जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू होने के बाद एकतरफा सीजफायर भी खत्म हो गया है। घाटी में इसका असर भी दिखने लगा है। क्या महबूबा सरकार के नरम रुख की वजह से अलगाववादियों और पत्थरबाजों के हौसले बुलंद हुए? इन्हीं तमाम मुद्दों पर रक्षा विशेषज्ञ मेजर जनरल (रिटा.) जीडी बख्शी से अभिषेक रंजन सिंह की बातचीत

जम्मू-कश्मीर में महबूबा सरकार से भाजपा अलग हो गई है लिहाजा अब वहां राज्यपाल शासन लागू है। आपको लगता है कि बदले हालात में आतंकवादियों के खिलाफ सेना की कार्रवाई में इससे कोई फर्क पड़ेगा?
परंपरागत रूप से भारतीय सेना किसी प्रकार की सियासी दखलंदाजी से प्रभावित हुए बगैर अपने अभियान में सिद्धांतत: जुटी रहती है। हमारे सेना प्रमुख ने भी कई मौकों पर इसे दोहराया है। फिलहाल राज्यपाल एकीकृत कमांड के प्रभारी हैं। उनके स्पष्ट निर्देशों का पालन सेना करती है। राज्यपाल शासन के बाद जम्मू-कश्मीर में तैनात सभी सुरक्षा बलों के साथ पहले से कहीं ज्यादा समन्वय की उम्मीद करता हूं। राज्यपाल राज्य के हालात पर नजर बनाए हुए हैं। साथ ही वह लगातार केंद्र सरकार के भी संपर्क में हैं। आतंकवादियों के खिलाफ सेना अभियान में जुटी है और इसका असर भी आपको दिख रहा होगा।

गवर्नर रूल के बाद सेना के आॅपरेशन में तेजी आई है। क्या घाटी में सक्रिय अलगाववादियों और दहशतगर्दों के मंसूबे नाकाम होंगे?
जम्मू-कश्मीर में जहां तक सुरक्षा संबंधी गतिविधियों का सवाल है, तो गवर्नर रूल को एक जादू की छड़ी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। कश्मीर में सुरक्षा और अमन बहाली भारत के लिए हमेशा एक चुनौती रहा है। राज्य के बदले सियासी हालात के मद्देनजर हम सोचते हैं कि आतंकवादियों के खिलाफ सैन्य अभियान तेज होने के बाद सब कुछ अचानक सही हो जाएगा, ऐसा भी नहीं है। कश्मीर के मौजूदा हालात पर पाकिस्तान की भी नजरें हैं और वह अपनी नापाक हरकतों को अंजाम देने के लिए जरूर किसी नई रणनीति पर काम कर रहा होगा। पिछले तीन दशकों से तमाम नाकामियों के बाद भी पाकिस्तान के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। हमारी सेना और खुफिया एजेंसियां इस बाबत काफी सक्रिय हैं और किसी भी प्रकार की बेफिक्री का सवाल नहीं है। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों की घुसपैठ रोकने के लिए हमारी सेना तत्पर है। पिछले कुछ वर्षों में सेना ने काफी आतंकवादियों को मार गिराया। सूबे में हमारी दूसरी चुनौती है अलगाववादियों से निपटना और उनके बहकावे से लोगों खासकर नौजवानों को दूर रखना। कश्मीर के युवाओं को अधिक से अधिक रोजगार के अवसर मुहैया कराने होंगे ताकि उनका गलत इस्तेमाल न हो। भारतीय सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस के बीच आपसी समन्वय एक बड़ा सवाल है। राज्य पुलिस को पूरी जवाबदेही के साथ सुरक्षा बलों के अभियान में काम करना होगा।

महबूबा सरकार के इस्तीफे और राज्यपाल शासन लागू होने के बाद कश्मीर घाटी में सेना और सुरक्षाबलों के खिलाफ पत्थरबाजी कम तो हुई है। क्या यह समझा जाए कि सूबे का हालिया सियासी नेतृत्व सुरक्षा व शांति बहाल रखने में नाकाम रहा?
अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि राज्यपाल शासन के बाद कश्मीर में सेना व सुरक्षा बलों पर भीड़ का हस्तक्षेप और पत्थर फेंकने की घटनाएं पूरी तरह बंद हो जाएंगी। बाकी वहां की सरकार का कैसा नेतृत्व रहा इस बारे में टिप्पणी करने का कोई मतलब नहीं है। मैंने पहले भी कहा है कि गुमराह कश्मीरी खासकर नौजवान सेना के जवानों पर हमला करते हैं। आजादी के जज्बाती नारों से इन्हें बरगलाया जाता है। सभी जानते हैं कि इसके पीछे वहां सक्रिय अलगाववादी संगठन हैं। इन्हें वित्तीय मदद कहां से मिलती है- यह किसी से छुपी नहीं है। इन अलगाववादी संगठनों को आर्थिक रूप से कमजोर करना जरूरी है। हालांकि हमारी खुफिया एजेंसियां और एनआईए इस दिशा में काम कर रही है। इसके बेहतर नतीजे भी सामने आए हैं। अलगाववादी अगर सोचते हैं कि समूचा कश्मीरी अवाम उनके साथ है तो वे गफलत में हैं। मेरे ख्याल से कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ हमारी सेना पूरी मुस्तैदी से जुटी हुई है। इसी के साथ-साथ हमें अलगाववादी संगठनों के वित्तीय नेटवर्क को भी ध्वस्त करना होगा। यह सही है कि इनकी जड़ें गहरी हो चुकी हैं लेकिन उसे तबाह करना नामुमकिन भी नहीं है।

राज्यपाल शासन कोई स्थायी विकल्प नहीं है। ऐसे में आगे का रास्ता क्या होगा जिससे जम्मू-कश्मीर में अमन और शांति के अलावा राजनीतिक स्थिरता कायम हो?
राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद जम्मू-कश्मीर में गवर्नर रूल कायम है। इसकी अवधि क्या होगी पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर भी इसकी एक मियाद होती है, जिसे बढ़ाया भी जा सकता है। मौजूदा सूरत-ए-हाल में राज्य में शांति और सुरक्षा बहाल करना राज्यपाल की प्राथमिकता होगी। सुरक्षा कारणों से ही अनंतनाग लोकसभा उपचुनाव नहीं कराया जा सका है। आप कल्पना कीजिए क्या अमरनाथ यात्रा के बाद भी वहां चुनाव कराना संभव है? मेरे ख्याल से नामुमकिन है। वहां चुनाव तभी कराना चाहिए जब सुरक्षा के मुकम्मल इंतजामात हों। मौजूदा समय में कश्मीर की राजनीतिक स्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण अमरनाथ यात्रा को सुरक्षित संपन्न कराना है। इस यात्रा के लिए सौ फीसदी पुख्ता बंदोबस्त करना होगा। आतंकवादी इस यात्रा में बाधा पहुंचाने की पुरजोर कोशिश करेंगे। इसलिए इस यात्रा के लिए सामान्य से अधिक सुरक्षा बलों की तैनाती आवश्यक है।

—अभिषेक रंजन सिंह