दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने अजय विद्युत को बताया कि महाराष्ट्र की घटनाओं को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का ऐसा दलित विरोधी चेहरा उन्होंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा। वहीं सरकार ने पहले से बताए जाने के बावजूद कोई संज्ञान नहीं लिया और दलित विरोधियों को खुली छूट दी।

महाराष्ट्र की घटना को आप किस रूप में लेते हैं?
वहां तीन घटनाएं हुई हैं। 29 दिसंबर, एक जनवरी और तीन जनवरी। और 29 दिसंबर की घटना ही सारी घटनाओं का केंद्र बिंदु है। भीमापुर गांव में जो स्मारक है उससे चार किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है वाधू। यहां दो समाधियां हैं। एक है संभाजी की जो शिवाजी के बड़े पुत्र थे और जिनको औरंगजेब ने बहुत ही यातनाएं देकर मार डाला था। औरंगजेब ने संभाजी की हत्या कर उनके शव को कई टुकड़ों में काटकर वाधू गांव के पास दलित बस्ती में फिंकवा दिया था। और यह चेतावनी दी गई थी अगर कोई भी इस शव का अंतिम संस्कार करेगा तो उसे भी मार डाला जाएगा। सब गांववाले डरकर भाग गए। रात के अंधेरे में दलित महिलाओं ने संभाजी के शव के जितने भी टुकड़े थे उनको इकट्ठा किया। और सूुजे से जोड़कर उन्हें एक शव का रूप देने की कोशिश की। सुबह गोविंद गोपाल गायकवाड़ ने, जो दलित थे, कहा कि संभाजी के शव का अंतिम संस्कार किया जाए। वह गांव में गए लोगों को बुलाने तो पता चला कि गांव वाले भाग गए हैं। आसपास के गांव वाले भी भाग गए। तो संभाजी के शव का दाह संस्कार गोविंद गोपाल गायकवाड़ के नेतृत्व में दलितों ने किया। फिर कुछ दिन बाद जब औरंगजेब को यह बात मालूम हुई तो उसने इनको भी मरवा दिया। फिर गांव वालों ने मिलकर महार गोविद गोपाल गायकवाड़ की समाधि भी संभाजी की समाधि के बगल में बना दी। फिर 2003 में गोविंद गोपाल गायकवाड़ की दसवीं पीढ़ी के वंशज राजेंद्र गायकवाड़, जो पुणे में बिजनेस करते हैं, उन्होंने गोविंद की समाधि पर एक बोर्ड लगा दिया कि जिसमें कहा गया कि उन्होंने किस प्रकार शिवाजी के बड़े बेटे संभाजी का दाह संस्कार किया था। चार साल पहले ये भगवा सेना वाले उस बोर्ड से वह पट्टी निकाल कर चुरा ले गए। तब दलितों ने सरकार से और वहां के कलेक्टर से कहा कि यहां पट्टी हटाई गई है और उसे लगवाया जाए। यह तो वास्तविक घटना है। वरना शिवाजी के बड़े बेटे की समाधि के पास एक दलित की समाधि कैसे हो सकती है जब तक उसके बहुत खास कारण न हों। आखिर उन्होंने संभाजी का अंतिम संस्कार किया था। तो इतने साल बीत गए लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। तब तक ये एक जनवरी दो हजार अट्ठारह आ गई। कोरेगांव भीमा वो जगह है जहां 200 साल पहले 1 जनवरी 1818 को ‘अछूत’ माने जाने वाले लगभग आठ सौ महारों ने चितपावन ब्राह्मण पेशवा बाजीराव द्वितीय के 28 हजार सैनिकों को घुटने टिका दिए थे। उसके दो सौ साल के अवसर पर एक जनवरी को एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था।

राजेंद्र गायकवाड़ ने फिर से एक नया बोर्ड बनवाकर गोविंद की समाधि पर लगवा दिया। तो 29 दिसंबर को भगवा सेना ने फिर इकट्ठा होकर गोविंद की समाधि से बोर्ड को हटा दिया और समाधि को नुकसान पहुंचाया। यह इसलिए किया गया ताकि लोगों को यह न मालूम हो कि शिवाजी के बड़े बेटे का दाह संस्कार एक दलित ने किया था और बाकी सब लोग भाग गए थे। वहीं से झगड़ा शुरू हुआ और दलितों से कहा गया कि तुम लोगों को हम एक जनवरी को देखेंगे। दलितों ने पुलिस में खबर की, सौ नंबर पर खबर की और सारे अधिकारियों को बताया, लेकिन सरकार ने कोई संज्ञान नहीं लिया। मीडिया ने भी कोई संज्ञान नहीं लिया। तब एक जनवरी की घटना हुई। मीडिया ने भी एक जनवरी की घटना का कोई संज्ञान नहीं लिया। वो चाहते हैं कि एक जनवरी की घटना को दलित न मनाएं क्योंकि इससे यह सिद्ध होता है कि आठ सौ दलितों ने पेशवा की अट्ठाइस हजार सेना को पराजित कर दिया। यह बात दुनिया न जाने। खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जो रवैया रहा है उससे तो लगता है कि उनके एंकर्स और रिपोर्टर्स पेशवा की जो सेना दलितों से हार गई थी, उन्हीं के वंशज हैं। इसीलिए वे एकतरफा रिपोर्टिंग कर रहे हैं। वो तो दलितों ने दो जनवरी को अगर मुंबई में प्रोटेस्ट नहीं किया होता और तीन जनवरी को बंद नहीं किया होता तो लोगों को मालूम भी नहीं पड़ता कि 29 दिसंबर को क्या हुआ था और एक जनवरी को क्या हुआ था। यह बात जो हमको मालूम है वह मीडिया को क्यों नहीं मालूम है? मीडिया को भी लग रहा है दलित लोगों से हमारे पूर्वज हार गए थे और यह बात उनको पच नहीं पा रही है। हालांकि इतनी तो प्रगति हुई है कि दलित उत्पीड़न पर मीडिया रिपोर्टिंग करती है और बहस करने को तैयार है। लेकिन दलित शौर्य और दलित दया पर मीडिया बहस करने के लिए तैयार नहीं है। मीडिया का जितना जातीय चेहरा अभी उभरा है उतना हमने तो अपने जीवन में कभी नहीं देखा।

महाराष्ट्र में हुई इन घटनाओं को दलितों के अपने अधिकार के लिए एक नए संघर्ष के रूप में देखना चाहिए या दलित-सवर्ण संघर्ष के रूप में?
इसे दलित शौर्य के रूप में देखना चाहिए। दलितों के साथ हजारों सालों से इतनी ज्यादती की गई है इसके बावजूद जब दलितों के हाथों में अंग्रेजों ने तलवार पकड़ाई तो दलितों ने अपना शौर्य दिखाया। बस इतना ही। दलित अपनी विजय का महोत्सव मना रहे हैं।
इसका राजनीतिक प्रभाव क्या होगा?
राजनीतिक प्रभाव यह होगा कि दलित एकजुट होकर भाजपा के विरोध में वोट डालेगा। क्योंकि इस लड़ाई को तो संघ परिवार समर्थन दे रहा है न! मौजूदा सरकार ने तो यह घटना होने दी है। एक जनवरी को निहत्थे दलित तीर्थयात्री के रूप में जा रहे थे तो उन पर हमला हुआ और सरकार पहले से बताने और मांग करने के बावजूद कोई संज्ञान नहीं लेती है। यह जानने के बावजूद कि वे हमला करने की तैयारी कर रहे हैं, असलहे इकट्ठा कर रहे हैं। सरकार ने उन्हें छूट दी कि तुम्हें चौबीस घंटे की छूट है जो करना हो करो। बाद में हम देख लेंगे।
इन घटनाओं का राजनीतिक असर सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित रह जाएगा या उसके बाहर भी आप उसका असर होता हुआ देख रहे हैं?
जोधपुर बंद था। हजारों दलित जोधपुर की सड़कों पर आए थे। तेलंगाना में बंद था। दिल्ली में रैली हो रही है। यह विरोध पूरे देश में फैल रहा है।
जिग्नेश मेवाणी का राजनीतिक भविष्य आपको कैसा दिखता है। कुछ लोगों ने उनकी तुलना कांशीराम से करनी शुरू कर दी है। आपको लगता है कि उनमें कांशीराम बनने की क्षमता है?
कांशीराम, मायावती, बाबू जगजीवनराम ये बड़े नेता हैं और ऐसे नेता सैकड़ों साल में पैदा होते हैं। तो कांशीराम से तो उनकी तुलना छोड़िये। पर जिग्नेश मेवाणी युवा है, प्रतिभाशाली है, अंग्रेजी जानता है, हिम्मती है… फ्यूचर है उसका! पर कांशीराम की तरह है यह कहना जल्दबाजी होगी। वामपंथ के कुछ वायरस उसमें हैं यह एक समस्या है। वैचारिक रूप से वह सोशलिस्ट टाइप के युग में हैं उससे उनको निकलना होगा। वैसे उसका भविष्य अच्छा है। वह युवा है और ऐसे नेताओं को प्रोत्साहित करना चाहिए आगे आएं और सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में अपनी भूमिका निभाएं।
और जिग्नेश मेवाणी के साथ जो लोग हैं वे उनके लिए एसेट हैं या लाइबिलिटी?
लाइबिलिटी हैं। उनको अपने कंधे पर लेकर मेवाणी अपनी गति कम कर देंगे। वे आलतू फालतू लोग हैं। उनका एक विचार है लेकिन वे दलित उभार नहीं देख सकते। दलित मर्सिडीज में चले, बाम्बे स्टॉक एक्सचेंज में अपना परचम लहराये- इस बात से इन लोगों को तकलीफ होगी। वो लोग मेवाणी पर बोझ हैं।