर रास्ता पूछने की जरूरत पड़ी। एक शख्स ने कहा- मुझे ऊपर छोड़ दीजिए मैं आपको रास्ता भी बता दूंगा और पहाड़ पर अपनी जगह भी पहुंच जाऊंगा। अंजान पहाड़ी रास्ता होने के चलते हमने उसे अपनी गाड़ी में बिठा लिया।
बातचीत के दौरान उसने बताया कि यहां एक बस सुबह आती है जो ऊपर तक जाती है। वही बस फिर लौट कर आती है तो लोग नीचे मुख्य सड़क तक पहुंचते हैं। मुझे खड़े रहते हुए काफी देर हो गई इसलिए आपसे लिफ्ट ले ली। मैंने पूछा कि गुड़िया का घर कितनी दूरी है तो उसने कहा कि अभी दूर है। फिर मैंने उससे पूछा-क्या चल रहा है यहां पर, सेब हैं या नहीं। उसने कहा- नहीं जी अब तो सेब खत्म हो गया है। सब बाजार में पहुंच गया है। मैंने गुड़िया की बात छेड़ी और पूछा कि अब तो पुलिस ने इलाके में सुरक्षा के पूरे बंदोबस्त कर रखे होंगे तो वह कहने लगा कि पुलिस किसी के मन का या दिमाग का बंदोबस्त थोड़ी न करेगी। जब तक गुड़िया के कातिलों को पकड़ा नहीं जाता तब तक डर तो है ही। अब तो हमें भी निकलने में डर लगता है तो जरा सोचिये कि औरतों का क्या हाल होगा। हमारे इलाके में कभी चोरी की कोई घटना नहीं हुई। ऐसे में गैंगरेप की घटना तो बहुत बड़ी बात है।

वह इस मुद्दे पर ज्यादा बोलना नहीं चाह रहा था। कई सवालों के तो उसने हूं या हां में ही जवाब दिए। इसलिए मैंने बात पलट दी। मैंने उससे पूछा कि गुड़िया के घर से आपका घर कितनी दूरी पर है तो उसने कहा- हम यहां नहीं रहते हैं। यहां तो हमारे सेब के बाग हैं। हम बाजार की तरफ रहते हैं। मैंने पूछा कि यहां से गांव कितनी दूरी पर है तो उसने बताया कि यहां के ज्यादातर लोग सेब की खेती करते हैं और वे शिमला या बाहर रहते हैं। यहां सिर्फ फसल के दौरान आना होता है। करीब 25 मिनट के सफर के बाद वह गाड़ी से उतर गया। उतरते हुए उसने धन्यवाद कहा और हमें आगे का रास्ता बताने लगा। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे इलाका सुनसान होता जा रहा था। यह बिल्कुल अलग जगह थी जहां न कोई चहल-पहल, न कोई पशु-पक्षी, यहां तक कि दूर-दूर तक कोई घर भी नजर नहीं आ रहा था। अब तो मुश्किल यह भी थी कि रास्ता किससे पूछें।

जैसा कि उस शख्स ने कहा था कि सीधे चलते रहना, हम चले जा रहे थे। पक्की सड़क से हम कोसों दूर आ चुके थे और उबड़-खाबड़ रास्ते शुरू हो चुके थे। रास्ते के किनारों को सेब के पेड़ों ने घेर रखा था। हालांकि दिन था फिर भी घने जंगलों से दिखने वाला इलाका हमें डरा रहा था। कुछ दूर चलने पर हमें एक घर नजर आया जिसके बाहर दो लड़के खड़े थे। हमने उनसे रास्ता पूछा तो उनमें से एक ने बताया कि गुड़िया का घर अभी दूर है। सीधे जाने के बाद दो कैंची (दो भागों में बंटने वाले रास्ते को स्थानीय लोग कैंची कहते हैं) पड़ेगी लेकिन कहीं मुड़ना नहीं। हम फिर चल दिए मगर मंजिल अभी भी दूर थी। शिमला से निकले हुए हमें ढाई घंटे से ज्यादा हो चुके थे। अचानक एक जगह खुला मैदान दिखा और एक साइन बोर्ड, जिस पर लिखा था राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला, महासू, तहसील-कोटखाई। मुझे लगा कि यह वही स्कूल है जहां गुड़िया पढ़ती थी। पास से गुजरते हुए दो स्कूली बच्चों से जब मैंने पूछा कि ये वही स्कूल है जहां गुड़िया पढ़ती थी तो उन्होंने गरदन हिला कर हामी भरी। स्कूल की बिल्डिंग अभी दूर थी। मैंने बच्चों से कहा कि क्या तुम मुझे अपने स्कूल ले चलोगे तो उन्होंने फिर हां में गरदन हिलाई। मुझे लगा शायद मेरी भाषा उन्हें समझ में कम आ रही हो तो मैंने पहाड़ी में उन बच्चों से पूछा- थूआंजो पहाड़ी नी आंदी (तुम्हें पहाड़ी नहीं आती)। फिर भी उनका कोई जवाब नहीं आया। मुझे लगा शायद बाहरी लोगों का डर है। मैंने फिर हिंदी में कहा कि मैं बाहर से आई हूं। साथ ही उनसे झूठ बोला कि मेरी बुआ की बेटी इस स्कूल में पढ़ती है, क्या तुम मुझे स्कूल ले चलोगे। फिर वे आपस में कुछ बात करने लगे और मुझसे कहा- हां ले चलेंगे।

मैंने रास्ते में उनसे पूछा कि गुड़िया कौन सी क्लॉस में पढ़ती थी तो वे बोले- दसवीं में थी। मैंने जब उनसे पूछा कि गुड़िया के गायब होने के बाद तुम्हें स्कूल में मैंडम या सर ने क्या बताया तो वे बोले- ‘हमें प्रिंसिपल सर ने कहा है कहीं भी अकेले नहीं जाना है। मैडम या मुझको बताकर जाना है।’ मैंने पूछा- पहले तुम अकेले चले जाते थे क्या? तो बच्चों ने कहा कि हम छुट्टी होने पर घर अकेले चले जाते थे क्योंकि हमारा घर पास में ही है। गुड़िया का घर दूर है। अब कैसे जाते हो यह पूछने पर उन्होंने कहा- अब दोस्त और दीदी के साथ घर जाते हैं। तब तक स्कूल आ गया। यह स्कूल देवदार के पेड़ों से घिरा है जिसका बड़ा ग्राउंड है। ग्राउंड में दो चार बच्चे खेल रहे थे। एक बगीचे में एक क्लॉस लगी थी, सातवीं कक्षा की। पूरी कक्षा में आठ बच्चे थे जो दो पंक्तियों में बैठे थे। एक अध्यापिका उन्हें पढ़ा रही थीं। मेरे साथ आए दोनों बच्चे भी उस कक्षा में बैठ गए। मैंने अध्यापिका को अपना परिचय दिया तो उन्होंने तसल्ली से बात करनी चाही। मैंने उनसे पूछा कि क्या प्रिंसिपल साहब से भी बात हो पाएगी तो वह कहने लगीं कि आज ही स्कूल खुला है, प्रिंसिपल साहब शाम तक आएंगे। संयोग से एक कोने से प्रिंसिपल अनिल पराशर आते दिखे। स्कूल का उसी दिन खुलना और प्रिंसिपल का यकायक आना मेरे लिए करिश्मे से कम नहीं था।

अध्यापिका और मैं प्रिंसिपल साहब की तरह बढ़े। उन्हें मैंने बताया कि मैं दिल्ली से आई हूं, गुड़िया और आपके स्कूल के बारे में जानना चाहती हूं। वे मुझसे बात करते हुए मुझे अपने कार्यालय ले गए। उन्होंने कहा कि यहां के थानेदार (एसएचओ) उनका इंतजार कर रहे हैं। उनसे बात करने के बाद आपसे इत्मीनान से बात करूंगा। मैंने पूछा कि गुड़िया मामले में एसएचओ यहां आए हैं क्या? तो उन्होंने कहा- नहीं किसी और मामले में। मैं भी उस कमरे में बैठ गई जहां पहले से एसएचओ बैठे हुए थे। उनका काम खत्म हुआ तो मैंने प्रिंसिपल साहब से कहा कि क्या मैं एसएचओ साहब से बातचीत कर सकती हूं तो उन्होंने कहा- जी बिल्कुल। मैंने उन्हें जैसे ही बताया कि मैं दिल्ली से ओपिनियन पोस्ट की ओर से आई हूं, वह घबरा गए। कहने लगे, ‘मैडम मैं नया-नया यहां आया हूं, मुझे गुड़िया मामले की कोई जानकारी नहीं है। मैं जब से यहां आया हूं तब से मुझ पर मुसिबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। हर कोई मुझसे जानकारी लेने आ जाता है। जिस केस का मुझसे कोई लेना-देना नहीं उस बारे में मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता।’ मैंने कहा कि आप बेवजह डर रहे हैं, मैं सिर्फ यह जानना चाह रही थी कि यहां का माहौल कैसा है लेकिन एसएचओ साहब किसी तरह की जानकारी मुझे नहीं देना चाह रहे थे। वे इतने घबराए हुए थे कि दो मिनट भी मेरे सामने नहीं बैठे और चले गए।

मैंने इसी डर का जिक्र प्रिंसिपल साहब से किया तो वे कहने लगे, ‘पता नहीं क्यों डर रहे हैं। दरअसल, इस केस ने सबको डरा दिया है, चाहे वह पुलिस वाला हो या स्कूल का बच्चा। पुलिस की गाड़ी देख कर बच्चे डर जाते हैं और मीडिया को देखकर पुलिस डर जाती है।’ मैंने पूछा कि क्या अभी भी स्कूल के बच्चों में डर है तो उन्होंने जवाब दिया, ‘डर तो है लेकिन पहले जैसा नहीं। बच्चे हैं बहल जाते हैं। जब घटना हुई थी तो बच्चों ने स्कूल आना कम कर दिया था। फिर हमने बच्चों की काउंसेलिंग की तब दोबारा बच्चों ने स्कूल आना शुरू किया।’ एक साल पहले जब वे यहां आए थे, उन दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘मैंने बहुत मेहनत करके स्कूल में अनुशासन और बच्चों में पढ़ने की ललक पैदा की थी। वही मेहनत दोबारा करनी पड़ी। गुड़िया के साथ हुए हादसे ने बच्चों को ही नहीं, हमें भी झकझोर दिया। हिमाचल एक शांतिप्रिय राज्य है। हमने आज तक कभी ऐसा नहीं देखा। हम तो मस्तमौला होकर अपने स्कूलों में पढ़े हैं। गुड़िया ने जब स्कूल में दाखिला लिया था तो मैंने उसके पिता से कहा भी था कि घर से इतनी दूर क्यों दाखिला दिलवा रहे हो। वह दसवीं कक्षा में फेल हो चुकी थी। पहले वाले स्कूल में पढ़ सकती थी लेकिन उसके पिता नहीं माने। कहने लगे कि बेटा यहां पढ़ता है तो बेटी भी साथ पढ़ लेगी। बाद में तो दोनों को इसी स्कूल में आना है। मैं प्रदेश के जिस इलाके से आता हूं वहां इतनी पहाड़ियां नहीं हैं। स्कूलों तक पहुंचने के रास्ते हैं, बसें हैं। लेकिन यहां इन घने जंगलों से होकर बच्चों का आना मुझे डराता था। मगर यहां के स्टॉफ ने कहा कि सर ऐसी कोई बात नहीं है। यहां के बच्चों को इन रास्तों की आदत है। अब इस मामले को लेकर सीबीआई से लेकर कोई न कोई आता ही रहता है। ऐसे में बच्चे पुलिस की गाड़ी देखकर डर जाते हैं।’
जिस दिन गुड़िया गायब हुई थी उस दिन के बारे में उन्होंने बताया, ‘उस दिन हमारे स्कूल में स्पोर्ट्स डे था। गुड़िया को स्कूल में दाखिला लिए एक महीना ही हुआ था। उसने किसी खेल में हिस्सा नहीं लिया था तो हमने छनछना बजाने में उसे भाग लेने को कहा ताकि बच्चे को प्रोत्साहन मिले। वह उस दिन करीब साढ़े चार बजे स्कूल से निकल गई। उसके दो दिन बाद हमें इस घटना के बारे में पता चला। उसके बाद तो पूरा स्कूल सदमे में आ गया। कोई भी समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो गया। जहां गुड़िया की लाश मिली थी वहां तक मैं पहली बार गया था। घने जंगलों का रास्ता है। मेरा सरकारी कमरा स्कूल के पास नीचे की तरफ है। उस ओर जाने का कभी कोई काम भी नहीं पड़ा।’ गुड़िया के क्लॉस टीचर राजू कहते हैं, ‘उसे स्कूल में आए कम ही दिन हुए थे। उससे जितना पूछा जाए उतना ही बताती थी। वो किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी। मैं सोचता था कि बच्ची नई है, बच्चों के साथ घुलने-मिलने में समय लगेगा।’

इस स्कूल में गुड़िया की सहेली बनी समीक्षा कहती है, ‘वह किसी से बात नहीं करती थी। उसने सिर्फ इतना बताया था कि वो सात बहन है और उसके एक जीजा जी की डेथ हो गई है।’ समीक्षा से मैंने करीब आधा घंटा बात की लेकिन वह बोलने को तैयार ही नहीं थी। मैंने उससे कहा भी कि जो तुम उसके बारे में बताना चाहो वह बता सकती हो तो वह कहने लगी, ‘एक बार मैंने उससे पूछा था कि क्या तेरा बॉय फ्रेंड है तो उसने कहा था- नहीं।’ गुड़िया की सामाजिक विज्ञान की अध्यापिका प्रियंका कहती हैं कि जो भी स्कूल में गुड़िया के बारे में जानने आता है समीक्षा से ही उसके बारे में पूछता है। जब यह हादसा हुआ था तो गुड़िया की बड़ी बहन भी रो-रो कर उससे पूछ रही थी कि तुझसे गुड़िया ने स्कूल से निकलने से पहले कुछ बताया था क्या? लेकिन समीक्षा ने वही बताया जो आपको बताया है। मैंने उनसे पूछा कि आप गई थीं घटनास्थल पर तो उन्होंने कहा, ‘हां, मैम इतनी बेरहमी तो कोई जानवर भी नहीं करता जो उसके साथ की गई थी। उसके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था। हम तो यहां रेप शब्द बोलने से भी कतराते हैं और ऐसी जगह में गैंगरेप हो गया। सोचिये किस तरह हमारे दिमाग पर असर पड़ा होगा।’

स्कूल में ब्रेक की घंटी बजी, सभी बच्चे बाहर मैदान में खाना खाने, खेलने निकले। मैंने स्कूल के प्रिंसिपल अनिल पराशर से पूछा कि कुल कितने बच्चे होंगे स्कूल में तो उन्होंने बताया कि करीब 88 बच्चे हैं। मैंने सब बच्चों से बैठकर बात की और पूछा कि अखबार पढ़ते हो तो वे कहने लगे हमारे यहां एक ही अखबार आता है वो भी दोपहर को पहुंचता है। मैंने पूछा- फेसबुक कौन-कौन चलाता है तो किसी ने हामी नहीं भरी। व्हाट्सऐप तो चलाते ही होगे तुम लोग के जवाब में फिर बच्चों ने ना में गरदन हिला दी। एक बच्ची ने कहा हमारे पास फोन नहीं है, यहां बच्चों के पास फोन नहीं होता। मैंने पूछा- घर पर फोन है तो बच्चे बोले- हां घर पर है पर उसमें इंटरनेट नहीं है। दिन चढ़ रहा था। मैं स्कूल से निकल कर गुड़िया के घर की ओर निकल पड़ी। घने जंगल के रास्तों को देखकर (यहां देवदार के घने जंगल हैं), इंटरनेट जैसी सुविधा का न होना, अखबार का दोपहर तक पहुंचना मुझे अहसास करवा रहा था कि यह शिमला जिले का हिस्सा है भी या नहीं।

जिन रास्तों पर हमारी गाड़ी चल रही थी वहां गाड़ी का चलना नामुमकिन जैसा ही था। ड्राइवर बार-बार यही बात दोहरा रहा था। शिमला में 20 साल से टैक्सी चलाने के बावजूद वह भी पहली बार इस इलाके में आया था। एक जगह आकर तो उसने कहा कि हमें जमीन पर पत्थर रखने होंगे ताकि गाड़ी का बंपर नीचे न लग जाए। हमने मेहनत से गाड़ी के लिए रास्ता तो बनाया लेकिन गाड़ी से बाहर आने में भी डर लग रहा था क्योंकि स्कूल वालों ने बताया था कि यहां जंगली भालुओं का बहुत खौफ है। वह खौफ गाड़ी से बाहर निकलने में डरा रहा था लेकिन रास्ता बनाना भी जरूरी था। हम रास्ता बनाते-बनाते बहुत दूर आ चुके थे। स्कूल के प्रिंसिपल को बार-बार फोन लगाकर रास्ता पूछते थे क्योंकि रास्ते में कोई इंसान नजर नहीं आ रहा था। एक जगह कुछ चिरानी (लकड़ी काटने वाले) लोग मिले जो मंडी से लकड़ी काटने यहां आए हुए थे। वहां एक छोटा मंदिर भी था जहां आस-पास के लोग पूजा करने आते हैं। हमने उनसे पूछा कि ऐ गुड़िया दा कर किति आ…तो उन्होंने जवाब दिया- अहे बी बारा ते आऊदे अहां जो ऐथी दा कुछ पता नी आ ( सवाल)-गुड़िया का घर किधर है,(जवाब)- हम बाहर से आए हैं हमें पता नहीं है) फिर उन्होंने बताया, ‘आले दूर आ, ज्यादा तां असां जो बी नी पता। पर ऐ पता कि तिसा कुड़िया दा कर इस तरफा जो आ तिसा ने जे बुरा कम ओउदा (अभी दूर है। ज्यादा तो हमें भी नहीं पता पर इतना पता है कि इस तरफ को है उस लड़की का घर जिसके साथ बुरा हुआ था।)’

उस जगह से थोड़ी दूर देवदार के घने जंगल में ही गुड़िया की लाश मिली थी। वहां से बहुत दूर पहुंचने के बाद पहाड़ी पर हमें कुछ घर दिखाई दिए। हमें लगा कि शायद यहीं गुड़िया का भी घर होगा। हमने एक शख्स से पूछा कि गुड़िया का घर कौन सा है तो उसने बताया कि यहां से और एक घंटे का रास्ता है लेकिन वहां गाड़ी नहीं जा पाएगी। टैक्सी ड्राइवर ने भी उस जगह से आगे जाने से मना कर दिया। अब मेरे पास पैदल पहाड़ की चढ़ाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलकर और पत्थर उठाकर पहले ही मैं काफी थक चुकी थी। पैदल चढ़ाई शुरू करने से पहले मैंने सोचा थोड़ा सुस्ता लूं और यहां के लोगों से बात कर घटना के बारे में कुछ और जानकारी ले लूं। मैंने उन लोगों से पीने को पानी मांगा और बात करने लगी।

उन्होंने बताया कि गुड़िया का पिता बहुत अड़ियल स्वभाव का है। जब उसे अपनी बेटी के बारे में पता लगा कि वह घर नहीं आई है तो उसने किसी को नहीं बताया। मैंने पूछा कि आप लोगों को क्या लगता है कि किसने किया होगा यह सब तो एक शख्स ने कहा, ‘यहां के लोग एक शख्स के बारे में बातें तो करते हैं लेकिन वह दबंग इंसान है। उसके बारे में कुछ कहो तो वह बंदूक लेकर निकाल लाता है। हमने सुना था कि उसने ही यह किया है। उसका बेटा वकील है। बहुत पैसे वाला होने के साथ-साथ कांग्रेस का बंदा है। इसलिए कोई उसे पकड़ नहीं पा रहा है। सुना है सीबीआई ने गलत-गलत लोगों को पकड़ लिया है। जो लोग पकड़े गए हैं वे निर्दोष हैं। वे सब जिसके नीचे काम करते हैं उससे कोई क्यों नहीं पूछताछ करता। क्या पता उसी ने ही यह सब किया हो?’ फिर उसने सफाई देते हुए कहा कि हमने भी यह सब सुना ही है। अब भगवान ही जाने सच क्या है।

दिन बीतता जा रहा था इसलिए मैंने वहां ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं समझा और गुड़िया के घर की तरफ पहाड़ चढ़ने लगी। वहां की चढ़ाई से ज्यादा खतरनाक वहां का एकांत था। कोई रास्ता बताने वाला नहीं था। बड़ी मुश्किल से गुड़िया के परिवार का नंबर लगा तो गुड़िया की बड़ी बहन मुझे ढूंढती हुई नीचे आई। जिन कठिन रास्तों से होकर मैं वहां पहुंची थी उसे देखते हुए मैंने उससे सबसे पहला सवाल यही पूछा कि तुम लोग रोज इतना चढ़ते उतरते हो तो उसने हां में सिर हिला दिया। पहाड़ के लोगों के लिए तो यह आम बात है मगर मेरे लिए किसी हैरानी से कम नहीं था। आखिरकार मैं अपनी मंजिल पर पहुंच चुकी थी। पहाड़ की चोटी पर देवदार की लकड़ी से गुड़िया का घर बना था। घर के बाहर लिखा था यह परिवार बीपीएल की श्रेणी में आता है। मैं सीढ़ियां चढ़ते हुए सोच रही थी कि क्या जिसके सेब के बागान हों वह बीपीएल की श्रेणी में आ सकता है। मैंने गुड़िया के पिता से पूछा कि कितने पेटी सेब हो जाते हैं तो उन्होंने बताया, ‘250 पेटी के करीब।’ फिर मैंने पूछा कितना पैसा मिल जाता है तो उन्होंने कहा, ‘60 हजार रुपये के आस-पास जिसमें पूरे साल का खर्च निकालना होता है।’ सेब के अलावा क्या-क्या होता है के जवाब में उन्होंने कहा, ‘कुछ नहीं।’ गुड़िया की छह बहनों में पांच की शादी हो चुकी है मगर एक के पति की आकस्मिक मौत की वजह से वह अब मायके में ही रहती है। एक अभी कुंवारी है। उसका भाई दसवीं में पढ़ता है। मां-बाप सहित परिवार में अभी भी पांच सदस्य हैं।

गुड़िया की मां ने बताया, ‘यहां सर्दियों में छह फुट बर्फ पड़ती है, घर से बाहर निकलना भी मुश्किल होता। हम छह महीने का राशन-पानी और जानवरों का चारा इकट्ठा कर लेते हैं ताकि बर्फबारी के दौरान कोई परेशानी न हो।’ मैंने पूछा आप शिमला जाती हैं तो कहने लगीं, ‘सालों में कभी जाना होता है। मेरी एक बेटी वहां रहती है लेकिन जाना नहीं होता। अब गुड़िया चली गई है तो लोग उसके चरित्र पर ही सवाल उठाते हैं। कहते हैं उसका चरित्र ही खराब था तभी ऐसा हुआ।’ बीच में ही उसके पिता बोल पड़े, ‘जब उसकी लाश मिली थी तो पुलिस कह रही थी कि उसने नशे के इंजेक्शन लिए हुए थे। यहां हम एक वक्त की रोटी ठीक से खा नहीं पाते कोई इंजेक्शन कहां से लेगा। कभी वह अकेली कहीं आती-जाती नहीं थी, किसी से बात तक नहीं करती थी। जानने वाला भी मिल जाए तब भी वह उससे आसानी से नहीं बोलती थी।’

गुड़िया की मां उस दिन को याद करते हुए कहती हैं, ‘हमने सोचा था वह मामा के या सहेली के घर रुक गई है। घर आने के बाद जब बेटे ने बताया कि वह तो पिछले दिन ही स्कूल से वापस आ गई थी तो हम उसे ढूंढने निकले। रात हो गई। मेरे मन में यही आ रहा था कि उसे भालू ने खा लिया होगा। अगले दिन उसके मामा भी उसे ढूंढ रहे थे तो उनका फोन आया कि गुड़िया की लाश मिली है।’ गुड़िया की मां थोड़ा रुककर कहती हैं, ‘उसे दांतों से काटा गया था। उसकी टांग तोड़ दी थी, गला घोंटा गया था, उसे तड़पा-तड़पा कर मारा गया था। उसके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं छोड़ा था।’ भगवान उसके दोषियों को इसी तरह सजा दे, गुड़िया के पिता बीच में ही बोल पड़े। उसके कपड़े बैग सब वहीं थे, बस जुराब नहीं थी। अगर ऐसी घटना उस जगह हुई होती तो उसका सारा सामान वहीं मिलता। उसे बेरहमी से मारकर वहां फेंका गया था।

मेरे पूछने पर कि आपको क्या लगता है, क्या होगा तो वे कहते हैं, ‘ऐसे लोगों को मोदी (प्रधानमंत्री) जी नहीं छोड़ेंगे। आप तो दिल्ली से आई हैं ना मैडम, आप ही बताईये सीबीआई क्या कह रही है। यहां लोग कहते हैं कि सीबीआई कुछ नहीं कर पाएगी उन लोगों का क्योंकि वे रसूख वाले हैं। अगर सीबीआई कुछ नहीं करेगी तो हम मोदी जी के पास जाएंगे। मुझे पूरा भरोसा है कि वह अपराधियों को नहीं छोड़ेंगे।’ इतना भरोसा किसी पर कोई कैसे कर सकता है के भाव से मैंने पूछा कि आप अपनी बात मुख्यमंत्री के सामने भी रख सकते हैं, इस पर वे कहते हैं, ‘उनका एमएलए घटना के सात दिन बाद हमारे घर हादसे पर अफसोस जताने आया था। पत्नी आई-गई कुछ पता नहीं चला। उन्होंने खुद तो फोन से भी बात नहीं की। पुलिस ने मामला रफा-दफा कर दिया। अगर हंगामा नहीं हुआ होता तो हम गरीबों को कौन पूछता? हम कैसे उन पर भरोसा करें।’ बेटी के साथ हुई हैवानियत ने परिवार को तोड़ दिया है। मानसिक तौर पर टूट चुके इस परिवार को अब सिर्फ यही उम्मीद है कि दोषियों को सजा मिले ताकि उनकी बेटी के चरित्र पर जो सवाल उठे हैं वो धुल जाएं और सवाल उठाने वालों के चेहरे पर उस फैसले को दे मारें।